Rajasthani Painting – राजस्थान की चित्रकला शैलियाँ -GK

आज के आर्टिकल में हम राजस्थान की चित्रकला की प्रमुख शैलियों (Rajasthani Painting) के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे ।

राजस्थान की चित्रकला की शैलियाँ – Rajasthani Painting

⇒ राजस्थान कला के क्षेत्र में भारत में अग्रणी राज्य है। इस मरु-भूमि में सभी प्रकार की कलाओं का विकास हुआ तथा भारतीय कला के क्षेत्र में इसने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया।

Rajasthani Painting

 चित्रकला क्या है?

  • अपनी अमूर्त भावनाओं के विकास के लिए मानव ने जिन कलाओं का आश्रय लिया उनमें चित्रकला का प्रमुख स्थान है। सर्वप्रथम श्री आनन्द कुमार स्वामी ने अपने ग्रन्थ राजपूत पेंटिग में राजस्थान की चित्रकला के स्वरूप को उजागर किया तथा स्पष्ट किया कि राजस्थान में चित्रकला का एक सम्पन्न स्वरूप है।
चित्रकला―वस्तुओं, वस्त्रों एवं दीवारों को सुंदर बनानेके लिए उन पर उकेरी विभिन्न आकृतियाँ चित्रकला कहलाती है ।
  • राजस्थानी शैली का प्रारम्भ 15 वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है।
  • राजस्थानी चित्रकला का स्वर्णकाल  – 17 वीं और 18 वीं शताब्दी
  • श्री बेस्लिग्रे ने राजस्थानी चित्रकला के लिए राजपूत चित्रकला नाम का समर्थन किया है।
  • राजस्थानी चित्रकला का उद्गम स्थल मेवाङ माना जाता है। यह अपभ्रंश शैली का नवीन रूप है।
विलियम लारेन्स – ‘राजस्थानी चित्रशैली विशुद्ध रूपसे भारतीय है।’
  • राजपूत चित्रकला के अन्तर्गत राजस्थानी शैली के सभी चित्र आ जाते हैं।
    जैसलमेर के प्राचीन भंडारों में उपलब्ध विक्रम संवत 1117 व 1160 ई. के दो ग्रन्थ आधनिर्युक्ति वृत्ति एवं दशवैकालिक सूत्र चूर्णि भारतीय कला के दीप स्तम्भ हैं।
    हरिभद्र सूरि कृत समराइच्चकहा तथा उद्योतनसूरी कृत कुवलयमाला में चित्र निर्माण की पद्धति रेखांकन, रूपांकन, रंग संयोजन के विस्तृत विवरण मिलते हैं।
    मूल रूप से देखा जाए तो राजस्थान में बने हुए चित्र अपनी शैली एवं स्वरूप में अजन्ता के चित्रों से मिलते-जुलते हैं।
  • भारतीय चित्रकला का जनक – राजा रवि वर्मा (केरल)
  • राजस्थानी चित्रकला का जनक – महाराणा कुम्भा
  • राजस्थान की आधुनिक चित्रकला का जनक  – कुंदनलाल मिस्त्री
शैलीविद्वान
राजपूत शैलीगांगुली,हैवेल और आनंद कुमार स्वामी
राजस्थानी शैलीरायकृष्ण दास
हिन्दू शैलीN.C मेहता
राजपूत कलाW.H ब्राउन

राजस्थानी लोक चित्रकला को अग्रलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है

(1) भित्ति एवं भूमि चित्र –

(क) आकारद चित्र – भित्ति, देवरा, पथवारी आदि।
(ख) अमूर्त, सांकेतिक, ज्यामितीय, सांझी व माण्डव आदि।

(2) कपङे पर निर्मित चित्र – पट चित्र, पिछवाई, फङ आदि।

(3) कागज पर निर्मित चित्र – पाने।

(4) लकङी पर निर्मित चित्र – कावङ व खिलौने आदि।

(5) पक्की मिट्टी पर निर्मित चित्र – मृदपात्र, लोक-देवता, देवियाँ व खिलौने आदि।

(6) मानव शरीर पर चित्र – गोदना, मेहंदी आदि।

⇒ कोटा जिले के आलणियां, दर्रा, बैराठ तथा भरतपुर जिले के दर नामक स्थानों के शैलाश्रयों में आदिम मानव द्वारा उकेरे गये रेखांकन प्रदर्शित हुए हैं।
⇒ राजस्थान में मीणा जाति का राष्ट्रीय पक्षी मोर से अधिक लगाव रहा है अतः मोरङी मांडना उनकी परम्परा का अंग बन गया है।
⇒ राजस्थान लोक चित्रकला की विधा सांझी को कुंवारी लङकियाँ माता पार्वती मानकर अच्छे वर की कामना के लिए, दशहरे से पूर्व नवरात्रा में पूजती हैं।

⇒ फङ की लम्बाई 24 फुट तथा चौड़ाई 5 फुट होती है। इसमें लोक देवताओं के जीवन की असंख्य घटनाओं तथा उनसे सम्बन्धित चमत्कारों के विवरण चित्रित किये जाते हैं।
⇒ मेहंदी की भांति गोदना भी राजस्थान के प्रत्येक ग्राम में निम्न जाति के स्त्री-पुरुषों में प्रचलित है। किसी तेज औजार से शरीर के ऊपरी की चमङी खोदकर उसमें काला रंग भरने से चमङी में पक्का निशान बन जाता है जो गोदना कहलाता है।

राजस्थानी चित्रकला के स्कूल

राजस्थानी चित्रकला के वर्गीकरण निम्न हैं-

(1) मेवाङ स्कूलनाथद्वारा, देवगढ़, उदयपुर, बागौर, सावर, बेगूं व केलवा उप शैली।
(2) मारवाङ स्कूलबीकानेर, जोधपुर, किशनगढ़, नागौर, सिरोही, जैसलमेर, घाणेराव व जूनियाँ उप शैली।
(3) हाङौती स्कूलकोटा, बूँदी व झालावाङ शैली।
(4) ढूँढाङ स्कूलआमेर, शेखावाटी, उणियारा, शाहपुरा, जयपुर, अलवर व ईसरदा उप शैली।

मेवाङ शैली

⇒ राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाङ शैली में विद्यमान है। इस शैली को विकसित करने में महाराणा कुम्भा का विशेष योगदान रहा।
⇒ इस शैली का सबसे प्राचीन चित्रित ग्रन्थ 1260 ई. का श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र चूर्णि है जिसे महारावल तेज सिंह के शासन काल में चित्रित किया गया।
⇒ महाराणा जगत सिंह का शासनकाल (1572-1620) मेवाङ की चित्रकला के इतिहास में स्वर्ण युग माना जाता है। उस जमाने का रागमाला चित्र बङौदा के अजायबघर में तथा बारहमासा चित्र सरस्वती भवन पुस्तकालय उदयपुर में सुरक्षित है।
⇒ मेवाङ लघुचित्रशैली के आरम्भिक चित्र ’श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णी’ नामक सचित्र ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। इस शैली के प्रतिनिधि चित्रों का दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ ’सुपासनाचर्यम’ (पाश्र्वनाथ चरित्र) है जिसे सन् 1422-23 के मध्य चित्रांकित किया गया। इस शैली को अग्रसर करने वाले अन्य चित्र कल्पसूत्र (1526) में उपलब्ध होते हैं। कादम्बरी, पंचंतत्र, मालती माधव आदि की कथाओं पर आधारित चित्र महाराणा राजसिंह (1652-1680) के राज्य काल में निर्मित हुए। ग्रंथ सज्जा की दृष्टि से मेवाङ शैली में बने बिहारी सतसई, पृथ्वीराज रासो, दुर्गा सप्तशती तथा भक्त रत्नावली आदि ग्रन्थों पर आधारित चित्र इस शैली के विस्तृत फलक तथा कलापूर्ण वैभव के परिचायक हैं।

⇒ मेवाङ शैली के चित्रों में पुरुष तथा महिलाओं की आकृतियाँ सुडौल तथा आकर्षक कद वाली हैं। लम्बी नाक, गोल चेहरे, बङी-बङी आँखें, लघु ग्रीवा, खुले हुए अधर इन आकृतियों की विशेषताएं हैं। पुरुषों की मूछंे रौबदार दिखाई गर्द है, तो नारी आकृतियाँ सज्जायुक्त, सौन्दर्यशालिनी तथा छुई हुई देह वाली दर्शाई गई हैं। साथ ही प्रकृति-चित्रण भी बखूबी किया गया है।
⇒ पंचतन्त्र, गीत गोविन्द रागमाला, रसमंजरी, रसिकप्रिया, महाभारत, रामायण और पृथ्वीराज रासो से सम्बन्धित चित्र इस शैली के प्रमुख चित्र हैं।

नाथद्वारा शैली

⇒ मेवाङ स्कूल से ही नाथद्वारा उपशैली, देवगढ़ उपशैली तथा शाहपुरा उपशैली का उदय हुआ।
⇒ इस शैली का उद्गम 10 फरवरी, 1672 ई. में नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के मन्दिर की स्थापना के साथ ही शुरू हुआ।

⇒ मेवाङ एवं ब्रज की सांस्कृतिक परम्पराओं के समन्वय से नाथद्वारा शैली का विकास हुआ।
⇒ नाथद्वारा शैली राजपूत शैली, मेवाङ शैली और किशनगढ़ शैली का अनोखा मिश्रण है।
⇒ पिछवाई, भित्ति चित्र एवं श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का अंकन इस शैली का प्रमुख विषय रहा है।

देवगढ़ उपशैली

⇒ देवगढ़ शैली के विकास में देवगढ़ के रावत द्वारकादास चूंडावत का प्रमुख योगदान रहा।
⇒ मोटी और सधी हुई रेखाएँ, पीले रंगों का बाहुल्य, मारवाङ के अनुकूल स्त्री-पुरुष आकृतियाँ, शिकार, गोठ, अन्तःपुर, राजसी ठाठ-बाट, शृंगार आदि से सम्बन्धित चित्र इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

शाहपुरा उपशैली

⇒ भीलवाङा जिले में स्थित शाहपुरा में मेवाङी परम्परा को आधार बनाकर लोक जीवन की फङ चित्रण शैली विकसित हुई।
⇒ शाहपुरा के मन्दिरों और भवनों में भित्तिचित्र व फङ चित्रण परम्परा को विकसित करने में भीलवाङा के श्रीलाल जोशी व दुर्गालाल जोशी का प्रमुख योगदान रहा है।

जोधपुर शैली

⇒ जोधपुर, बीकानेर एवं किशनगढ़ घरानों में विकसित हुई चित्रकला मारवाङ शैली के नाम से पुकारी जाती है।
⇒ मारवाङ शैली का पूर्व रूप मण्डोर के द्वार की कला से आँका जा सकता हैं।
⇒ जोधपुर की स्वतन्त्र शैली का प्रादुर्भाव राव मालदेव के समय हुआ।

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⇒ राव मालदेव के शासन काल में जोधपुर के राजमहल में (चौखले महल) जो चित्र बनाये गए, वे मार्शल टाइप के है। इन चित्रों का मूल उद्देश्य प्राचीन पौराणिक गाथाओं से सम्बन्धित हुआ करता था।
⇒ अरावली पर्वतमालाओं के पश्चिम में स्थित इस विशाल भू-भाग में 10वीं से 15 वीं सदी तक कलात्मक गतिविधियों का समुचित रूप से विकास हुआ। पाली के वीर विट्ठलदास चम्पावत के सन् 1623 में चित्रित रागमाला के चित्र इस शैली के प्रारम्भिक चित्र माने जाते हैं। जोधपुर के राजा अजीतसिंह के काल में (1707 व उसके बाद) बने इस शैली के चित्र जो रसिकप्रिया, गीत-गोविन्द तथा दरबार व आखेट दृश्यों पर आधारित हैं, अत्यधिक सुन्दर एवं सजीव हैं।

⇒ महाराजा मानसिंह (1803 ई. के बाद) का काल मारवाङ शैली का अन्तिम महत्त्वपूर्ण पङाव था जब इस शैली के कुछ महत्त्वपूर्ण चित्र निर्मित हुए। इस शैली की पुरुष तथा नारी आकृतियाँ लम्बी तडंगी हैं। पुरुष लम्बे-चैङे, दाढ़ी मूँछ वाले हैं जिन्हें सफेद रंग का गोल जामा पहने दिखाया गया है। तुर्रा, कलंगी, मोती की माला तथा ढाल, तलवार द्वारा उन्हें पौरुष व सम्पन्नता का प्रतीक बताया गया है।

⇒ स्त्रियों के केश नितम्बों तक लहराते हुए, लम्बे व पतले हाथ दर्शाए गए हैं। लहँगा, कांचङी, लूगङी, चूङीदार पाजामा आदि उनके वस्त्र एवं परिधान के रूप में थे। नीले, केसरिया, कंसूबल तथा लाल-पीले रंगों के वस्त्रों से इन चित्रों की शोभा बढ़ाई गई है। पृष्ठभूमि में आम के वृक्ष, बादल एवं चमकती हुई विद्युत को दर्शाया गया है। प्रमुख चित्रकार- बीरजी, नारायणदा, अमरदास, किशनदास, शिवदास तथा जीतमल आदि हैं।
⇒ जोधपुर शैली के चित्रों में मरु के टीले, छोटे-छोटे झाङ एवं पौधे, हिरण, ऊँट, कौवे, घोङ, दरबारी जीवन में राजसी ठाठ आदि का चित्रण इसकी विशेषताएँ हैं।
⇒ ढोला-मारु, उजली-जेठवा, मूमलदे-निहालदे, रूपमति-बाजबहादुर आदि जोधपुर शैली के प्रमुख चित्र हैं।

बीकानेर शैली

⇒ इस शैली का प्रारम्भिक चित्र महाराजा रायसिंह के समय चित्रित भागवत पुराण माना जाता है।
⇒ महाराजा अनूप सिंह के समय इस शैली का सर्वाधिक विकास हुआ।
⇒ बीकानेरी शैली के चित्रों में पीले रंग का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
⇒ बीकानेरी शैली के चित्रों का मूल उद्देश्य भगवत गीता, कृष्ण लीला, रागमाला और बारहमासा के चित्रों का चित्रण करना था।
⇒ बीकानेरी शैली के चित्रण की निजी विशेषता, ऊँट की खाल पर चित्रों का अंकन है।
⇒ बीकानेर के चित्रकार अपने चित्रों पर अपना नाम और तिथि लिख दिया करते थे, परन्तु मेवाङ या मारवाङ के अन्य चित्रकार ऐसा नहीं करते थे।

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⇒ इस चित्रशैली का जन्म यद्यपि महाराजा रायसिंह (1561-1611) के समय हो चुका था तथापि उसका वास्तविक विकास कला उन्नायक महाराजा अनूपसिंह के (1669-98 ई.) समय में हुआ। बीकानेर शैली के चित्रों का प्रमुख विषय यद्यपि पोट्रेट्स (व्यक्ति चित्र), दरबार, आखेट तथा राजसी ठाठ चित्रण ही रहा तथापि मेघदूत, रागमाला, रसिकप्रिया और अन्य शृंगारिक आख्यानों पर आधारित चित्र भी इस शैली में निर्मित हुए।
⇒ फव्वारों, दरबारी सजावट तथा प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से बीकानेर शैली के चित्र दक्षिणी लघुचित्रशैली के निकट बताए जाते हैं। सुप्रसिद्ध कला समीक्षक ’हरमन गोइत्ज’ ने बीकानेर शैली के चित्रों के संरक्षण में पर्याप्त योगदान किया। अपनी पुस्तकें राजपूत पेटिंग्ज में सारस एवं मिथुन चित्रों के संदर्भ में श्री आनन्द कुमार स्वामी ने बीकानेर शैली के चित्रों की पर्याप्त प्रशंसा की है। प्रमुख चित्रकार- रुक्नुद्दीन, रहीम खाँ, नाथू, मुराद, कायम, रामलाल और अलीरजा आदि हैं।

किशनगढ़ शैली

⇒ किशनगढ़ शैली का समृद्ध काल सांवत सिंह के समय से प्रारम्भ हुआ।

⇒ इनके समय में नागरीदास प्रमुख चित्रकार हुए जिन्होंने वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, चित्रकला में रुचि तथा अपनी प्रेयसी बनी-ठणी के अपूर्व प्रेम से प्रेरित अनेक चित्र आकृतियों का निर्माण करवाया।

राजस्थानी चित्रकला

⇒ इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिकिन्सन तथा डाॅ. फैयाज अली को है।
⇒ बनी-ठणी चित्रकारी सांवतसिंह के समय मोरध्वज निहालचन्द द्वारा बनाई गई।
⇒ निहालचन्द अपने चित्रों के नीचे फारसी भाषा में अपना नाम लिख दिया करते थे।
⇒ नुकीली नाक, लम्बा चेहरा, लम्बा कद, सुराहीदार गर्दन, लम्बी उंगलियाँ, पतली कमर, काजल युक्त नयन, खिंचा हुआ वक्षस्थल और पारदर्शी वस्त्रों का अत्यधिक सुन्दर चित्रण इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

⇒ इस शैली में सफेद, गुलाबी व सिंदूरी रंगों में से केले के वृक्ष, झील का दृश्य, हंस, बतख, सारस, बगुला, तैरती हुई नौकाएँ तथा प्रेमालाप करते राधा-कृष्ण का सुन्दर चित्रण किया गया है।
⇒ इस शैली के उद्भव एवं विकास में राजा रूपंिसंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस शैली का श्रेय राजा सावंतसिंह (1699-1764) को जाता है जो एक कवि हृदय एवं रसिकयोगी होने के कारण नागरीदास नाम से प्रसिद्ध हुए। इस शैली की प्रमुख नायिका ’बणी-ठणी’ है जिसके लुभावने चित्र हैं जो इस शैली की जान है। किशनगढ़ शैली के चित्रकारों में अमीरचंद, धन्ना, भंवरलाल, सुरध्वज, मोरध्वज और निहालचंद के नाम प्रमुख हैं।

⇒ इस शैली के चित्रों में नारी की आकृति में सहज रूप लावण्य, कजरारी आँखों, विस्तृत केशराशि, लम्बी नाक, पंखुङियों के समान अधर तथा विकसित वक्ष प्रदेश की प्रधानता है। पुरुष आकृतियाँ छरहरी, पेचबंधी पगङी व मणिमालाएं पहने, उन्नत भाल दर्शाए गए हैं जो पौरुष के प्रतीक हैं।

⇒ सफेद एवं गुलाबी रंगों के मिश्रण से बनी आकर्षक रंग योजना, गहरे नीले एवं लाल रंग की प्रधानता इस शैली के चित्रों को अतिरिक्त शोभा प्रदान करती है। इस शैली के चित्र यद्यपि अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं है तथापि जितने भी चित्र उपलब्ध हैं वे कला की दृष्टि से अत्यधिक उन्नत हैं तथा प्रबुद्ध दर्शकों को अलौकिक जगत् में ले जाने की क्षमता रखते हैं।

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राजस्थान के चित्रकला संग्रहालय
नामस्थान
पोथी खानाजयपुर
पुस्तक प्रकाशजोधपुर
सरस्वती भंडारउदयपुर
जैन भंडारजैसलमेर
चित्रशालाबूँदी
माधोसिंह संग्रहालयकोटा
अलवर संग्रहालयअलवर

बूँदी शैली

⇒ बूँदी शैली का सर्वाधिक विकास राव सुर्जन सिंह के समय हुआ।
⇒ बूँदी के चित्रों में नुकीली नाक, मोटे गाल, छोटा कद और लाल पीले रंग का प्रयोग स्थानीय विशेषतायें लिये हुए हैं, वहीं गुँबज का प्रयोग तथा बारीक वस्त्र मुगल प्रभाव के द्योतक है।
⇒ बूँदी के चित्रों में कृष्ण लीला, रामलीला, बारहमासा, शिकार, दरबार, तीज त्यौहार, हाथियों की लङाई, घुङदौङ, रागरंग, पशु-पक्षी, फल-फूल, वृक्ष आदि का चित्रण किया हुआ है।
⇒ बूँदी शैली में चित्रित नारी के चित्रों में, नेत्रों के ऊपर एवं नीचे की रेखा दोनों समानान्तर रूप में आपस में मिलती हैं जो इसकी विशेषताएँ हैं।
⇒ महाराव उम्मेद सिंह के शासन में निर्मित चित्रशाला (रंगीन चित्र) बूँदी चित्र शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है।

कोटा शैली

⇒ कोटा शैली का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करने का श्रेय महारावल रामसिंह को है।
⇒ कोटा शैली पर वल्लभ समप्रदाय का पूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
⇒ कोटा शैली के चित्रों में दरबारी दृश्य, जुलूस, कृष्ण लीला, बारहमासा, राग रागिनियाँ, युद्ध, शिकार आदि के दृश्य प्रमुख हैं।

⇒ कोटा शैली में दुर्जनशाल के उत्तराधिकारी शत्रुशाल के समय भागवत का लघु ग्रन्थ चित्रित हुआ।
⇒ अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के संधिकाल में कोटा की लघुचित्रकला ने विशेष उन्नति की। इस समय उसे महाराज छत्रसाल एवं महाराजा रामसिंह का संरक्षण मिला। राजा महाराजाओं के पोट्रेट्स (व्यक्ति-चित्र) युद्ध दर्शन, आखेट, धार्मिक प्रसंगों, दरबारी दृश्यों, जुलूसों, आदि विषयों के चित्रांकन के साथ ही रागमाला, बारहमासा तथा श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं पर भी कोटा शैली के सिद्धहस्त चित्रकारों ने अपनी कलम का जादू फेरा। लाल, पीले, नीले, हरे और सफेद रंगों की सुहानी रंग योजना से अपने चित्रों को सजाने वाले चित्रकारों ने कोटा शैली को एक खास पहचान दी है।

जयपुर शैली

⇒ जयपुर, शेखावाटी और अलवर का अधिकतर भाग ढूँढाङ प्रदेश के नाम से जाना जाता था।
⇒ मुगलों के निकट सम्बन्ध के कारण उसका जयपुर शैली पर सर्वाधिक प्रभाव रहा है।
⇒ जयसिंह के पुत्र ईश्वरी सिंह ने ईसरलाट का निर्माण करवाया तथा साहिबराम नामक चित्रकार द्वारा ईश्वरी सिंह का आदमकद चित्र बनाया गया।

⇒ राजा सवाई प्रतापसिंह के शासन के दौरान महाभारत, रामायण, कृष्ण लीला, गीत गोविन्द एवं कामसूत्र पर चित्र बनाये गये।
⇒ जयपुर लघु चित्रशैली का उद्भव एवं विकास सन् 1700 से सन् 1900 तक की अवधि में माना जाता है। इस शैली की कला को सवाई जयसिंह प्रथम (1699-1743) के राज्यकाल में विशेष संरक्षण एवं प्रश्रय प्राप्त हुआ। महाराजा सवाई प्रतापसिंह (1779-1803) का समय जयपुर शैली के उत्कर्ष का दूसरा काल था जब राजाओं के शबीहों (व्यक्ति चित्रों) के साथ-साथ रागमाला, श्रीमद्भागवत् तथा दुर्गा सप्तशती आदि पर आधारित इस शैली के विशिष्ट चित्र बने।

वात्सायन के कामसूत्र तथा गीत गोविन्द पर आधारित अनेक चित्र इस शैली में बने। प्रमुख चित्रकार – मुहम्मदशाह, गोविन्द, घासी, साहिबराम, लाल चितारा, रामजीदास, सालिगराम, त्रिलोक और रघुनाथ हैं।

आमेर शैली

⇒ कछवाहा राजपूतों की राजधानी आमेर को अम्बावती नगरी कहा जाता था।
⇒ आमेर चित्रशैली पर मुगल शैली का प्रभाव स्पष्ट झलकता है।
⇒ आमेर चित्रशैली में कृष्ण लीला, लैला-मजनूं, हाथी, घोङे, कुश्ती दंगल आदि से सम्बन्धित चित्र बने हैं।

अलवर शैली

⇒ अलवर चित्रशैली के चित्रों में राजपूती वैभव, कृष्णलीला, रामलीला, प्राकृतिक परिवेश, राग रागिनी आदि का चित्रण हुआ है।
⇒ अलवर शैली, जयपुर और दिल्ली शैली के मिश्रण से बनी है।
⇒ यह शैली अपना मौलिक स्वरूप राव राजा बख्तावर सिंह एवं विनय सिंह के समय पा सकी।
⇒ इस शैली के चित्रों में वन, उपवन, कुंज, विहार, महल आदि का चित्राकंन प्रमुख रूप से हुआ है।

⇒ अलवर चित्रशैली का आरम्भ राजा प्रतापसिंह (1775) के समय में हुआ। उनके पुत्र महाराज बख्तावर सिंह को कला की उन्नति के लिए समय नहीं मिला। बख्तावर सिंह को कला की उन्नति के लिए समय नहीं मिला। बख्तावर सिंह के बाद अलवर के राजाओं में महाराजा विनयसिंह कला के सर्वाधिक प्रेमी थे। उनके समय में अलवर की लघुचित्रशैली ने आशातीत उन्नति की। उन्होंने अपने दरबार में कलाकारों व शिल्पकारों को पूर्ण सुरक्षा के साथ रखा।

उन्होंने महात्मा शेखसादी के ग्रन्थ गुलिस्तां की पांडुलिपि को गुलामअली व बलदेव नामक चित्रकारों से चित्रित करवाया। विनयसिंह के पश्चात् महाराज बलवंत सिंह कला के विशेष प्रेमी हुए। उन्होंने ’चंडी पाठ’ पांडुलिपि का चित्रांकन करवाया। इस शैली के प्रमुख चित्रकार – गुलाम अली, बलदेव, डालचंद, सालिगराम, बुद्धा, नानक, जगन्नाथ, रामगोपाल, रामसहाय, विष्णु प्रसाद, जमनादास, छोटेलाल और बालेशाम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

अजमेर चित्रशैली

⇒ राजस्थान की विश्वविख्यात लघु चित्रशैलियों में अजमेर शैली का स्थान उल्लेखनीय है। अजमेर लघुचित्रशैली की यह अन्यतम विशेषता है कि वह राजकीय संरक्षण में पलने के साथ-साथ आम आदमी के सहयोग से विकसित हुई। राजमहल के साथ-साथ गरीब की झोपङी तक में इस शैली की उल्लेखनीय कृतियों का निर्माण हुआ। इस शैली को विभिन्न धर्मावलम्बियों ने अपनाया और पल्लवित किया। अजमेर लघु चित्रशैली की पहचान उसमें चित्रित आकर्षक, सुडौल, कोमलांगी सुन्दर महिलाएं तथा लम्बे तगङे, वीरोचित गुणों से युक्त शोभाशाली पुरुष हैं।

महिलाओं के नेत्र सुन्दर एवं सुघङ दिखाये गये हैं जो बीकानेर चित्रशैली की महिलाओं से मेल खाते हैं। उनके लम्बे, घने व काले बाल कटि प्रदेश तक पहुँचे हुए हैं। नारियों के हाथ लम्बे, अंगुलियाँ पैनी व कलात्मक हैं। हाथों पर मेहंदी रची हुई है। उनके वस्त्राभूषण आकर्षक हैं। महिलाओं को लहँगा, बसेङा, कंचुकी और लुगङी आदि वस्त्र पहने दिखाया गया है।

⇒ इस लघुचित्रशैली के चित्रों में पुरुषों की आँख गोलाकार, जुल्फें लम्बी, मूँछें बांकी अथवा छल्लेदार होती हैं। इनके चेहरों पर दाढ़ी बहुत कम दिखाई गई है। कमरबंद व पायजामे के साथ पुरुषों को जरी का जामा पहने तथा मुगल अथवा राठौङी पगङी पहने दिखाया गया है।

आभूषणों में तुर्रा- कलंगी, सरपंच के साथ मोतियों का हार पहनाया गया है। ये वीर पुरुष कमर में कटार कसे या हाथ में तलवार लिए हैं। इनके पैरों में मोचङी है। प्रमुख चित्रकार – चाँद तैयब नवला, रायसिंह भाटी, लालजी भाटी, नारायण भाटी और रामा के अलावा एक महिला चित्रकार साहिबा के नाम उल्लेखनीय हैं।

विभिन्न शैलियों के कलाकार
शैलियां कलाकार
1. किशनगढ़ शैलीनिहालचन्द, अमीरचन्द, धन्ना व छोटू
2. मारवाङ शैलीभाटी देवदास, भाटी शिवदास, भाटी किशनदास
3. नाथद्वारा शैलीखूबीराम, घासीराम, रेवाशंकर व पुरुषोत्तम
4. मेवाङ शैलीगंगाराम, भैंरोराम, कृपाराम, साहिबदीन, मनोहर व नासिरुद्दीन
5. अलवर शैलीगुलाम अली, सालिगराम, नन्दराम, बलदेव, जुमनादास, डालचन्द व छोटे लाल
6. बूँदी शैलीरामलाल, अहमद अली, श्रीकृष्ण व सुरजन
7. जयपुर शैलीसालिगराम, लक्ष्मणराम व साहबराम
8. कोटा शैलीगोविन्द, लक्ष्मीनारायण, लालचन्द व रघुनाथ दास
9. बीकानेर शैलीमथरेणा परिवार व उस्ता परिवार।

राजस्थान के लोकगीत 

राजस्थान के रीति-रिवाज

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