आज की पोस्ट में हम ’लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ (Bal Gangadhar Tilak) के बारे में पढ़ेगे, जिन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के लिए अनेक प्रयास किए।
बाल गंगाधर तिलक -Bal Gangadhar Tilak
बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय
मूलनाम | केशव |
जन्म | 23 जुलाई 1856 |
निधन | 1 अगस्त, 1920 |
जन्मस्थान | भारत के पश्चिमी तट पर महाराष्ट्र के कोंकण जिले में रत्नागिरी। |
पिता | श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक (संस्कृत के शिक्षक) |
माता | पार्वतीबाई |
जाति | चितपावन |
पत्नी | तापीबाई |
गुरु | विष्णु कृष्ण चिपलुणकर |
उपाधि | लोकमान्य तिलक |
पार्टी | कांग्रेस |
प्रसिद्ध नारा | “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” |
तिलक का नारा था – ’’स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’’
बाल गंगाधर तिलक की शिक्षा
जब तिलक 10 वर्ष के थे तो इनके पिता का स्थानांतरण पुणे हो गया। तब से इनके जीवन में परिवर्तन आया। तिलक का दाखिला पुणे के एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल में हुआ। पुणे आने के बाद इनकी माता पार्वतीबाई का निधन हो गया था। जब ये 16 वर्ष के थे तब इनके पिता गंगाधर तिलक का निधन हो गया। 1871 में तिलक की शादी ’तापीबाई’ से हुई जिसको बाद में ’सत्यभामाबाई’ के नाम से जाना गया।इन्होंने 1876 में स्नातक (BA गणित विषय में) की उपाधि प्राप्त की थी। 1879 में मुंबई के सरकारी लाॅ काॅलेज से उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की।
बाल गंगाधर तिलक जी के द्वारा शिक्षा को प्रोत्साहन देना
तिलक एक महान पत्रकार, शिक्षक, जननायक और स्वतंत्रता सेनानी थे। तिलक जी शुरू से ही लोगों के हित के बारे में सोचा करते थे। विशेषकर तिलक भारत की शिक्षा को लेकर चिंतित थे। तिलक पाश्चात्य शिक्षा पद्धति और भारतीय शिक्षा पद्धति को लेकर चलने में विश्वास रखते थे और इसी उद्देश्य से तिलक ने अगरकर, विष्णु कृष्ण चिपलुणकर तथा नामजोशी के साथ मिलकर 1 जनवरी 1880 में पूना में ’न्यू इंग्लिश स्कूल’ की स्थापना की। तिलकजी ने धार्मिक उत्सवों के माध्यम से जनता में राष्ट्रीयता की भावना का विकास किया और राजनीतिक शिक्षा प्रदान की।
1884 में महादेव गोविंद रानाडे से तिलक की मुलाकात होती है। 1884 में विलियम वेडरवर्न की सहायता से एक सभा हुई, जिसमें महादेव गोविंद, गोपाल कृष्ण गोखले एवं बाल गंगाधर तिलक ने मिलकर ’दक्खन एजुकेशन सोसायटी’ की स्थापना की। ’दक्खन एजुकेशन सोसाइटी’ के द्वारा दो काॅलेज चलाये गये – एक काॅलेज पूना में ’फर्ग्युसन काॅलेज’ (शिलान्यास बम्बई के राज्यपाल जेम्स फर्ग्युसन) था, जिसकी स्थापना 1885 में हुई। दूसरा काॅलेज ’सांगली’ में ’विलिग्डन काॅलेज’ था जिसकी स्थापना भी 1885 में हुई थी। 1885 में गोपाल कृष्ण गोखले भी इस सोसायटी के सदस्य बन गये और ये फर्ग्युसन काॅलेज में अध्यापन करने लगे। ’फर्ग्युसन काॅलेज’ के माध्यम से बाल गंगाधर तिलक व गोपाल कृष्ण गोखले के साथ जुङे गये। लेकिन यहाँ पर रानाडे के प्रभाव से गोखले बङे प्रभावित हुए, और धीरे-धीरे गोखले की विचारधारा तिलक से अलग होती जाती है तथा दोनों के बीच वैचारिक मतभेद होना प्रारम्भ हो जाता है।
बाल गंगाधर तिलक के समाचार-पत्र
तिलक ने 1881 में ’प्रिंटिग प्रेस’ अपने गुरु चिपलुुणकर, आगरकर, नामजोशी की सहायता से खरीदा। एक सजग पत्रकार के रूप में नाते उन्होंने दो समाचार पत्र निकाले – 1881 में साप्ताहिक पत्रिका ’द मराठा’ (अंग्रेजी भाषा में), दैनिक पत्रिका ’केसरी’ (मराठी भाषा में) नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किये। इनके माध्यम से उन्होंने अपने विचार को लोगों तक पहुँचकर उनमें जागृति उत्पन्न कीं।
बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश
1889 में तिलक भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए, इसी समय गोपाल कृष्ण गोखले भी इस अधिवेशन में शामिल हुए थे। दोनों के बीच मतभेद बढ़ते गए जिस कारण 1890 ई. में तिलक ने ’दक्कन एजुकेशन सोसायटी से इस्तीफा दे दिया और पूर्णतया सक्रिय राजनीति में पदार्पण किया।
’सम्मति आयु अधिनियम’ –
1891 में वी. एम. मालाबारी के प्रयासों से ब्रिटिश सरकार ने एक ’सम्मति आयु अधिनियम’ पारित किया, जिसमें लङकियों की विवाह की आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई थी। इस बदलाव का विरोध तिलक ने किया था और गोपाल कृष्ण गोखले ने इसका समर्थन किया था। तिलक सोचते थे कि सरकार को व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
बाल गंगाधर तिलक (lokmanya Tilak) द्वारा मनाये गये उत्सव
इस तिलक ने संस्कृति के प्रति आत्मगौरव की भावना जागृत करने के लिए 1893 में सार्वजनिक ’गणेश उत्सव’ मनाया। 1895 में इन्होंने छत्रपति शिवाजी का ’शिवाजी उत्सव’ मनाना शुरू किया। 1895 व 1897 में तिलक जी बम्बई विधानपरिषद् के सदस्य बने।
बाल गंगाधर तिलक(lokmanya Tilak) की कारावास यात्रा प्रारम्भ
1896-1897 पूना में भयंकर प्लेग फैला हुआ था। अंग्रेज सरकार पूना में बीमार लोेगों का ध्यान रखना छोङ करके एवं बीमार की रोकथाम करने की बजाय 1897 में महारानी विक्टोरिया की ’हीरक जयन्ती’ कार्यक्रम को मनाने की तैयारी में लगे हुए थे, क्योंकि 1897 में महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक को 60 वर्ष पूरे हो रहे थे। लोगों तो प्लेग बीमारी से मरे रहे थे लेकिन अंग्रेज सरकार बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रही थी। इधर बाल गंगाधर तिलक इस सारी घटनाओं को अपने समाचार-पत्रों में लिख रहे थे इसको लेकर एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने भगवद्गीता का उदाहरण दिया था।
1897 में पूना में प्लेग बीमार फैली थी और जांच के दौरान कुछ नेताओं के द्वारा महिलाओं के साथ अभद्रता की गयी। इसी घटना को तिलक ने अपने पत्र केसरी में लिखा। इस पत्र को पढ़कर ’चापेकर बंधु’ (दामोदर चापेकर व बालकृष्ण चापेकर) तिलक जी से इतना ज्यादा प्रभावित हुए थे कि उन्होंने 1897 में पूना के प्लेग कमेटी के कमीश्नर रैण्ड एवं लेफ्टिनेंट आर्यस्ट की हत्या कर दी। दामोदर चापेकर तथा बालकृष्ण चापेकर तिलक को अपना गुरु मानते थे। इसी घटना के लिए सरकार ने तिलक को दोषी ठहराया कि तिलक जी के समाचार-पत्रों ने इन लोगों को भङकाया है। इसी कारण तिलक को 18 महीने के लिए जेल में डाल दिया। लोगों ने तिलक की सजा का विरोध किया और लोगों ने इन्हें यहीं से ’लोकमान्य’ की संज्ञा दी। इसी से तिलक ’लोकमान्य गंगाधर तिलक’ के रूप में सामने आए।तमाम राजनीति नेताओं एवं लोगों के प्रयास के द्वारा 1898 में ही सरकार को तिलक को रिहा करना पङा। तिलक जी उग्रवादी नेता थे।
1905 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन के लिए बंग-भंग आंदोलन का इन्होंने विरोध किया और बहिष्कार आन्दोलन में भाग लिया। तिलक गरमपंथी दल के नेता थे। 1906 में विपिनचन्द्र पाल चाहते थे तिलक जी को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अध्यक्ष बनाया जाए, लेकिन गोखले यह नहीं चाहते थे कि तिलक को अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन बाद में दादाभाई नौरोजी को अध्यक्ष बना दिया गया था। लेकिन यहाँ उग्रवादी नेता दादाभाई नौरोजी से अपने चार मांगों को मनमाने में सफल हुए थे। दादाभाई नौरोजी ने कांग्रेस सेे चार प्रस्ताव पारित किये थे – स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वराज्य। 1906 में स्वदेशी आन्दोलन में तिलक ने स्वदेशी अपनाओ, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो, सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करो इसका सन्देश उन्होंने लोगों को दिया था।
तिलक जी (Balagangadhara Tilak) का कांग्रेस से अलग होना
धीरे-धीरे नरमपंथियों तथा गरमपंथियों के बीच मतभेद बढ़ते चले गए। तिलक कांग्रेस के गरमदल के नेता थे। वे स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अनुनय-विनय की नीति के स्थान पर संघर्ष का मार्ग अपनाने के समर्थक थे। तिलकजी ने स्वराज्य प्राप्ति पर बल दिया। 1907 में कांग्रेस नरम दल और गरम दल में विभाजित हो गयी। गरम दल में लोकमान्य तिलक के साथ लाला लाजपय राय और विपिनचन्द्र पाल शामिल थे, इन तीनों को ’लाल-बाल-पाल’ के नाम से जाना जाता है। 1907 में सूरत के अधिवेशन में फूट पङ गई और तिलकजी को कांग्रेस से अलग होना पङा। तिलकजी कांग्रेस के अध्यक्ष कभी नहीं रहे। उन्हें लोग भारत का ’बेताज बादशाह’ कहते थे। तिलकजी कांग्रेस के बाहर रहकर राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान देते रहे।
तिलक को पुनः कारावास की सजा
कांग्रेस की फूट का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश सरकार ने गरमपंथियों का दमन करना शुरू कर दिया। 1908 में ब्रिटिश सरकार ने राजद्रोह के अपराध में तिलक जी को 1908 से 1914 तक 6 वर्ष के लिए माण्डले (बर्मा) जेल में डाल दिया। जनता ने इसके विरोध में जुलूस निकाला। तिलक ने कहा, ’’शायद ईश्वर को यही मंजूर था कि मेरे स्वतन्त्र रहने की बजाय कष्टों के द्वारा ही मेरे जीवन के उद्देश्य की पूर्ति हो।’’ बर्मा जेल में रहते हुए तिलक ने 400 पन्नों की किताब ’गीता रहस्य’ तथा ’आर्कटिक होम ऑफ़ द आर्यन्स’ नामक पुस्तकें लिखीं। तिलक को 1914 में जेल से रिहा कर दिया गया। 1916 में तिलक के प्रयासों से ही कांग्रेस व मुस्लिम लीग के मध्य लखनऊ समझौता हुआ।
होमरूल आन्दोलन
28 अप्रैल 1916 में स्वशासन की प्राप्ति के लिए तिलक तथा एनीबेसेन्ट ’होमरूल आन्दोलन’ चलाया। एक ही वर्ष में यह आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। तिलक ने असहयोग आन्दोलन का भी समर्थन किया। ’इण्डिया अनरेस्ट’ के लेखक वेलेन्टाइन चिरोल द्वारा तिलक को ’भारतीय अशान्ति का जनक’ बताने पर तिलक ने चिरोल के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा चलाया। तिलक ने असहयोग आन्दोलन का भी समर्थन किया। 1 अगस्त 1920 में एक तरफ गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन चलाने की घोषणा की। दूसरी तरफ 1 अगस्त 1920 को मुंबई में लोकमान्य गंगाधर तिलक का निधन हो गया। इनकी मृत्यु के बाद इनके शव को महात्मा गाँधी, डाॅ. किचलू, शौकत अली जैसा नेताओं ने इनको कंधा दिया था।
बाल गंगाधर तिलक को दी गई उपाधियां –
- महात्मा गाँधी जी ने तिलक के विषय में कहा था – तिलक ’’आधुनिक भारत के निर्माता’’ है।
- जवाहर नेहरु ने कहा था – तिलक ’’भारतीय क्रान्ति के अग्रदूत’’ है।
- मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था – तिलक ’’चतुर और व्यावहारिक राजनीतिज्ञ’’ है।
हिंदी भाषा को ’राष्ट्रभाषा’ का दर्जा देने की बात भी सर्वप्रथम तिलक ने ही की थी।
बाल गंगाधर तिलक की कृतियाँ |
द ओरियन |
द आर्कटिक होम ऑफ द वेदाज |
वैदिक क्रोनोलाॅजी एण्ड वेदांग ज्योतिष |
श्रीमद्भागवद्गीता रहस्य (कर्मयोग शास्त्र) |
बाल गंगाधर तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार
तिलक ने राजनीति क्षेत्र में स्वराज्य की मांग की थी।
स्वराज्य का अर्थ – ’स्वराज्य’ का शाब्दिक अर्थ है अपना राज्य। इससे तिलक का जो अभिप्राय था उसे उसने अपने भाषण में स्पष्ट करते हुए कहा कि ’’स्वराज्य का अर्थ सारा नियंत्रण अपने हाथों में लेना है। मैं अपने घर की कुंजी अपने हाथ में रखना चाहता हूँ। हमारा लक्ष्य स्वराज्य है। हम प्रशासन करने वाले समूचे शासन तंत्र पर अधिकार करना चाहते हैं।’’
स्वराज्य प्राप्ति के साधन –
तिलक के अनुसार स्वराज्य प्राप्ति के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –
1. राष्ट्रीय शिक्षा – तिलक राष्ट्र की उन्नति और अभ्युत्थान के लिए पहला महत्त्वपूर्ण साधन शिक्षा को मानते थे। राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा वे भारतीयों में स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के भाव जागृत करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा देने, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा तकनीकी और धार्मिक शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया।
2. स्वदेशी – स्वदेशी से उनका अभिप्राय था स्वदेश में बनी चीजों का ही प्रयोग किया जाए तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए। इससे भारत में लघु और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा। भारतीय जनता की बेरोजगारी की समस्या का समाधान होगा और भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना का विकास होगा।
3. बहिष्कार – तिलक का बहिष्कार आन्दोलन स्वदेशी आन्दोलन का पूरक था। वे इसे ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीयों के रोष की अभिव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम मानते थे। बहिष्कार से तिलक का अभिप्राय केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार न था अपितु सार्वजनिक संस्थाओं, अदालतों एवं प्रशासनिक कार्यालयों आदि सभी के बहिष्कार से था।
4. निष्क्रिय प्रतिरोध – तिलक का मानना था कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के सहयोग और सहमति से ही भारत पर शासन कर रही है। यदि हम सरकार को यह सहयोग देना बन्द कर दें, तो वह क्षण मात्र के लिए भी कार्य नहीं कर सकती है। इस प्रकार सरकार का प्रतिरोध करके और उसके कानूनों को स्वीकार नहीं करके बिना शस्त्र विद्रोह के अर्थात् निष्क्रिय प्रतिरोध के द्वारा स्वराज्य को प्राप्त किया जा सकता है।
तिलक के राष्ट्रवाद के विचार
तिलक का राष्ट्रवाद अंशतया पुनरुत्थानवादी और पुनर्निर्माणवादी था। उन्होंने वेदों और गीता से आध्यात्मिक शक्ति एवं राष्ट्रीय उत्साह ग्रहण करने का सन्देश दिया और बताया कि भारत को प्राचीन परम्पराओं के आधार पर ही आज के भारत के लिए स्वस्थ राष्ट्रवाद की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।’ तिलक के राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
1. स्वस्थ एवं सजीव परम्पराओं पर आधारित राष्ट्रवाद –
तिलक के राष्ट्रवाद से आध्यात्मिक शक्ति और नैतिक उत्साह पैदा होता है। तिलक का राष्ट्रवाद राष्ट्र का पुनर्निर्माण चाहता है। पुनर्निर्माण के लिए वे भारत की प्राचीन संस्कृति की स्वस्थ और सजीव परम्पराओं को आधार बनाना चाहते थे। तिलक कभी भी पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण के पक्ष में नहीं थे।
2. उत्सवों की सामूहिक भावना पर आधारित राष्ट्रवाद –
तिलक का राष्ट्रवाद उत्सवों की सामूहिक भावना पर आधारित है। तिलक का मत था कि उत्सव लोगों में उत्साह पैदा करते हैं। ये लोगों को एकत्रित और संगठित करते हैं। उत्सवों से लोगों में बौद्धिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न होती है। इस सम्बन्ध में तिलक ने लिखा है कि ’’मानव प्रकृति ही ऐसी है कि वह बिना उत्सवों के नहीं रह सकती है। उत्सवप्रिय होना मानव का स्वभाव है।’’ शिवाजी उत्सव और गणपति उत्सवों के माध्यम से तिलक ने लोगों को संगठित करके राष्ट्रवाद की मुख्य धारा में जोङने का प्रयास किया।
3. प्रतीकीकरण पर आधारित राष्ट्रवाद –
तिलक ने अपने राष्ट्रवादी विचारों में प्रतीकों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है। तिलक के मतानुसार प्रतीकों का मानव भावनाओं पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पङता है। अतः तिलक ने भारतीयों में राष्ट्रीय भावनाओं को जाग्रत करने और उन्हें राष्ट्रीयता के झंडे के नीचे संगठित करने के लिए प्रतीकों के रूप में ’गणपति और शिवाजी’ के नामों का प्रयोग किया। तिलक एक ओर तो शिवाजी के नाम पर राष्ट्रीय शक्ति और राजनीतिक चेतना पैदा करने का प्रयास करते तो दूसरी ओर वे लोगों को राष्ट्र की मुक्ति के संघर्ष में बलिदान के लिए भी तैयार करते थे।
4. राष्ट्रीय एकता पर बल –
तिलक ने ब्रिटिश शासन के अनेक राष्ट्रों या दो राष्ट्रों के सिद्धान्तों तथा उनकी फूट डालकर शासन करने की नीति का मुकाबला करने के लिए अपने राष्ट्रवादी चिन्तन का समयानुसार संशोधन किया और राष्ट्रीय एकता के सिद्धान्त पर बल दिया। यद्यपि तिलक ने अपने राष्ट्रवादी चिन्तन का प्रारम्भ हिन्दू पुनरुत्थान से किया और ’हिन्दू राष्ट्र’ के विचार को भी प्रस्तुत किया किन्तु शीघ्र ही उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को आधार बनाया और समस्त भारतीयों के लिए राजस्व की माँग की। उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध समस्त भारतीयों के सामान्य आर्थिक हितों की एकता पर बल दिया और उद्देश्य से स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का संचालन किया। तिलक ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने पर बल दिया। तिलक ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राजनीतिक चेतना का प्रसार किया और जनशक्ति को संगठित करने का प्रयास किया।
5. उग्र राष्ट्रवाद –
तिलक ने जिस राष्ट्रवाद का प्रतिपादन किया वह अपने उद्देश्यों और साधन की दृष्टि से उग्रवादी था जिसे प्रायः गर्मपंथी या अमितवादी राष्ट्रवाद भी कहा जाता है। तिलक प्रारम्भ में उदारवादी थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण उन्होंने उग्रवादी विचारधारा को अपनाया। तिलक के राष्ट्रवाद को उग्रवादी स्वरूप प्रदान करने वाले अनेक कारक थे जैसे- (1) अकाल, प्लेग जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के समय ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा अपनाई गई क्रूर और जनविरोधी नीति, (2) लाॅर्ड कर्जन की साम्राज्यवादी नीति और अहंकार तथा उसके द्वारा बंगाल का विभाजन (3) उदारवादी नेतृत्व का असफल होना आदि।
इस प्रकार तिलक के अनुसार भारत का राजनीतिक उद्धार दृढ़ निश्चय द्वारा ही संभव है, न कि विनम्रता द्वारा, अतः उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति के लिए स्वदेशी, बहिष्कार, निष्क्रिय प्रतिरोध और राष्ट्रीय शिक्षा जैसे उग्रवादी साधनों को अपनाना आवश्यक माना।
तिलक के सामाजिक विचार
तिलक अपने काल में भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों से असंतुष्ट थे और उनमें अनावश्यक परिवर्तन चाहते थे। तिलक ने कहा कि ’’न तो हम देश के वर्तमान प्रशासन से ही सन्तुष्ट हैं और न ही अपनी सामाजिक दशा से ही हम दोनों में सुधार की आकांक्षा रखते हैं।’’ तिलक राजनीति की तरह ही सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में स्वावलम्बन और स्वदेशी के समर्थक थे।
समाज सुधार विषयक तिलक का दृष्टिकोण –
समाज सुधारों के प्रति उनके दृष्टिकोण के निम्नलिखित अनिवार्य पक्ष थे –
1. राजनीतिक स्वाधीनता सामाजिक सुधारों की पूर्व शर्त – तिलक सामाजिक सुधारों और अन्य सुधारों से पूर्व राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना चाहते थे। वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करने में लगा देना चाहते थे। पी. के. चड्ढा के अनुसार ’’तिलक विदेशी सत्ता को सभी बुराइयों के लिए जिम्मेदार ठहराते थे। उनका विश्वास था कि स्वराज्य प्राप्त हो जाने से सामाजिक समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी।’’
2. समाज सुधार कार्य में ब्रिटिश शासन के हस्तक्षेप का विरोध – तिलक सामाजिक जीवन में ब्रिटिश शासन और विदेशी नौकरशाही के हस्तक्षेप के विरोधी थे। उनका कहना था कि यदि ब्रिटिश शासन और नौकरशाही को सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने दिया गया तो इससे ब्रिटिश शासन की शक्ति का प्रसार होगा जो कि भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति की दृष्टि उसे उचित नहीं है।
3. पुनः अभ्युदयवादी सामाजिक विचार – तिलक राष्ट्रवादी विचारक थे और राष्ट्रवादी विचारक होने के नाते वे भारत का वैचारिक पुनर्निर्माण पाश्चात्य विचारधारा पर आधारित नहीं करना चाहते थे। उदाहरण के लिए तिलक का विचार था कि लङकियों को शिक्षा तो अवश्य दी जानी चाहिए किन्तु वे उन्हें पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगने के विरुद्ध थे।
4. जनजागृति पर आधारित शनैः-शनैः सामाजिक सुधारों का दर्शन – तिलक का सामाजिक दर्शन तथा उसका सामाजिक सुधार का आधार शासक वर्ग की इच्छा या कानून नहीं होकर ’जन-जागृति’ या जनसहमति है। उनका मत है कि समाज सुधार के लिए पहले सामाजिक वातावरण तैयार किया जाना आवश्यक है। इसके लिए ज्ञान के प्रसार द्वारा सामाजिक चेतना पैदा करनी चाहिए।
5. सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को पृथक्-पृथक् करना – तिलक का मानना था कि यदि सामाजिक मुद्दों को राजनीतिक मुद्दों अर्थात् समाज सुधारों को राजनीतिक आन्दोलन के साथ जोङ दिया जाए, तो सामाजिक भेद राजनीतिक क्षेत्र में भेद उत्पन्न कर देंगे, जो अन्ततः राजनीतिक आन्दोलन को कमजोर बना देंगे।
6. सामाजिक क्षेत्र में राज्य के नियंत्रण के विरुद्ध – तिलक ने सामाजिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का विरोध किया और इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ’स्वीकृति आयु विधेयक’ का भी विरोध किया। वे सामाजिक सुधारों को उचित सामाजिक शिक्षण के माध्यम से क्रियान्वित करना चाहते थे।
7. ईसाइयत के प्रसार का विरोध – तिलक ईसाई लोगों द्वारा सामाजिक कार्यों की आङ में किए जाने वाले धर्म परिवर्तन के कार्यों के विरोधी थे। इसी सन्दर्भ में 1889 में उन्होंने अमेरिकी वित्तीय सहायता से खोले गए विधवाश्रम का विरोध किया। उनकी दृष्टि में इस प्रकार का आश्रम अन्ततोगत्वा धर्म परिवर्तन के केन्द्र का कार्य करेगा। इसलिए वे यह चाहते थे कि मिशनरी संस्थाएँ अपने आपको लौकिक विषयों की शिक्षा देने तक सीमित रखें और हिन्दू महिलाओं को प्रलोभन द्वारा ईसाई बनाने का प्रयत्न नहीं करें।
8. तिलक की समाज सुधार की योजना – तिलक की समाज सुधारों की योजना को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है –
- तिलक के मतानुसार सर्वाधिक वास्तविक और व्यापक सुधार, जनता में पुनर्जागरण की भावना के द्वारा लाए जा सकते हैं, किसी विदेशी सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के माध्यम से नहीं।
- तिलक के मत में सामाजिक सुधारों का सूत्रपात जनता में अपने गौरवमय अतीत के प्रति आस्था को पुनः उत्पन्न किए जाने के माध्यम से ही हो सकता है।
- भारत में सामाजिक विकृतियों का प्रमुख कारण रूढ़िवादिता और सन्तुलित दृष्टिकोण का अभाव है। अतः प्राचीन की प्रेरणा और वर्तमान की आवश्यकताओं की अनुभूति के मध्य समन्वय तिलक के सुधारों का सार था।
9. तिलक द्वारा प्रस्तावित सामाजिक सुधार के प्रस्ताव – तिलक ने तत्कालीन हिन्दू समाज में सुधार हेतु अनेक प्रस्ताव प्रस्तुत किए जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं –
- लङकियों का विवाह 14 वर्ष की आयु से पूर्व नहीं किया जाए।
- लङकों का विवाह 20 वर्ष से पूर्व नहीं किया जाए।
- कोई भी व्यक्ति 40 वर्ष की आयु के पश्चात् विवाह नहीं करे।
- यदि कोई पुरुष पुनः विवाह करे, तो वह विधवा से ही विवाह करे।
- दहेज प्रथा बन्द हो, अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए।
- विधवाओं को कुरूप नहीं किया जाए।
- जनता में शिक्षा का अधिकतम प्रसार हो।
बाल गंगाधर तिलक की स्वदेशी विषयक धारणाएँ
स्वदेशी का अर्थ था भारतीयों को विदेशी वस्तुओं के स्थान पर भारतीय वस्तुओं को अपनाने के लिए प्रेरित करना। तिलक स्वदेशी की भावना द्वारा एक ओर भारतीय उद्योगों तथा श्रम की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना चाहते थे तथा दूसरी ओर जनता में राष्ट्रीय चेतना और स्वाभिमान का विस्तार भी करना चाहते थे। इस प्रकार तिलक के
स्वदेशी आन्दोलन के तीन प्रमुख पक्ष हैं-
- आर्थिक पक्ष
- नैतिक पक्ष
- व्यावहारिक पक्ष।
(क) आर्थिक पक्ष –
आर्थिक पक्ष के अन्तर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण पर जोर दिया गया है। 1897 में तिलक ने भारत की गिरती हुई आर्थिक दशा पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि भारत प्रारम्भ में न केवल उपभोक्ता वस्तुओं के सम्बन्ध में आत्मनिर्भर था बल्कि वह उनका निर्यात भी करता था, लेकिन आज वह अनाज तक आयात कर रहा है। इसका प्रमुख कारण है – अंग्रेजों की आर्थिक नीति। अंग्रेजों की नीतियों के कारण भारत में औद्योगिक विकास की प्रक्रिया प्रायः ठप हो गई। भारतीय बाजार में इंग्लैंड के उद्योगों का निर्मित माल छा गया और भारत के कुटीर उद्योग समाप्त हो गए। उनका मत था कि यदि ब्रिटिश सरकार भारत में भी औद्योगीकरण को प्रोत्साहन देती तो लघु और कुटीर उद्योगों के समाप्त हो जाने के इतने दुष्परिणाम नहीं होते, क्योंकि देती तो लघु और कुटीर उद्योगों के समाप्त हो जाने के इतने दुष्परिणाम नहीं होते, क्योंकि भारतीय लोगों को रोजगार के वैकल्पिक अवसर मिल जाते और भारत में ही मशीनीकृत उद्योगों के स्थापित हो जाने से भारत के आर्थिक संसाधन ब्रिटेन की ओर नहीं बहते।
स्वदेशी आंदोलन के उद्देश्य – तिलक के स्वदेशी आंदोलन के निम्न उद्देश्य थे –
- तिलक स्वदेशी के माध्यम से ब्रिटिश शासन के आर्थिक आधार पर प्रहार करना चाहते थे।
- भारतीय उद्योगों के विकास का एक सुदृढ़ आधार प्रदान करना चाहते थे।
- भारत में औद्योगीकरण को गति प्रदान करने हेतु लघु एवं कुटीर उद्योग का विकास करना चाहते थे।
तिलक के स्वदेशी आंदोलन का स्वरूप – तिलक के स्वदेशी आंदोलन के आर्थिक स्वरूप को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है –
(1) स्वदेशी के विचार में तिलक का यह आग्रह निहित नहीं था कि भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन और परम्परागत स्थिति में ही लौट जाए। इसके लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर बल दिया। इससे तीन स्थितियाँ उत्पन्न होंगी-
(अ) भारतीय जनता में विद्यमान बेरोजगारी की स्थिति का समाधान होगा।
(ब) विदेशी वस्तुओं के स्थान पर स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने से भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना का विकास होगा।
(स) इससे देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त होगा।
(2) तिलक की मान्यता थी कि स्वदेशी कौशल और पूँजी के आधार पर किया गया औद्योगीकरण ही देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता का माध्यम बन सकता था।
(ख) नैतिक पक्ष –
नैतिक पक्ष के अन्तर्गत तिलक की मान्यता थी कि स्वदेशी को अपनाने से भारतीयों में स्वाभिमान का भाव विकसित होगा और जनता में आत्मनिर्भरता आएगी। ये दोनों तत्त्व मिलकर राष्ट्रीय भावना का विकास करेंगे जिससे पुनर्जागरण तथा पुनर्निर्माण के आन्दोलन का प्रसार होगा।
(ग) व्यावहारिक पक्ष –
तिलक के स्वदेशी के प्रमुख व्यावहारिक बिन्दु इस प्रकार थे –
- ’’तिलक स्वयं अपने हाथ से काते हुए सूत से ही अपने ही घर में स्वदेशी करघे से बने हुए वस्त्रों का प्रयोग करते थे।
- उन्होंने ’स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा’ के मुख्यांग के रूप में सहकारी भंडार खोले।
- तिलक ने ’स्वदेशी के साथ बहिष्कार का प्रयोग’ करके स्वदेशी के आंदोलन को ’जन आंदोलन’ का रूप दिया। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को आत्मविश्वास, आत्मसहायता और आत्म सम्मान का आन्दोलन कहा था।
- उन्होंने ’गणपति उत्सव’ को विशाल आधार पर मनाते हुए इसे स्वदेशी आंदोलन का प्रमुख माध्यम बनाया।
- तिलक ने कहा कि यदि हम स्वदेशी का प्रयोग और विदेशी का बहिष्कार की नीति अपना लेते हैं, तो ’देश के उद्योगों को संरक्षण की स्थिति’ प्राप्त हो जाएगी और उनका विकास संभव होगा।
बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा सम्बन्धी विचार
बाल गंगाधर तिलक के अनुसार शिक्षा वह माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निर्माण होता है और उनमें स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के भाव जागृत होते हैं। तिलक राष्ट्रीय शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था कि राष्ट्रीय शिक्षा से ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकेगा, देशवासी मतमतान्तरों से ऊपर उठकर संगठित हो सकेंगे।
तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा सम्बन्धी विचार – तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा के विचार के चार प्रमुख पक्ष थे, जो निम्नलिखित हैं-
- शिक्षा जनसामान्य के लिए सुलभ हो और इसके लिए सस्ती दर पर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए व्यापक प्रयास किए जाए।
- शिक्षा भारतीयों द्वारा तथा भारतीय उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए दी जाए।
- शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा उसके चरित्र निर्माण का सुदृढ़ आधार बने।
- शिक्षा के द्वारा ऐसे युवकों को प्रशिक्षित किया जाए, जो राष्ट्रीय जागृति और आन्दोलन के लिए जनता को प्रेरित और संगठित कर सकें।
राष्ट्रीय शिक्षा के सम्बन्ध में तिलक का दृष्टिकोण भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रकार की शिक्षा प्रणालियों के समन्वय का था। उनकी मान्यता थी कि भारतीय शिक्षा में भारतीय संस्कृति और भारतीय चिन्तन-परम्परा के मूल तत्त्वों का समावेश होना चाहिए ताकि भारतीयों में आत्मविश्वास पैदा हो सके, वे पाश्चात्य शिक्षा व ज्ञान के अन्धानुकरण के विरोधी थे।
राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली तथा पाठ्यक्रम – तिलक की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है –
1. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो – तिलक के अनुसार अंग्रेजी या अन्य भाषाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुण्ठित कर सकते हैं। वे अंग्रेजी को एक विषय के रूप में स्वीकार करते थे लेकिन इसकी अनिवार्यता के पक्षधर नहीं थे।
2. एक राष्ट्रभाषा तथा लिपि की एकरूपता पर बल – उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने और उसे अंग्रेजी के समान सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने पर बल दिया। इसी तरह उन्होंने देवनागरी लिपि को सभी भारतीय भाषाओं की एक समान लिपि के रूप में स्वीकार किए जाने को उचित माना।
3. तकनीकी शिक्षा पर बल – तिलक ने शिक्षा के पाठ्यक्रम में तकनीकी शिक्षा को शामिल किए जाने पर बल दिया। उनके ही शब्दों में ’’तकनीकी शिक्षा के विस्तार के द्वारा ही देश में औद्योगीकरण की संभावनाएँ विकसित की जा सकती हैं और आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी वर्चस्व को समाप्त किया जा सकता है।’’
4. धार्मिक शिक्षा पर बल – तिलक ने धार्मिक शिक्षा को भी शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने का पक्ष लिया। इसके द्वारा वे भारतीयों में नैतिक भावना और संस्कृति के प्रति प्रेम का विकास करना चाहते थे जिससे उनका चरित्र निर्माण हो सके।
5. राजनीतिक शिक्षा – तिलक के शिक्षा के पाठ्यक्रम में राजनीतिक शिक्षा एक अनिवार्य अंग थी। इसके माध्यम से वे छात्रों की राजनीतिक चेतना का विकास करना चाहते थे।
तिलक के बहिष्कार सम्बन्धी विचार
बहिष्कार का साधन मूलतः निष्क्रिय प्रतिरोध के विचार और साधन का एक विशिष्ट प्रकार था। बहिष्कार के आन्दोलनकारी रूप में तिलक की गहरी आस्था थी।
तिलक के बहिष्कार का आशय केवल ’विदेशी माल का बहिष्कार’ नहीं था, वे तो इसे ब्रिटिश शासन के बहिष्कार के रूप में अपनाना चाहते थे जिसमें शासन की नौकरियों, उपलब्धियों, सार्वजनिक समारोहों और अदालतों का बहिष्कार तथा लगान और अन्य कर अदा नहीं करने की बात सम्मिलित थी। यह तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग की रूपरेखा थी। इस प्रकार बहिष्कार उनका एक राजनीतिक अस्त्र था।
तिलक बहिष्कार के आन्दोलन का विस्तार करके ब्रिटिश प्रशासन को भारत में पूर्णतया ठप करना चाहते थे। उन्हीं के शब्दों में, ’’तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम उस शक्ति के स्वयं एक प्रभावशाली घटक हो जिसके द्वारा भारत में प्रशासन चलता है। तुम स्वयं ऐसा तत्व हो जिसके द्वारा प्रशासनिक संयंत्र को सुचारु रूप से चलाया जाता है। यद्यपि तुम दलित और उपेक्षित हो, किन्तु यदि तुम्हें अपनी शक्ति का आभास हो जाए, तो तुम प्रशासन का चलना असंभव बना सकते हो। तुम्हीं डाक और तार की व्यवस्था करते हो, तुम्हीं राजस्व करते हो, तुम्हीं राजस्व एकत्रित करते हो, वास्तव में चाहे अधीनस्थ रूप में ही सही, तुम्हीं प्रशासन की समस्त गतिविधियों को सम्पन्न करते हो। तुम्हें यह विचार करता चाहिए कि तुम इस प्रकार प्रशासनिक गतिविधियों में घसीटे जाने की अपेक्षा, अपनी शक्ति का प्रयोग अपने राष्ट्र के लिए ही करो।’’
वे कहते थे कि ’’हमारे पास बहिष्कार के रूप में एक अधिक प्रभावशाली अस्त्र है। मुट्ठीभर अंग्रेजों द्वारा चलाया जाने वाला ब्रिटिश प्रशासन, हमारी सहायता से ही चलाया जाता है। इससे सहयोग करके हम अपने दमन के प्रति स्वेच्छापूर्ण समर्पण कर रहे हैं।’’
इस प्रकार स्पष्ट है कि बहिष्कार तिलक का अंग्रेजों के विरुद्ध एक प्रभावी किन्तु अहिंसक, आर्थिक और राजनीतिक हथियार था।
बाल गंगाधर तिलक के धार्मिक विचार
वेदों, शास्त्रों, गीता, उपनिषदों तथा पुराणों का गहन अध्ययन करने वाले तिलक एक प्रकाण्ड पण्डित थे। स्वराज्य सम्बन्धी विचारों के साथ ही साथ तिलक के धार्मिक पुनरुत्थानवादी विचारों का भी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पङा।
उनके इन विचारों का विश्लेषण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है –
1. धर्म का व्यापक अर्थ – तिलक ने धर्म को अति व्यापक अर्थ में लिया। वे धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक थे। कुछ विद्वानों ने उन्हें मुस्लिम विरोधी बताया लेकिन उनके तर्क गलत साबित हुए। उन्होंने धर्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा। उन्होंने हिन्दुओं की साम्प्रदायिक एकता पर बल दिया तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न मतों को एकत्रित कर एक करने का प्रयास किया।
2. सार्वजनिक उत्सवों का महत्त्व – तिलक ने धार्मिक पुनरुत्थान तथा राष्ट्रवाद के विकास में सार्वजनिक उत्सवों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने गणपति उत्सव को पुनः प्रारम्भ किया। इसके साथ ही शिवाजी की उपासना का पंथ भी प्रारम्भ किया। डाॅ. अवस्थी-अवस्थी के अनुसार, ’’गणपति उत्सव के द्वारा उन्होंने एक धार्मिक उत्सव को उभारने और संगठित करने का कार्य किया। तिलक का कहना था कि उत्सव प्रतीक का कार्य करते हैं, उनसे राष्ट्रवाद की भावना का विकास होता है। उत्सवों का दोहरा महत्त्व है – एक ओर तो इनके माध्यम से एकता की भावना अभिव्यक्त होती है और दूसरी ओर उत्सवों में भाग लेने वाले व्यक्ति यह अनुभव करने लगते हैं कि उनके संगठन और उनकी एकता को किसी श्रेष्ठतर कार्य में लगाया जा सकता है। राष्ट्रीय उत्सव, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज आदि देशवासियों के संवेगों और भावों में तीव्रता लाते हैं तथा उनकी राष्ट्रवादी भावना को कमजोर नहीं होने देते। इसे राष्ट्रवाद का प्रतीकात्मक प्रदर्शन कहा जा सकता है।’’
3. धर्म मानव स्वतन्त्रता और समानता का पोषक – तिलक धर्म को मानव स्वतन्त्रता तथा समानता का पोषक मानते थे। उन्होंने सनातन धर्म को स्त्री तथा पुरुष के सम्बन्धों को आध्यात्मिक प्रगति की ओर अग्रसर करने वाला माना। वे कर्म सिद्धान्त को मानव की प्रगति का सूचक मानते थे। उनका यह कर्म सिद्धान्त सभी धर्मों की स्वतन्त्रता तथा समानता का द्योतक है। उनके अनुसार कर्म के अनुरूप चेतनामय जीवन मोक्ष देने वाला है।
4. धर्म सुधार के सम्बन्ध में तिलक के विचार – धर्म के सम्बन्ध में तिलक के विचार धार्मिक पुनरुत्थान की भावना को व्यक्त करते हैं। डाॅ. पुरुषोत्तम लाल नागर ने उनके विचारों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ’’उन्होंने सनातनी होते हुए भी अनेक धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया था। छुआछूत, विधवा विवाह आदि ऐसी कुरीतियाँ थीं, जिनको तिलक ने धार्मिक दृष्टि से असंगत पाया। वे हिन्दुओं में सामाजिक सुधार के कार्य के विरुद्ध नहीं थे, किन्तु वे समाज सुधारकों की नास्तिकता, अर्थ, धर्म के प्रति उदासीनता के विरोधी थे।
5. तिलक का गीता रहस्य सिद्धान्त – तिलक ने वेदों और गीता से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर भारत की प्राचीन स्वस्थ परम्पराओं के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापना करनी चाही। ’गीता रहस्य’ ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को त्याग, सेवा, कष्ट क्षमता की शिक्षा प्रदान की।
दोस्तो आज की पोस्ट में हमने ’लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ (Bal Gangadhar Tilak) के बारे में विस्तार से पढ़ा ,हम आशा करतें है कि आपने नई -नई जानकारियां इस आर्टिकल में पढ़ी होगी
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