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महाराणा प्रताप – Maharana Pratap
महाराणा प्रताप का इतिहास – Maharana Pratap History
जन्म | 9 मई, 1540 ई. |
जन्मस्थान | कुंभलगढ़ दुर्ग |
मृत्यु | 19 जनवरी, 1597 (56 वर्ष) |
मृत्युस्थान | चावण्ड |
पिता | राणा उदयसिंह |
माता | जैवंताबाई |
राजघराना | सिसोदिया |
राज्याभिषेक | 28 फरवरी, 1572 को गोगुंदा में |
रियासत | मेवाङ रियासत |
संतान | 16 पुत्र |
बचपन का नाम | कीका |
पुत्र | अमर सिंह |
पत्नी | अजबदे पंवार |
भाई | 3 भाई (विक्रम सिंह, शक्ति सिंह, जगमाल सिंह) |
बहन | 2 बहनें (चाँद कँवर, मन कँवर) |
घोङे का नाम | चेतक |
हाथी का नाम | रामप्रसाद, लूणा |
लंबाई | 7 फीट 5 इंच |
वजन | 80 किग्रा |
भाला-कवच 2 तलवारों का वजन | 208 किग्रा |
विरोधी शासक | मुगल बादशाह अकबर |
महाराणा प्रताप का जन्म कब हुआ?
महाराणा प्रताप राणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था। प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध ’बादल महल’ जूनी कचेरी में हुआ। महाराणा प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदयसिंह तथा माता का नाम रानी जयवंताबाई(Maharani Jaivanta Bai) था। महाराणा प्रताप राजपूत वंश के थे और इनका जन्म राजपूताना घराने में हुआ था। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बीता।
भील अपने पुत्र को ’कीका’ कहकर पुकारते है इसलिए राणा प्रताप को इस पहाङी भाग में ’कीका’ नाम से सम्बोधित किया जाता था जो स्थानीय भाषा में ’छोटे बच्चे’ का सूचक है। आज भी दक्षिण-पश्चिमी मेवाङ में पुत्र को ’कीका’ या ’कूका’ कहते हैं। राणा प्रताप भीलों के साथ युद्ध कला सीखते थे। राणा प्रताप बचपन से ही परम प्रतापी, साहसी, शूरवीर और स्वाभिमानी थे।
महाराणा प्रताप का विवाह
17 वर्ष की उम्र में प्रताप का विवाह रामरख पंवार की पुत्री अजबदे के साथ हुआ, जिससे कुंवर अमरसिंह (1542 ई.) का जन्म हुआ। मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री फूलकंवर का विवाह भी राणा प्रताप से हुआ।
महाराणा प्रताप का इतिहास
प्रताप ने अपने पिता के साथ जंगलों, घाटियों और पहाङों में रहकर कठोर जीवन बिताया था। जब उसके पिता की मृत्यु हुई उस समय उसकी अवस्था 32 वर्ष की थी। उसके पिता ने भटियाणी रानी धीरबाई पर विशेष अनुराग होने से उनके पुत्र जगमाल को अपना युवराज बनाया था, जबकि अधिकार प्राप्त का था। रानी के आग्रह से तथा कुछ सरदारों के सहयोग से जगमाल का राजतिलक कर दिया गया।
दाह संस्कार में जगमाल की अनुपस्थिति का कारण जानकर सोनगरा मानसिंह अखैराजोत ने रावत कृष्णदास और रावत सांगा से कहा कि वे चूंडा के पोते हैं इसलिए उत्तराधिकारी का निर्णय उनकी सम्मति से किया जाना चाहिए था। इस पर कृष्णदास और सांगा ने कहा कि ज्येष्ठ कुंवर प्रतापसिंह ही है और वह सब प्रकार से सुयोग्य है, अधिकारी है, अतः वह महाराणा होगा। रावत कृष्णदास और ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामशाह तंवर ने जगमाल को सिंहासन से उठाकर प्रताप को सिंहासन पर आसीन किया।
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक
गोगुन्दा में राणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को राज्याभिषेक किया गया। होली के त्यौहार के दिन महाराणा उदयसिंह के देहान्त के कारण त्यौहार की औख (शोक) नहीं रहे, उसके निवारणार्थ तत्कालीन परिपाटी के अनुसार प्रताप ’अहिङा की शिकार’ करने गया। प्रताप कुछ समय के बाद कुम्भलगढ़ चला गया जहां राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया।
महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ। इस पर जगमाल अप्रसन्न होकर अकबर के पास पहुँचा, जिसने उसे पहले जहाजपुर और पीछे आँधी की जागीर दे दी। सिरोही में ही 1583 ई. में दताणी के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी। प्रताप ने मेवाङ के सिंहासन पर 25 वर्षों यानी फरवरी, 1572-जनवरी, 1597 ई. तक शासन किया।
अकबर द्वारा भेजे गये शिष्टमण्डल
सम्राट अकबर की पहल पर 1572-1573 में महाराणा प्रताप से समझौते के चार प्रयत्न हुए। सम्राट का पहला प्रतिनिधि ’वाक् चतुर और तुरन्तबुद्धि दरबारी’ जलालखान कोरची था जिसे नवम्बर, 1572 में महाराणा प्रताप के पास भेजा गया। इसके बाद जून, 1573 में ’उच्चपदीय और प्रभावशाली राजपूत’ आमेर के कुँवर मानसिंह को भेजा गया। उसके असफल होने पर सितम्बर, 1573 में मानसिंह के पिता आमेर के राजा भगवन्तदास को भेजा गया।
इसके बाद अंतिम प्रयत्न के रूप में सैन्य संचालन एवं प्रशासन व्यवस्था दोनों में ही दक्ष तथा ’अपने निजी जीवन में श्रेष्ठ राजा टोडरमल’ को दिसम्बर 1573 में प्रताप से संधि हेतु भेजा गया। लेकिन सभी दूत महाराणा प्रताप को राजी करने में असफल रहे एवं वे महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने हेतु न मना सके।
हल्दीघाटी (राजसमंद) का युद्ध (18 जून, 1576)
महाराणा प्रताप ने जब अकबर की एक भी बात न मानी तो वह भी ताङ गया कि इसकी प्रतिक्रिया उसके राज्य के लिए भयंकर परिणाम ला सकती है। यह समझते हुए उसने पूँजा नामी नेता को अपने भील सहयोगियों के साथ बुलाकर मेवाङ की सुरक्षा प्रबन्ध में लगाया।
जिस भूमि पर प्रताप अपना नियंत्रण नहीं रख सका वहां उसने ’स्वभूमिध्वंस की नीति’ का अनुसरण किया। प्रताप ने मेवाङ के केंद्रीय उपजाऊ भाग की जनता को कुम्भलगढ़ और केलवाङा की ओर पहाङी क्षेत्र में जाने के आदेश दिये जिससे भीतरी गिरवा और मुगल अधीन मेवाङ के बीच के भूखण्ड में यातायात के साधन, खाद्य पदार्थ एवं घास उपलब्ध न हो सके। मेवाङ के हरे-भरे भाग को तहस-नहस इसलिए करवाया गया ताकि शत्रु-दल इसका उपयोग न कर सके।
सेना की स्थिति
ख्यातों के अनुसार मानसिंह के अधीन 80,000 सैनिक और महाराणा प्रताप के पास 20,000 सैनिक थे। नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40,000 सैनिक और प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक थे। युद्ध में उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी के अनुसार मानसिंह की सेना में 5,000 सैनिक तथा प्रताप की सेना में 3,000 घुङसवार थे। मान्यतानुसार दोनों की सेना का अनुपात 4ः1 (80,000/20,000) था।
सम्राट अकबर ने कुँवर मानसिंह के नेतृत्व में शाही सेना को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने हेतु 3 अप्रैल, 1576 को अजमेर से रवाना किया। मानसिंह ने पूर्वी मेवाङ में स्थित ’मांडलगढ़’ में डेरा डाला। यहाँ मानसिंह शाही सेना के साथ मध्य अप्रैल से मध्य जून, 1576 तक रहे। मानसिंह के जीवन की यह पहली लङाई थी जिसमें वह स्वयं सेनापति बने थे।
मानसिंह के मांडलगढ़ पहुँचने का समाचार सुनकर महाराणा प्रताप सेना सहित कुम्भलगढ़ से गोगुंदा आ गये। मानसिंह की सेना मांडलगढ़ से गोगुंदा की ओर बढ़ी। महाराणा प्रताप मेवाङ की सेना के साथ गोगूंदा से रवाना हुए और खमनौर से 10 मील दक्षिण-पश्चिम में लोसिंग गाँव पहुँचे।
अकबर की ओर से सेनानायक कुँवर मानसिंह कच्छवाहा एवं राणा प्रताप की ओर से पठान हाकिम खाँ सूर थे। महाराणा प्रताप व अकबर की सेनाओं के मध्य खमनोर गाँव के पास की समतल भूमि हल्दीघाटी के मैदान (रक्त तलाई) में 18 जून, 1576 को ’हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध’ हुआ। पहला वार इतना जोशीला था कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचाकर भाग गये।
महाराणा प्रताप के साथ ग्वालियर के रामसिंह व उसके पुत्र शालिवाहन आदि भामाशाह व उसका भाई ताराचन्द, झाला मानसिंह, झाला बीदा, सोनगरा मानसिंह आदि प्रमुख व्यक्ति थे। प्रताप की सेना के सबसे आगे के भाग का नेतृत्व ’हकीम खान सूर पठान’ के हाथ में था।
मानसिंह की सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति का संचालन आसफ खान और जगन्नाथ कछवाहा कर रहे थे। इस युद्ध में शाही सेना के साथ प्रमुख इतिहासकार अलबदायूँनी भी उपस्थित था।
बदायूँनी, जो मुगल दल में था और जिसने इस युद्ध का आँखों देखा हाल लिखा है, स्वयं भाग खङा हुआ। अपने पहले मोेर्चे में सफल होने से राजपूत बनास नदी के काँठे वाले मैदान में, जिसे रक्त ताल कहते हैं, आ जमे। यहाँ दोनों दल बारी-बारी से भिङ गये। दोपहर का समय हो गया। युद्ध की गरमागरमी को, जैसे बदायूँनी लिखता है, सूर्य ने अपनी तीक्ष्ण किरणों से अधिक उत्तेजित कर दिया, जिससे खोपङी का खून उतरने लगा।
सभी ओर से योद्धाओं की हलचल से भीङ ऐसी मिल गयी कि शत्रु सेना के राजपूत और मुगल सेना के राजपूतों को पहचानना कठिन हो गया। इस समय बदायूँनी ने आसफखाँ से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें ? उसने उत्तर दिया कि कि तुम तो अपना वार करते जाओ, चाहे जिस पक्ष का भी राजपूत मारा जाये, इस्लाम को हर दशा में लाभ होगा।
राणा कीका अपने साथी लूणकर्ण, रामशाह, ताराचन्द, पूँजा, हकीम सूर आदि के साथ शत्रु दल को चीरता हुआ मानसिंह के हाथी के पास पहुँच गया। उसने फौरन अपने चेतक घोङे को एक ऐसी एङ मारी कि उसने अपने पाँवों को मानसिंह के हाथी के दाँतों पर टिका दिया।
घोङे की एक टाँग हाथी की सूँङ के खन्जर से कट गयी। राणा के युद्ध क्षेत्र से हटने से पूर्व सादङी का ’झाला बीदा’ राणा के सिर से छत्र खींचकर स्वयं धारण कर मानसिंह के सैनिकों पर झपट पङा और लङते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। टूँटी टाँग के घोङे से राणा अधिक दूर नहीं पहुँचा था कि मार्ग में ही घाटी के दूसरे नाके के पास चेतक की मृत्यु हो गयी।
राणा ने उसके अन्तिम संस्कार द्वारा अपने प्यारे घोङे को श्रद्धांजलि अर्पित की। ’बलीचा’ नामक स्थान पर आज भी चेतक की समाधि उपस्थित है। जब प्रताप मैदान से जा रहे थे तो दो मुगल सैनिकों ने उनका पीछा किया। इस घटना के साथ बताया जाता है कि शक्तिसिंह भी जो मुगल दल में उपस्थित था, किसी तरह बचकर जाते हुए राणा के पीछे चल दिया और अपने घोङे को उसे देकर अपने कर्तव्य का पालन किया।
उसने उन दोनों सैनिकों का पीछा किया और उनके प्रताप के पास पहुँचने के पहले ही उन्हें मार डाला। फिर उसने प्रताप को पुकारा। दोनों भाई बलीचा गाँव के पास एक नाले के किनारे मिले।
राजपूतों ने अपने जीवन की बाजी लगाना आरम्भ कर दिया, जिससे एक के बाद दूसरा धाराशाही होता गया। ऐसे वीरों में नेतनी, रामशाह अपने पुत्रों के साथ, राठौङ शंकरदास, भीम डोडिया, कांधल, हाकिम खां सूर, झाला मानसिंह आदि मुख्य थे। राणा के साथ ही उसकी बची सेना कोल्यारी पहुंची।
घायलों का वहां उपचार किया गया। रणक्षेत्र से बचने वालों में सलूम्बर का रावत किशनदास, घाणेराव का गोपालदास, भामाशाह, ताराचन्द आदि प्रमुख थे। दूसरे दिन मानसिंह अपने सैनिकों के साथ गोगुन्दा की ओर रवाना हो गया। मुगल सेना के आदमी एक-एक कर लौट गये।
बदायूँनी ने युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धाओं के मरने व घायल होने वालों की संख्या भी दी है। उसके अनुसार कुल 500 आदमी रण क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए जिनमें 120 मुसलमान और शेष 380 हिन्दू थे। 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए थे।
अबुल फजल के अनुसार 150 मुसलमान और 500 शत्रु पक्ष के आदमी मारे गये। अकबर ने अपनी ओर से महमूदखां नामक व्यक्ति को युद्ध व सेना सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने हेतु गोगुन्दा भेजा। उसने लौटकर सम्पूर्ण स्थिति की जानकारी दी। बदायूँनी ने बादशाह को रामप्रसाद हाथी और युद्ध की रिपोर्ट प्रेषित की। बादशाह ने हाथी का नाम रामप्रसाद बदल कर पीरप्रसाद रखा।
राणा प्रताप के अचानक युद्ध भूमि से हट जाने के बाद मेवाङ की सेना की हिम्मत टूट गई थी। झाला बीदा ने प्रताप का स्थान ले लिया। मुगल सैनिकों ने झाला बीदा को ही प्रताप समझा व उन्हें मार गिराया। मेवाङ के अन्य वीरों ने अपने सैनिकों को जमाये रखने का यत्न किया। किन्तु मुगल सेना ने उनके पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाङी सेना को मैदान छोङना पङा। इस प्रकार जिस दिन युद्ध शुरू हुआ था उसी दिन दोपहर को वह मुगलों की जीत के साथ समाप्त हो गया।
कुँवर मानसिंह अगले ही दिन गोगुंदा चला गया। मुगलों का लक्ष्य प्रताप था वह न पकङा जा सका न मारा जा सका। प्रताप युद्ध के बाद कोल्यारी गाँव पहुंचे जहाँ उन्होंने अपना इलाज करवाया। कोल्यारी से प्रताप कुम्भलगढ़ गये।
कुम्भलगढ़ पहुँचने के बाद प्रताप ने अपने सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ करना आरम्भ किया। उन्होंने अपनी सैनिक नीति बनाई कि जिसे जीता नहीं जा सके उसके आगे जान देना वृथा है, परन्तु न उसे चैन से कहीं ठहरने दिया जाए और न ही जहाँ भी उसका कब्जा ढीला दिखाई दे उसे उस जगह टिकने दिया जाए। मुगल जो जगह लेते प्रताप मुख्य मुगल सेना के हटते ही उस जगह पर फिर से कब्जा कर लेते। यह क्रम उन्होंने वर्षों चलाया और इसी के सहारे उन्होंने अपना सारा प्रदेश फिर से मुगल सेना से छीन लिया और अकबर मी महत्त्वकांक्षा पूरी नहीं होने दी।
उन्होंने गुरिल्ला (छापामार) युद्ध पद्धति अपनाई। प्रताप ने फिर से गोगुंदा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उन्होंने गोगुंदा की रक्षा के लिए मांडण कूंपावत को तथा कुम्भलगढ़ की रक्षा के लिए महता नर्वद को नियुक्त किया।
अकबर और प्रताप की टक्कर का हल्दीघाटी में अन्त नहीं आरम्भ हुआ था। हल्दीघाटी का युद्ध इतना अनिर्णीत रहा कि चार महीने बाद ही स्वयं अकबर को यहाँ आना पङा। अक्टूबर, 1576 में अकबर ने स्वयं ही अजमेर से मेवाङ पर चढ़ाई आरम्भ की। उसने नवम्बर, 1576 में उदयपुर जीता व उसका नाम ’मुहम्मदाबाद’ रखा। नवम्बर के अंत तक अकबर मेवाङ में रहा लेकिन वह प्रताप को नहीं पकङ सका।
जेम्स टाॅड ने अपनी पुस्तक ’अनाल्स एण्ड एंटीक्यूटीज ऑफ़ राजस्थान’ में प्रथम बार इस युद्ध को हल्दीघाटी के नाम से संबोधित किया, तब से यह लङाई हल्दीघाटी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हो गई।
हाथी युद्ध
युद्ध के लिए हाथी सामने लाए गए। एक मुगल हाथी को मार गिराया तो हाथी बिगङकर अपनी ही सेना को रोंदकर निकल गया। प्रताप ने शत्रु दल के केन्द्र में प्रवेश किया। मुगल पक्ष के तोपखाने से हमला कर दिया। मानसिंह अपने हाथी ’मर्दाना’ के हौदे पर बैठा था। प्रताप मानसिंह की ओर बढ़ा। राणा के चेतक ने मानसिंह के हाथी पर अगले पैर रखे तथा प्रताप ने अपने भाले का वार किया जो मानसिंह के हाथी पर बैठे महावत के शरीर को पार कर हौदे को पार कर गया, इस वार को मानसिंह बचा गया। मानसिंह हौदे में छुप गया।
प्रताप ने सोचा की मानसिंह मर गया। लेकिन महावत विहीन हाथी ने अपने खंजर से चेतक का एक पैर काट दिया। प्रथम आक्रमण के दौरान मुगल केन्द्र बिखर गया। मानसिंह द्वारा मुगल लाइन को पुनः स्थिर किया गया। जब लगातार तीरों की वर्षा एवं तोपखानें के गोलों की तीनों ओर से बौछार होने लगे तो राणा के खेमे में निराशा छाने लगी। लेकिन राणा ने अपने दो युद्धरत हाथियों ’लूणा एवं रामप्रसाद’ को युद्ध करने का आदेश दिया। प्रताप की सेना में खांडेराव और चक्रवाप नामक हाथी भी थे।
इस युद्ध में न तो तीर, न ही गोलियां चली और न ही तोपखाना गरजा। केवल कवचधारी एवं अपनी सूण्डों में जहरीले खंजर लिए हुए तथा पूंछों में धारदार तलवारें लिए हुए लूना और रामप्रसाद शत्रु की सेना को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे। आतंक त्रस्त मुगलों ने लूना के विरुद्ध जो केन्द्र की ओर बढ़ रहा था अपने हाथी ’गज-मुक्ता’ मैदान में उतार दिया। इतने में ही लूना के महावत के सिर में गोली मार दी गई। रामप्रसाद दाहिने हरावल की ओर तेजी से आगे बढ़ा।
दूसरी ओर दो मुगल हाथी ’गजराज एवं रन-मदार’ आगे बढ़े तथा हाथियों में खूनी संघर्ष शुरू हुआ। इससे पहले की खूनी संघर्ष पूरा होता रामप्रसाद के महावत को भी गोली मार दी गई। एक मुगल महावत ने रामप्रसाद की पीठ पर सवार होकर उसे नियंत्रण में ले लिया।
कुम्भलगढ़ का युद्ध (1578 ई.)
राणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को अपनी राजधानी बनाकर मुगल स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर अकबर ने अक्टूबर 1577 ई. को शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक सेना मेवाङ की ओर भेजी। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। लम्बे समय तक उसने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण जारी रखा। रसद की कमी होने पर प्रताप किले का भार मानसिंह सोनगरा को सौंपकर पहाङों की ओर निकल गया।
अंत में भीषण संघर्ष के बाद 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। वर्ष 1578 एवं 1579 में शाहबाज खाँ ने दो बार और मेवाङ पर आक्रमण किया, लेकिन वह असफल रहा।
मई 1580 ई. में शाहबाजखां मेवाङ छोङकर चला गया तब राणा पुनः मेवाङ चला आया। ढोलाण में लगभग तीन वर्ष रहकर अपनी शक्ति में वृद्धि की और वह अकबर के विरुद्ध भावी युद्ध की तैयारी में जुटा रहा। ढोलाण गांव से प्रताप पुनः चावंड पहुँच गया। 1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को मेवाङ अभियान पर भेजा, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका।
जब कुँवर अमरसिंह ने अब्दुल रहीम खानखाना के परिवार की महिलाओं को पकङ लिया और इसका सूचना प्रताप को मिली तो उसने अमरसिंह को आदेश भेजा कि खानखाना का परिवार तुरन्त मुक्त कर दिया जाये। खानखाना इस उदारता से द्रवित हो गया।
भामाशाह की भेंट
महाराणा प्रताप इधर से उधर सुरक्षा की खोज में भाग रहे थे तथा उनके पास धन का भी अभाव होने लगा। इसी समय 1578 ई. में ’चूलिया ग्राम’ में राणा को उसका मंत्री भामाशाह मिला और भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति से राणा की 20 हजार स्वर्ण मुद्राओं से आर्थिक सहायता की। जिससे राणा ने 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह किया। इसलिए भामाशाह को ’दानवीर’ और ’मेवाङ का उद्धारक’ कहा जाता है।
महाराणा प्रताप की नई युद्ध-नीति
राणा की नई नीति रक्षात्मक थी। इसका मूल उद्देश्य मेवाङ राज्य पर मुगल आधिपत्य को रोकना तथा राज्य में जन-धन की रक्षा करते हुए आक्रमणकारी को अधिकाधिक क्षतिग्रस्त करना था। नीति का मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण पर्वतीय भाग की किलाबन्दी करना, शत्रु का राज्य में प्रवेश होने से रोकना, प्रवेश हो जाने पर उसे अधिकाधिक हानि पहुंचाना जिससे त्रस्त होकर वह वापिस लौट जाये।
पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली आदिवासी भील जाति का प्रताप को बङा सहयोग मिला। भीलों ने गुप्तचरों व संदेशवाहकों का कार्य भी किया था। प्रताप का कोष, शस्त्र और खाद्यान्न कन्दराओं में सुरक्षित थे। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली का उपयोग किया था। प्रताप की सेना में पैदल व घुङसवार दोनों ही थे। उन्हें टुकङियों में विभाजित कर दिया गया था और वे सामरिक स्थानों पर तैनात की गई।
राणा की स्वभूमिध्वंस नीति से शत्रुओं की परेशानियां बढ़ी। उपर्युक्त कारण से मुगल सैनिक मेवाङ पर स्थायी अधिकार रखने में असफल रहे। महाराणा प्रताप ने बङी सूझ-बूझ के साथ चावंड को अपनी राजधानी बनाया था। वहां पहुंचने का मार्ग बङा दुर्गम एवं विकट था। वहां पर शत्रुओं का आकस्मिक आक्रमण होने का भय नहीं था और शत्रु के प्रवेश को रोकना आसान था।
दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582)
महाराणा प्रताप ने मेवाङ की भूमि को मुक्त कराने का अभियान दिवेर से प्रारम्भ किया। दिवेर वर्तमान राजसमंद जिले में उदयपुर-अजमेर मार्ग पर स्थित है। ’अमरकाव्य’ के अनुसार 1582 ई. में राणा प्रताप ने मुगलों के विरुद्ध दिवेर (कुंभलगढ़) पर जबरदस्त आक्रमण किया।
यहाँ का सूबेदार अकबर का काका ’सेरिमा सुल्तान खां’ था। जब कुंवर अमरसिंह ने अपना भाला सेरिमा सुल्तान पर मारा तो भाला सेरिमा के लोहे के टोप को चीरते हुए उसके शरीर में प्रवेश कर, घोङे के शरीर को पार करते हुए जमीन में जा धंसा। सेरिमा एक स्टेच्यु (बुत) बन गया यह देख बाकी मुगल सेना भाग खङी हुई। इस युद्ध में मेवाङ की शानदार सफलता के कारण शेष जगहों से मुगल सेनाएँ भाग खङी हुई।
दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई। इसके बाद प्रताप ने पीछे मुङकर नहीं देखा और मेवाङ को मुगलों से मुक्त करा लिया। मेवाङ को राजपूताना में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा मिली।
कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को ’प्रताप के गौरव का प्रतीक’ माना और ’माराथन’ की संज्ञा दी।
महाराणा प्रताप का अंतिम अभियान
अकबर ने अब पुनः मेवाङ की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया। प्रताप अब भी परास्त नहीं हुआ है, यह भारत विजेता सम्राट कैसे सहन कर सकता था। अतः अकबर ने आमेर के राजा भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कछवाहा के नेतृत्व में 5 दिसम्बर, 1584 को एक विशाल सेना मेवाङ के विरुद्ध रवाना की। लेकिन जगन्नाथ को भी कोई सफलता नहीं मिली। वह भी प्रताप को नहीं पकङ सका। यह अकबर का प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान था।
अब अकबर मेवाङ के मामले में इतना निराश हो चुका था कि छुटपुट कार्रवाई उसे निरर्थक लगी और बङे अभियान के लिए वह अवकाश नहीं निकाल सका। 1586 से 1596 तक दस वर्ष की सुदीर्घ अवधि में प्रताप को जहाँ का तहाँ छोङ दिया गया। इसे अघोषित संधि कहा जा सकता है अथवा अपनी विवशता की अकबर द्वारा परोक्ष स्वीकृति।
महाराणा प्रताप की लंबाई और उनका वजन
महाराणा की लंबाई 7 फीट 5 इंच थी। इनका वजन लगभग 110 किलोग्राम था। महाराणा प्रताप कुल 360 किलो वजन ढोते थे, जिसमें 208 किलो वजन की दो तलवारें, 80 किलो का भाला तथा कवच का भार 72 किलो था।
महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई – Maharana Pratap Death
महाराणा प्रताप ने 1585 में अपने स्थायी जीवन का आरंभ चावंड में मेवाङ की नयी राजधानी स्थापित करके किया। प्रताप के अंतिम बारह वर्ष और उनके उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह के राजकाज के प्रारम्भिक 16 वर्ष चावंड में बीते। चावंड 28 साल मेवाङ की राजधानी रहा। चावंड गाँव से लगभग आधा मील दूर एक पहाङी पर प्रताप ने अपने महल बनवाये। 19 जनवरी, 1597 को प्रताप का चावंड में देहान्त हुआ। उस समय उनकी आयु 57 वर्ष थी।
राणा प्रताप की मृत्यु पर मुगल सम्राट अकबर ने भी शोक प्रकट किया था। इस अवसर पर समकालीन प्रसिद्ध कवि दुरसा आढ़ा ने मुगल दरबार में निम्न दोहा सुनाया तो अकबर भाव-विह्वल हो उठा। उसने कवि को पारितोषिक देकर सम्मानित किया था।
’’गहलोत राणो जीत गयो दसण मूंद रसणा डसी।
नीलास मूक भरिया नयन तो मृत शाह प्रताप सी।।’’
प्रताप का चावण्ड के पास बाण्डोली गाँव के निकट बहने वाले नाले के तट पर अग्नि संस्कार हुआ, जहाँ उसके स्मारक के रूप में एक छोटी-सी छतरी बना दी गयी। कर्नल टाॅड द्वारा पिछोला की पाल के महलों में राणा की मृत्यु होना बताया है।
अकबर के शांति अभियान
1. जलाल खाँ | 1572 ई. में |
2. मानसिंह | 1573 ई. में गोपीनाथ शर्मा के अनुसार प्रताप व मानसिंह की मुलाकात गोगुन्दा में हुआ। टाॅड के अनुसार उदयसागर झील पर हुई। |
3. भगवानदास | 1573 ई. में |
4. टोडरमल | 1573 ई. में,टोडरमल अकबर भू-राजस्व व्यवस्था का प्रमुख था इसने ’’दक्षाल’’ पद्धति चलाई थी। |
5. रहीम जी | अब्दुल रहीम खानखाना – 1580 ई. में |
6. जगन्नाथ कच्छवाह | 1584 ई. में, महाराणा प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान लेकर गया था |
हल्दीघाटी युद्ध – Haldi Ghati War
हल्दीघाटी युद्ध/गोगुन्दा का युद्ध (बदायुनी)
खमनौर का युद्ध (अबुल फजल)
मेवाङ की थर्मोपल्ली (टोडमल)
रक्ततलाई/हाथियों का युद्ध/बनास का युद्ध – 18 या 21 जून 1576 –
⇒ मानसिंह व आसफ खां सेनापति बनाए गए।
⇒ मानसिंह अजमेर से रवाना होकर मांडलगढ़ पहुँचा।
⇒ 2 माह तक मांडलगढ़ में रुका।
⇒ इसके बाद खमनौर (राजसमन्द) पहुँचा।
⇒ मानसिंह मर्दाना हाथी पर था।
⇒ मानसिंह की हरावल सेना का नेतृत्व जगन्नाथ कच्छवाह व सैय्यद खां कर रहे थे।
⇒ मानसिंह की चन्द्रावल सेना का नेतृत्व मिहतर खां कर रहा था।
⇒ मिहतर खां में बादशाह के जाने की झूठी खबर फैलाई।
⇒ हल्दीघाटी युद्ध का प्रत्यक्ष दृष्टा इतिहासकार बँदायुनी था।
⇒ राणा की हरावल सेना का नेतृत्व हाकिम खां सूर कर रहा था ये प्रताप का एकमात्र मुस्लिम सेनापति था।
⇒ हाकिम खां सूरी का मकबरा खमनौर में है।
⇒ राणा की चन्द्रावल सेना का नेतृत्व भील पूजा कर रहा था पूजा एकमात्र भील है जिसे प्रताप ने राणा लगाने की इजाजत दी।
प्रताप के अन्य सहयोगी
⇒ जगन्नाथ, केशव, कृष्णदास, झाला बीदा (प्रताप का राज चिन्ह धारण किया था।)
⇒ प्रताप के हाथियों के नाम – लूणा, रामप्रसाद (इसका नाम अकबर ने पीर प्रसाद कर दिया था।)
⇒ मुगलों के हाथियों के नाम – गजराज, गजयुक्ता, रणमंदिर।
⇒ प्रताप के घोङो का नाम – एटक (ये अस्तबल में रहता था।), चेतक (छतरी बलीचा (राजस्थान में))
⇒ गोपीनाथ शर्मा के अनुसार हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णित युद्ध था।
⇒ नवीन शोधोें के अनुसार इसमें प्रताप की विजय हुई।
⇒ हल्दीघाटी युद्ध के बाद प्रताप कोल्यार (उदयपुर) गांव पहुंचे व घायल सैनिकों का उपचार किया।
⇒ 1576 में ही अकबर उदयपुर आया और उदयपुर का नाम मुमदाबाद कर दिया।
⇒ इसके बाद अकबर हल्दीघाटी देखने गया।
⇒ अकबर ने नाथद्वारा व मोही में 30,000 सैनिक छोङ दिए।
⇒ अकबर ने उदयपुर का प्रशासन फकरुद्दीन व जगन्नाथ को सौंपा।
⇒ इसके बाद अकबर डूंगरपुर व बांसवाङा गया।
⇒ बांसवाङा का राव प्रताप सिंह व डूंगरपुर के आसकरण ने अधीनता स्वीकार की।
शाहबाज खां का आक्रमण –
⇒ प्रथम बार शाहबाज खां आक्रमण – (1577 ई.) मेवाङ की ओर आया। कुंभलगढ़ की ओर आक्रमण किया।
⇒ राणा कुंभलगढ़ छोङकर पहाङियों में चले गए।
⇒ 1578 में शाहबाज खां अजयदुर्ग कुंभलगढ़ को जीत लिया।
⇒ इतिहास में कुंभलगढ़ दुर्ग सिर्फ एक बार ही जीता गया है।
⇒ शाहबाज खां ने यह दुर्ग गाजी खां को सौंप दिया।
⇒ कुंभलगढ़ के बाद शाहबाज खां गोगुन्दा व उसके बाद उदयपुर पहुंचा।
⇒ शाहबाज खां ने मेवाङ में 50 थाने स्थापित कर दिए।
⇒ दूसरी बार शाहबाज खां आक्रमण (दिसम्बर-1578 ई.) मेवाङ आया।
⇒ तीसरी बार शाहबाज खां नवम्बर-1579 ई. में आया।
⇒ राणा आबू चले गए, आबू के राव धुल्ला के यहां रहे धुल्ला की पुत्री से विवाह किया व धुल्ला को राणा लगाने की इजाजत दी।
⇒ 1580 ई. में वापस आ गए।
⇒ भामाशाह से मुलाकातः भामाशाह व ताराचंद ने राणा से मुलाकात की उस समय राणा चूलिया गांव (चितौङगढ़) में थे।
⇒ भामाशाह ने इनकी आर्थिक सहायता की।
महाराणा प्रताप से जुड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य
⇒ यह इतनी दल राशि थी जिससे राणा 25000 सैनिक 12 वर्ष तक रख सकते थे।
⇒ राणा ने भामाशाह को अपना प्रधानमंत्री बनाया इससे पहले राणा का प्रधानमंत्री रामा महासणी था।
⇒ भामाशाह को मेवाङ को उद्धारक व टाॅड ने मेवाङ का कर्ण कहा है।
⇒ रहीम जी अभियान (1580) -रहीम का परिवार शेरपुरा गांव में रूका हुआ था।
⇒ अमरसिंह ने इनके परिवार को गिरफ्तार कर लिया बाद में प्रताप के कहने पर वापस छोङ दिया।
⇒ दिवेर का युद्ध (अक्टूबर-1582)- दिवेर चौकी का प्रभारी-सुलतान खां
⇒ राणा व कुंवर अमरसिंह ने चौकी पर आक्रमण किया सुल्तान को मार दिया।
⇒ दिवेर से राणा के विजयों की शुरूआत मानी जाती है।
⇒ दिवेर के युद्ध को महाराणा प्रताप के गौरव का प्रतीक कहा जाता है।
⇒ टाॅड ने इस युद्ध को मेवाङ का मेराथन कहा है।
⇒ जगन्नाथ कच्छवाहा का अभियान (1584ई.)- राणा के विरूद्ध अंतिम अभियान के रूप में भगवनदास का भाई
जगन्नाथ कच्छवाह आया।
⇒ राणा ने मालपुरा (टोंक) कस्बे को लूटा था। 1585 में लूणा चावण्डिया को हराकर प्रताप ने अंतिम राजधानी चावण्ड को
बनवाई व यहां चामुण्डा माता का मंदिर बनवाया।
⇒ चावण्ड राजधानी 1605 तक रही। यहां धनुष की प्रत्यंचा खींचते समय आंतो में खिंचाव हो गया।
⇒ 19 जनवरी 1597 को राणा की मृत्यु हो गई।
⇒ इनका दाह संस्कार बाङौली (चितौङ) में हुआ।
⇒ बाङौली में प्रताप की 8 खंभों की छतरी बनी है।
⇒ चेतक की छतरी बलीचा (राजसमंद) में है।
महाराणा प्रताप के स्मारक
- हल्दीघाटी में
- फतेहसागर झील- उदयपुर
- पुष्कर – अजमेर
⇒ मेवाङ फांउडेशन द्वारा खेल के क्षेत्र में महाराणा प्रताप पुरस्कार व पत्रकारिता के क्षेत्र में हल्दीघाटी पुरस्कार दिया जाता है।
⇒ पर्यावरण के क्षेत्र में उदयसिंह पुरस्कार दिया जाता है।
⇒ हिन्दु-मुस्लिम सौहार्द्र के लिए हाकिम खां सूरी पुरस्कार दिया जाता है।
⇒ जनजाति उत्थान – राणा पूंजा पुरस्कार
⇒ बलिदान के लिए- पन्ना धाय पुरस्कार
⇒ पातल का पीथल – यह रचना कन्हैयालाल सेठिया ने लिखी। इसमें पातल महाराणा प्रताप व पीथल पृथ्वीराज राठौङ को कहा गया है।
⇒ कन्हैयालाल सेठिया जी सुजानगढ़ (चुरु) के थे।
⇒ सेठिया जी की अन्य रचनाएं- कू-कू, मींझर , धरती धोरां री, आज हिमालय बोल उठा, धर मंझला धर ऊंचा आदि।
⇒ पृथ्वीराज राठौङ (बीकानेर)- यह अकबर के दरबार में थे।
⇒ अकबर ने राठौङ को गागरोन की जागीर दी।
महाराणा प्रताप सिंह के तथ्य – Maharana Pratap Biography in Hindi
- गागरोन दुर्ग में इन्होंने डिंगल भाषा में ’’बैली किशन रूक्मणी री’’ नामक ग्रंथ लिखा था।
- इस ग्रंथ को दुरसा आडा में पांचवा वेद व 19 वां पुराण कहा गया।
- पृथ्वीराज को टेसीटोरी ने डिंगल का हेराॅन्स कहा था।
- टेसीटोरी इटली के थे।
- इनका सम्बन्ध चारण साहित्य से है।
- इनकी मृत्यु बीकानेर में हुई थी।
- टेसीटोरी को धोराँ रो धोरी भी कहा जाता है।
- पृथ्वीराज राठौङ ने महाराणा प्रताप के लिए कहा था
मायङ जैङो पूत अण, जैङो महाराणा प्रताप।
अकबर सूतो ओज में, जाण सिराणै सांप।।
- दुरसा आडा इन्होंने ’’विरुद्ध छहतरी बावनो’’ नामक ग्रंथ लिखा था।
दोस्तो आज की पोस्ट में आपको महाराणा प्रताप से संबन्धित जानकारी दी गयी आपको कैसे लगी, नीचे दिये गए कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।
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राजस्थान के स्वतन्त्रता सैनानी
राष्ट्रपति की सम्पूर्ण जानकारी जानें
बहुत अच्छा।
कृपया महाराणा प्रताप का पुरा विडियो बनाने का प्रयास करें।
Super sir ji …
Achi h
Osm
Nice…..Acha lga sir ap ka ye pariyas…….. Ache nots h
Shubhaas Gi Jai hoo
Sir yadi apki aavaj m maharana pratap ka video bn jye to bhut hi khusi hogi sr kyuki sr aap smjao tbhi pdne ka mja aata h
Hello Sir, Thanks for the notes. Its really comprehensive and helpful from the exam point of view.
Similarly , please arrange Notes & Videos for Psychology Subject.
Subhas sir aap bhut accha padhate ho,or mene aapke ab tak ke sare videos dekh liye he …Or aapki padhai hui har topic muje asani ye yad b ho jati he ,,so yadi ap 1st grade ke GK ke videos bana ke dalte ho to ,hume is se bhut fayda milega sir
Bahut achi lagi sar
Superb sir