आज की पोस्ट में वैदिक संस्कृति के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है तथा वैदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल के बारे में भी बताया गया है ।
वैदिक संस्कृति (Vaidik Sanskrti)
वैदिक संस्कृति: एक परिचय
💠 सैंधव सभ्यता के पतन के बाद लगभग 1500 ई.पू. में भारत में जिस सभ्यता उदय हुआ उसे वैदिक सभ्यता या आर्य सभ्यता कहा जाता है।
🔶 आर्य शब्द का अर्थ ’पवित्र वंश या जन्म वाला’ मनुष्य होता है।
💠 आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
🔶 आर्यों ने अपने श्रेष्ठ एवं अपने विरोधियों अनार्यो को दास तथा दस्यु कहा।
💠 प्रो. मैक्समूलर के अनुसार निम्न रेखाचित्र से मध्य एशिया से आर्यों के विभिन्न दिशाओं में हुए प्रवासन-मार्ग की जानकारी स्पष्ट होती है।
आर्यों का मूलस्थान
🔶 आर्यों के मूल स्थान संबंधी मतों में सप्तसैंधव (अविनाशचंद्र), तिब्बत (दयानंद सरस्वती), मध्यप्रदेश (राजबली पांडे), हंगरी (प्रो. जाइल्स), जर्मनी (प्रो. पेंका), आर्कटिक क्षेत्र (बी.जी. तिलक), यूरोप (फिलिपो सेसीटो,पी.गाइल्स एवं विलियम जोंस) तथा मध्य एशिया (मैक्समूलर) प्रमुख है।
💠 सर्वमान्य मत के अनुसार आर्यों का मूल-स्थान मध्य एशिया था।
🔶 ईरानी आर्यों के प्रथम ग्रंथ जेन्द अवेस्ता में भारतीय आर्यों के ऋग्वैदिक देवता इंद्र, वरुण एवं मित्र का उल्लेख है।
💠 उपर्युक्त समानता के आधार पर मैक्समूलर ईरानी एवं भारती आर्यों का एक ही मूल मानते है।
🔶 अतः मैक्समूलर का यह मानना है कि भारत एवं ईरानी के बीच स्थित मध्य एशिया क्षेत्र से निकलकर आर्यों की एक शाखा यूरोप, दूसरी ईरान एवं तीसरी भारत में आकर मिली।
वैदिक संस्कृति के सप्त सिंधु क्षेत्र
💠 ऋग्वेद से जिस भौगोलिक स्थिति का पता चलता है, वह है उत्तर-पश्चिम भारत।
🔶 उपुर्यक्त क्षेत्र के लिए ऋग्वेद में कई बार सप्तसिंधवः शब्द का उल्लेख मिलता है।
💠 सप्त सिंधु क्षेत्र से सिंधु एवं उसकी 7 सहायक नदियों सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम, सरस्वती एवं दृषद्वती का क्षेत्र प्रतिध्वनित होता है।
🔶 आरम्भिक आर्यों की सभ्यता सप्त सिंधु में ही विकसित हुई।
💠 ऋग्वेद के नदी सूक्त में 21 नदियों का उल्लेख मिलता है।
🔶 ऋग्वेद में सरस्वती एवं सिंधु को सर्वाधिक पवित्र माना गया है। विशिष्ट तथ्य- ऋग्वेद में गंगा का उल्लेख 1 बार एवं यमुना का उल्लेख 3 बार किया गया है।
💠 ’सिंधु’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग 100 बार किया गया है।
🔶 वर्तमान में सरस्वती नदी का कोई अस्तित्व नहीं है। यह राजस्थान के रेगिस्तान में सूख चुकी है।
💠 आरंभिक आर्यों के लिए गंगा एवं यमुना नदी का कोई विशेष महत्व नहीं था।
🔶 आरंभिक आर्य ’समुद्र’ से परिचित नहीं थे। इसका अर्थ वे बङी नदियों अथवा जल का विशाल भंडार से समझते थे।
💠 ऋग्वेद के अनुसार उत्तर में हिमालय पर्वत शृंखला थी, जिसकी एक चोटी मुंजावत थी।
🔶 मुंजावत चोटी पर सोम (आधुनिक भांग) नामक पौधा उगता था, जिससे तैयार नशीला पदार्थ वाजपेय यज्ञों की समाप्ति के उपरांत आर्यों द्वारा पिया जाता था। (सोमरस)
ऋग्वैदिक नदियाँ के वर्तमान नाम
सिंधु सिंधु
सरस्वती चितंग
वितस्ता झेलम
क्रभु कुर्रम
कुभा काबुल
पुरुषणी रावी
विपश व्यास
दृषद्वती घग्गर
सुवस्तु स्वात
अस्किनी चिनाब
शतुद्रि सतलज
सदानीरा गंडक
गोमल गोमती
💠 इस प्रकार ऋग्वैदिक भौगोलिक क्षेत्र में वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, संपूर्ण पाकिस्तान तथा दक्षिणी अफगानिस्तान शामिल है।
जनजातीय संघर्ष
🔶 ऋग्वेद में आर्यों की प्रमुख जनजातियों का उल्लेख पंचजनः (अणु, द्रह्यु, यदु, तुर्वसु एवं पुरु) के रूप में किया गया है।
💠 ऋग्वेद के अनुसार भरत कबीले के राजा दिवोदास ने अनार्यों के नरेश को परास्त किया था।
🔶 ऋग्वेद के 7 वें मंडल में इन जातियों के प्रसिद्ध दशराज्ञ युद्ध को वर्णन है जो पुरुषणी नदी के किनारे हुआ था। युद्ध भारतवंशी राजा सुदास एवं 10-राजाओं के एक संघ के बीच हुआ।
💠 सुदास के नेतृत्व वाले संघ को ऋषि वाल्मीकि एवं 10-राजाओं के संघ को ऋषि विश्वामित्र का समर्थन प्राप्त था। इस युद्ध में भरतकुल के राजा सुदास को विजय मिली।
🔶 राजा सुदास ने एक अन्य युद्ध में अनार्य-नरेशों के एक संघ को यमुना नदी के किनारे हराया।
💠 कुछ समय बाद दशराज्ञ युद्ध में पराजित जनजाति ’पुरु’ का ’भरतों’ के साथ समझौता हो गया तथा एक नये कुरु वंश की स्थापना हुई।
🔶 कुरु वंश के सम्पूर्ण उत्तर भारत में महान वैदिक सभ्यता के विकास की नींव डाली।
💠 भरत वंशी राजा भरत के नाम पर हमारे देश का नाम ’भारतवर्ष’ पङा।
वैदिक सभ्यता के कालखंड (Vedic Culture in Hindi)
🔶 आर्यों के विषय में सर्वमान्य मत यह है कि वे लगभग 1500 ई.पू. में भारत में आकर बसे।
💠 सभ्यता के विकास क्रम के अनुसार ’वैदिक सभ्यता’ को दो काल खंडों में बाँटा गया है-
1. ऋग्वैदिक काल- ई.पू. 1500-1000 का काल ऋग्वैदिक काल कहलता है। इस काल में ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद की रचना हुई।
2. उत्तर-वैदिक काल- ई.पू. 1000-600 का काल उत्तर वैदिक काल कहलाता है। इस काल में अथर्ववेद, ब्राह्मणों व आरण्यकों, उपनिषदों, महाकाव्यों एवं सूत्रों की रचना हुई।
वैदिक कालीन समाज (Vaidik Kal)
(अ) ऋग्वैदिक काल
🔶 ऋग्वैदिक काल चार वर्गों पुरोहित (ब्राह्मण), राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य (किसान, कारीगर, मजदूर) एवं शूद्र (दास तथा वे लोग जो आर्यों एवं दासों के संयोग से उत्पन्न हुए) में विभाजित था।
💠 सामाजिक विभाजन वर्ण के आधार पर न होकर व्यवसाय के आधार पर था।
🔶 ऋग्वेद के अनुसार एक ही परिवार के विभिन्न सदस्य विभिन्न व्यवसायों को अपना सकते थे तथा उन्हें व्यवसाय चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। एक वर्ग के लोग पेशे में परिवर्तन कर दूसरे वर्ग में शामिल हो सकते थे।
💠 परिवार ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन की इकाई थी। ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था।
🔶 परिवार का मुखिया कुलपति या कुलप्पा कहलाता था।
💠 ऋग्वैदिक समाज में पिता का स्वाभाविक उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र होता था।
🔶 समाज में आमतौर पर एक विवाह की पद्धति प्रचलित थी।
💠 ऋग्वैदिक समाज में महिलाओं का स्थान ऊँचा था। उन्हें पूरी स्वतंत्रता थी।
🔶 पर्दा प्रथा एवं सती प्रथा का प्रचलन इस काल में नही था।
💠 स्त्रियों को वेदों का अध्ययन करने एवं पति के साथ सार्वजनिक उत्सवों एवं सभाओं में हिस्सा लेने का अधिकार था।
🔶 इस काल की कुछ महिलाओं घोषा, अपाला, लोपमुद्रा एवं विश्ववरा आदि की गणना ऋषियों में की जाती थी।
💠 विधवा विवाह प्रचलन में थी; परन्तु बाल-विवाह का कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं होता।
🔶 स्त्रियों की स्थिति अच्छी होते हुए भी पैतृक संपत्ति की हकदार नहीं थी।
💠 दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराई इस काल में प्रचलन में थी।
🔶 अन्न, फल, सब्जी, दूध, दूध से तैयार पदार्थ आर्यों के प्रमुख भोजन थे।
💠 सुरा, मधु एवं सोमरस आर्यों के प्रचलित पेय पदार्थ थे।
प्रजापति (ब्रह्मा) के विभिन्न अंगों से निकली जातियाँ
🔶 ऋग्वेद के 10वें मण्डल की रचना 1000ई. पू. के आस-पास हुई, जो कि उत्तर-वैदिक काल के आरंभ का काल है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में उल्लिखित पुरुष सुक्त में वर्णित है कि आदि पुरुष प्रजापति (ब्रह्मा) के विभिन्न अंगों से निम्न चार वर्णों का जन्म हुआ-
ब्राह्मण- मुख से, क्षत्रिय- कंधे से
वैश्व- जाँघ से, शूद्र- पैर से।
(ब) उत्तर वैदिक काल
प्रचलित विवाह की प्रचलित पद्धतियाँ
💠 ब्रह्म विवाह- समाज के सामने व्यवस्थित विवाह।
🔶 प्रजापत्य विवाह- यह भी ब्रह्म समाज के समान ही था ; परन्तु अंतर सिर्फ इतना था कि इस प्रकार का विवाह करने के पश्चाात् कोई भी वानप्रस्थ अथवा संन्यास ग्रहण नहीं सकता था।
💠 आर्ष विवाह- इस प्रकार के विवाह में वर, वधु के अभिवावक को एक गाया एवं एक बैल भेंट में देता था।
🔶 दैव विवाह- यज्ञ के समय पुरोहित को भेंट की गई कन्या।
💠 गंधर्व विवाह- यह एक प्रकार का प्रेम-विवाह था, जिसका प्रचलन तो था; परन्तु कम था।
🔶 असुर विवाह- कन्या के अभिभावक को धन देकर किया गया विवाह (इससे कन्या की ब्रिक्री करने की प्रथा के प्रचलन में हाने का प्रमाण मिलता है।)
💠 राक्षस विवाह- कन्या का अपहरण कर किया गया विवाह।
🔶 पैशाच विवाह- यह जबरन किया गया बलात्कार था।
💠 उपुर्यक्त में से पहले चार विवाहों को धर्म सम्मत माना गया है।
नियोग प्रथा-
इस प्रथा के अन्तर्गत ऐसी विधवा, जिसके संतान न हो तो वह संतान की उत्पत्ति के लिए अपने मृतक पति के छोटे भाई अथवा बहन के पति के साथ संयोग अथवा विवाह कर सकती थी।
🔶 इस काल में समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में बँट गया।
💠 वर्ण का निर्धारण वंश के आधार पर होने लगा।
🔶 व्यापारी, रथ-निर्माता, लुहार, बढ़ई, चमार, कर्मकार एवं मल्लाह आदि कई उपजातियों का उल्लेख भी मिलता है।
💠 गौतम सूत्र में दिए गए प्रसंग से इस काल में छुआछूत का भी प्रचलन देखने को मिलता है।
🔶 प्राचीन भारतीय जीवन के चार महान पुरुषार्थाें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए चार-आश्रम व्यवस्था के आधार बनाया।
💠 महिलाओं की दशा खराब हो गई। उन्हें अब उपनयन संस्कार, वेद पढ़ने तथा सामाजिक समारोहों में हिस्सा लेने से वंचित कर दिया गया।
🔶 आर्य स्वयं को द्विज (दो बार जन्म लेने वाला-एक बार माता के पेट से एवं दूसरी बार उपनयन संस्कार के बाद) कहते थे।
💠 द्विज की श्रेणी में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्व आते थे, शूद्रों को इससे बाहर रखा गया था।
🔶 नारी शिक्षा पूर्ववत लोकप्रिय रही तथा इस युग में गार्गी, वाचनवी एवं मैत्रेयी जैसी विदुषी नारियों का उल्लेख मिलता है।
💠 इस काल में जीवन भर अविवाहित रहने वाली महिलाओं को अमाजु कहा जाता था।
वैदिक कालीन राजनीतिक संगठन
(अ) ऋग्वैदिक काल
🔶 राजनीतिक संगठन का मूल आधार परिवार था।
💠 परिवार का प्रधान गृहपति अथवा कुलपति (कुलप्पा) कहलाता था। समाज का संगठन कबीले के रूप में था। कबीले को जन कहा जाता था। ऋग्वेद में ’जन’ की चर्चा 275 बार की गई है।
🔶 एक जन के सारे सदस्यों को विशः कहा जाता था। ऋग्वेद में विशः शब्द का प्रयोग 170 बार हुआ है।
💠 ’विशः’ का प्रधान विशः पति या राजा कहा जाता था। युद्धों में जन को नेतृत्व राजा करता था।
🔶 राजनीतिक रूप से संगठित विशः को राष्ट्र कहा जाता था।
💠 प्रत्येक जन में अनेक टुकङियाँ होती थी जो ग्राम कहलाती थी।
🔶 ग्राम का प्रधान ग्रामणी कहलाता था।
💠 ऋग्वैदिक काल में पुरोेहित सबसे प्रधान पदाधिकारी था। वह राजा का मित्र, पथ-प्रदर्शक, दार्शनिक एवं सहायक होता था।
🔶 पुरोहितों के बाद सेनानी का पद आता था। वह सेनाध्यक्ष होता था।
💠 उपर्युक्त के अलावा ऋग्वेद में ग्रामणी, रथकार एवं कर्मकार जैसे अन्य कर्मचारियों का उल्लेख है। इन्हें सामूहिक रूप से रत्निन कहा जाता था। ग्रामणी गाँव का प्रशासन देखता था।
🔶 ऋग्वेद में कुछ गुप्तचरों अथवा समाचार-वाहकों का उल्लेख मिलता है जिन्हें स्पश करता जाता था।
अन्य जानकारी
💠 ऋग्वैदिक काल में प्रचलित लोकतांत्रिक संस्था ’समिति’ का अध्यक्ष ईशान कहलाता था।
लोकतांत्रिक संगठन
🔶 ऋग्वैदिक काल में कुल जन-संस्थाओं जैसे- विद्थ, सभा एवं समिति का उल्लेख किया गया है-
💠 विदथ- अति प्राचीन काल से चली आ रही आर्यों की संस्था, जो एक जन-सभा थी, संभावतः सभा एवं समिति का गठन इसी से हुआ।
🔶 सभा- सभा कुलीन, श्रेष्ठजनों की एक संस्था थी जिसका संबंध न्याय प्रशासन से था।
💠 समिति- यह संपूर्ण विशः की संस्था थी। राज्य की बागडोर मुख्य रूप से इसी के हाथों में थी। अतः इस संस्था को जनसाधारण की आवाज कहा गया है।
🔶 उपर्युक्त संस्थाएँ राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थी।
(ब) उत्तर वैदिक काल
💠 उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक संगठन कबायली न रहे एवं राज्यों के रूप संगठित होने लगे।
🔶 इस काल में गंधार, केकेय, मद, मतस्य, कुरु, पांचाल, काशी, कोशल, विदेह, अंग एवं मगध आदि राज्यों के उल्लेख मिलते है। इस युग में राजतंत्र का विकास एवं सशक्तिकरण हुआ।
💠 इस युग में राजाओं द्वारा उच्च ध्वनित उपाधियाँ धारण की गई।
🔶 इस युग में बहलीक, प्रतिपीय, परीक्षित एवं जनमेजय जैसे प्रतापी राजाओं के उल्लेख मिलते है।
💠 राजा का पद धीरे-धीरे वंशानुपात हो गया। उन पर से प्रभावशाली नियंत्रण समाप्त हो गया।
🔶 राजाओं के राज्याभिषेक के लिए विशेष प्रकार के यज्ञों राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय का महत्व बढ़ गया।
💠 सभा एवं समिति जैसी संस्थाओं का महत्त्व कम अवश्य हो गया; परन्तु ये संस्थाएँ अब भी राजा पर अंकुश रखती थी।
🔶 शतपथ ब्राह्मण में ’सभा एवं समिति’ को ’प्रजापति की जुङवाँ पुत्रियाँ’ की संज्ञा दी गई है।
💠 उत्तर वैदिक काल का प्रशासनिक स्वरूप (ढाँचा) निम्न प्रकार से था-
- सूत- रथ हाँकने वाला (सारथी),
- जीवग्राह- पुलिस अधिकारी,
- संग्रहित्रि- खजांची,
- अक्षवाय- पांसे के खेल में राजा का सहयोगी,
- व्रजापति- चारागाह का अधिकारी
- सेनानी- सेनापति
- भागदुधा- कर समाहर्ता
- ग्रामणी- ग्राम का मुखिया,
- स्थापित- मुख्य न्यायधीश
- पुरुष- दुर्गपाल,
- पालागल- राजा का मित्र
- सत्निन- उपर्युक्त सभी कर्मचारियों का सामूहिक नाम।
🔶 सभा नामक संस्था राजकीय न्यायालय का कार्य करती थी।
वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था
(अ) ऋग्वैदिक काल
💠 पशुपालन ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य पेशा था। साथ ही कृति एवं सीमित व्यापार भी प्रचलन में थे।
🔶 ऋग्वेद के 10462 में से मात्र 24 श्लोकों में ही कृषि का उल्लेख है।
💠 पशु ही संपत्ति मुख्य आधार माने जाते थे।
🔶 खेतों को जोतने के लिए हलों एवं इनमें 6,8 या 12 बैलों का प्रयोग किया जाता था।
💠 खाद्यान्नों को सामूहिक रूप से यव और धान्य कहा जाता था।
🔶 पशुओं में गाय का सर्वाधिक महत्व था। ऋग्वेद में गाय से संबंधित शब्दों का प्रयोग 174 बार हुआ है।
💠 गविष्टि, गवेषणा, गोषु, गव, गम्य आदि शब्द गायों के लिए होने वाले युद्धों के लिए प्रयुक्त होते थे।
🔶 ऋग्वेद में चावल का कोई उल्लेख नहीं मिलता। व्यापारी वर्ग को वणिक कहा जाता था।
💠 व्यापार मूलतः आंतरिक होता था। लेन-देन में वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रचलित थी (ऋग्वेद में एक ऐसा प्रसंग आया है जहाँ इंद्र की एक प्रतिमा की कीमत 10 गायें बताई गई है।)
🔶 बर्तन बनाना, बुढ़ईगिरी, धातुकर्म एवं चर्मकारी आदि व्यवसाय भी ऋग्वैदिक काल में प्रचलन में थे। ऋग्वैदिक आर्यों को टिन, सीसा, चाँदी, ताँबा, काँसा एवं स्वर्ण आदि धातुओं का ज्ञान था।
💠 ऋग्वैदिक काल में स्वर्ण को हिरण्य, काँसे को अस्म एवं ताँबे को अयस कहा गया है।
🔶 जिस्क उस काल में प्रचलित एक निश्चित वहन का स्वर्ण का टुकङा था, जिसे इतिहासकार मुद्रा नहीं मानते।
(ब) उत्तर-वैदिक काल
💠 उत्तर-वैदिक काल में कृषि, उद्योग-धंधे, व्यापार सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई।
🔶 इस युग में हलों को 24 बैलों द्वारा खींचे जाने का उल्लेख मिलता है।
💠 इस युग में कृषि में खाद का प्रयोग आरंभ हुआ।
🔶 इस काल में हल को सिरा एवं हलरेखा को सीता कहा जाता था।
💠 शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस काल में चावल तथा गेहूँ प्रमुख अनाज थे।
🔶 वैदिक ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त अनंत सागर शब्द से ज्ञात होता है कि उत्तर-वैदिक आर्य समुद्र से परिचित हो चुके थे। लोगों ने हाथी पालने का कार्य भी आरंभ कर दिया।
💠 इस युग में रंगसाज, जौहरी, नट, गायक, ज्यातिषी, नाई, वैद्य आदि पेशों का प्रादुर्भाव हुआ।
🔶 इस युग में सीसे का प्रयोग बटखरे के रूप में होने लगा।
💠 इस युग में चरखों एवं करघों का उपयोग व्यापक रूप से होने लगा।
🔶 इस काल में प्रयुक्त श्रेष्ठी, गण आदि शब्द व्यावसायिक संघों की स्थापना के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ब्याज पर ऋण देने की प्रथा अब भलीभाँति प्रचलति हो चुकी थी।
💠 इस युग में शतमान (स्वर्ण), कृष्णत एवं पाद (ताँबा) जैसे सिक्के भी चलन में आ गए थे।
🔶 इस काल में कुछ संपन्न नगरों इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर एवं वाराणसी आदि का विकास हुआ।
💠 बलि का उपहार था, जो ऋग्वैदिक काल में स्वेच्छा से लोग राजा को देते थे ; परन्तु इसने अब नियमित कर का रूप धारण कर लिया।
🔶 इस युग में 800 ई. पू. में लोहे की खोज हुई। इसका व्यापक उपयोग 600 ई. पू. में आरंभ हुआ।
💠 ऋग्वेद में लोहे के लिए श्याम अयस नामक शब्द का प्रयोग हुआ है।
वैदिक कालीन धार्मिक स्वरूप
(अ) ऋग्वैदिक काल
🔶 आर्यों द्वारा लगभग 33 देवताओं की पूजा की जाती थी।
💠 आर्यों के देवताओं की आकाश, मध्य एवं पृथ्वी की दृष्टिकोण से तीन श्रेणियाँ थी।
🔶 आकाश में 11 प्रकार के देवताओं का उल्लेख है जिनमें सूर्य सर्वश्रेष्ठ थे।
💠 मध्य स्थान में भी 11 देवता थे जिनमें सर्वश्रेष्ठ देवता इंद्र थे। ’इंद्र’ को पुरंदर (दुर्गों को ध्वस्त करने वाला) कहा गया है। ऋग्वेद में ’इन्द्र’ की प्रार्थना में 250 सूक्त दिए गए है। पृथ्वी के देवताओं में अग्नि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
🔶 ऋग्वेद में अग्नि से संबंधित 200 सूक्तों का समावेश किया गया है।
💠 ईरानी ग्रंथों में ’वरुण’ को अहुरमाज्दा एवं यूनानी ग्रंथों में ओरनोज कहा गया है।
🔶 ऋग्वैदिक काल में मूर्तिपूजा अथवा मंदिरों क साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए है।
💠 ऋग्वेद में बहुदेववाद एवं एकेश्वरवाद दोनों विश्वासों के उल्लेख मिलते है।
(ब) उत्तर-वैदिक काल
🔶 इस काल में यज्ञों की अवधि, संख्या एवं जटिलता सभी में वृद्धि हुई।
💠 इस काल में इंद्र, अग्नि एवं वरुण का स्थान प्रजापति (ब्रह्मा), विष्णु एवं शिव ने ले लिया।
🔶 उत्तर वैदिक काल में पशुओं के देवता पूषण को शूद्रों के देवता का स्थान प्राप्त हुआ।
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