Rao Chandrasen – मारवाङ के राव चंद्रसेन || Rajasthan History

आज के आर्टिकल में ’मारवाङ के राव चंद्रसेन’ (Rao Chandrasen in hindi) के बारे में पढ़ेंगे। इन्हें महाराणा प्रताप का अग्रगामी कहा जाता है। इनसे सम्बन्धित कुछ प्रश्न परीक्षा में हमेशा पूछे जाते है।

मारवाङ के राव चंद्रसेन (1562-1581 ई.)

राव चन्द्रसेन
राव चन्द्रसेन

🔸 7 नवम्बर 1562 ई. को मारवाङ के राव मालदेव की मृत्यु हो गयी। उसके मरते ही मारवाङ में गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। मालदेव ने रानी स्वरूपदे के कहने पर अपने जीवनकाल में ही अपने बङे पुत्र राम को निर्वासित कर दिया था। राम इस समय अपनी ससुराल मेवाङ में रह रहा था। मालदेव ने अपने द्वितीय पुत्र उदयसिंह को राज्याधिकार को राज्याधिकार से वंचित घोषित कर, फलौदी की जागीर दे दी थी। चंद्रसेन मालदेव का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। फिर भी मालदेव ने ज्येष्ठता के नियम का उल्लंघन कर चंद्रसेन (Rao Chandrasen) को उत्तराधिकारी घोषित किया था। ऐसी स्थिति में सत्ता हेतु संघर्ष स्वाभाविक था।

🔹 दिल्ली में मुगलों की सत्ता पुर्नस्थापित हो चुकी थी। हुमायूँ को अल्प राज्यकाल के बाद अकबर का राज्यारोहण हो चुका था। उसने राज्य विस्तार की नीति अपनायी। इसके लिए उसकी प्राथमिकता क्रम में राजपूत राज्य सर्वप्रथम थे। अतः उसने सर्वप्रथम राजस्थान से अफगानों को खदेङ कर मुगल थाने स्थापित कर दिये।

🔸 इन बदलती हुई परिस्थितियों में मालदेव की मृत्यु हुई। इस समय चंद्रसेन अपनी जागीर सिवाणा में था। लेकिन सामंतों के विरोध के कारण उसका राज्यारोहण 31 दिसम्बर 1562 ई. को हो सका। इस अशांति का लाभ उठाकर मुगल सेनापति मीरजहाँ ने जालौर पर अधिकार कर लिया।

🔹 राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen) का भाई राम अब भी उपद्रव कर रहा था। राव चंद्रसेन ने उसके विरुद्ध एक सेना भेजी। जिसने राम को नाडौल के युद्ध में बुरी तरह हराया। राम भागकर अजमेर के मुगल सूबेदार की शरण में जा पहुँचा। सूबेदार हुसैन कुली खाँ राम की सहायतार्थ सेना लेकर मारवाङ में आ पहुँचा। लेकिन मारवाङ के सरदारों ने चंद्रसेन को समझकार दोनों भाइयों में संधि करवा दी।

राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen of Marwar in Hindi)

🔸 जिसके अनुसार राम को ’सोजत’ परगना जागीर में दे दिया गया। लेकिन राम इससे संतुष्ट नहीं हुआ। वह एक वर्ष बाद ही अकबर की शरण में जा पहुँचा। उसने अकबर की अधीनता स्वीकार करते हुए सहायता देने की प्रार्थना की।

🔹 अकबर मेङता तथा नागौर तो पहले ही जीत चुका था। अब वह जोधपुर जीतकर मारवाङ की विजय पूर्ण कर लेना चाहता था।

🔸 मारवाङ की आंतरिक फूट का लाभ उठाने के लिए अकबर ने हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व में एक सेना जोधपुर पर आक्रमण के लिए भेज दी।

🔹 काफी समय तक घेरा चलने के कारण किले में रसद की कमी हो गयी। अतः चंद्रसेन (Rao Chandrasen) ने किला छोङ दिया तथा भाद्राजून चला गया। किले पर मुगलों का अधिकार हो गया।

🔸 1570 ई. तक संपूर्ण उत्तरी भारत मुगल परचम के अधीन हो चुका था। राजस्थान में नागौर, मेङता, अजमेर तथा आमेर राज्य पहले ही मुगल अधीनता में आ चुके थे। 1568 ई. में चित्तौङ तथा 1569 ई. में रणथंभौर पर भी अकबर का अधिकार हो गया।

🔹 1570 ई. में अकबर अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करने आया। इसके बाद वह विश्राम हेतु नागौर आ पहुँचा।

🔸 बीकानेर का राव कल्याणमल अपने पुत्र रायसिंह के साथ नागौर आया तथा उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।

राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen)

🔹 जैसलमेर के रावल हरराय ने भी उपस्थित होकर अधीनता स्वीकार कर ली। यही नहीं इन दोनों शासकों ने अकबर से वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिए।

🔸 राव चंद्रसेन भी मारवाङ का राज्य पुनः पा लेने की आशा में अकबर से भेंट करने आ पहुँचा। राव चंद्रसेन के भाई राम तथा उदयसिंह भी वहाँ उपस्थित थे।

🔹 चंद्रसेन यह भी समझ गया कि अकबर राजपूतों के आपसी झगङों का लाभ उठाना चाहता है। अतः वह अपने पुत्र को वहीं छोङ भाग निकला तथा भाद्राजून आ पहुँचा।

🔸 दूसरी ओर राव चंद्रसेन के इस आचरण से क्रोधित अकबर ने अजमेर के सूबेदार खाने कलाँ को सेना सहित भाद्राजून पर आक्रमण के लिए भेज दिया।

🔹 राव चंद्रसेन इस समय मुगल सेना से संघर्ष की स्थिति में नहीं था। अतः वह मुगल घेरे से बच निकला तथा सिवाणा के दुर्ग में चला गया। सिवाणा में रहते हुए चार वर्षों की अवधि में राव चंद्रसेन ने लगातार जैतारण तथा अजमेर के मुगल सूबों को लूटा।

🔸 मुगल सम्राट अकबर इस समय मेवाङ तथा गुजरात के विजय अभियान में व्यस्त था। अकबर ने दिल्ली से मालवा गुजरात के मार्ग को महाराणा प्रताप तथा राव चंद्रसेन से सुरक्षित रखने के लिए 30 अक्टूबर 1572 ई. में बीकानेर के शासक रायसिंह को जोधपुर का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

🔹 भाद्राजून (वर्तमान में जालोर जिले में) मुगल हाथों में चले जाने के पश्चात् सिवाणा चंद्रसेन की राजधानी बन गया।

राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen)

🔸 सिवाणा (वर्तमान में बाङमेर जिले में) दुर्गम पहाङी तथा वन्य क्षेत्र में स्थित मजबूत किला था। स्वाधीनता प्रेमी चंद्रसेन (Rao Chandrasen) ने इसे केन्द्र बना कर मुगल क्षेत्रों को लगातार लूटा। यह सूचना पाकर अकबर ने मार्च 1574 ई. में बीकानेर के महाराजा रायसिंह, शाहकुली खाँ मरहम, केशोदास मेङतिया, तैयब खाँ आदि के अधीन विशाल सेना सिवाणा विजय हेतु भेजी।

🔹 इस सेना ने सर्वप्रथम सोजत पर आक्रमण किया। यहाँ का शासक राम का पुत्र कल्ला था। कल्ला की पराजय हुई, उसे समर्पण करना पङा। सोजत पर मुगल अधिकार हो गया।

🔸 इस समय राव चंद्रसेन मारवाङ छोङकर मेवाङ में था। पोकरण में राव चंद्रसेन की ओर से आनंदराम पंचोली किलेदार था। जैसलमेर के रावल हरराय ने पोकरण हथियाने का यह अच्छा अवसर मानकर 1576 ई. में पोकरण पर आक्रमण कर दिया।

🔹 चार महीने के घेरे के बाद भी कोई हल नहीं निकलता देख दोनों पक्षों के बीच संधिवार्ता आरंभ हो गयी। संधि के अनुसार जैसलमेर के शासक राव चंद्रसेन को ’एक लाख फदिये’ कर्ज देंगे। बदले में पोकरण भाटी शासकों को मिलेगा। किंतु कर्जा चुका देने पर पोकरण राव चंद्रसेन को दे दिया जाएगा।

🔸 सिवाणा पर मुगल अधिकार के पश्चात् मुगलों के बढ़ते दबाव के कारण राव चंद्रसेन मेवाङ चला गया। कुछ समय बाद वह सिरोही चला गया तथा वहाँ डेढ़ वर्ष तक रहा।

🔹 यहाँ से वह सहायता प्राप्ति की आशा में डूंगरपुर राज्य में चला गया। लेकिन मुगलों के आ पहुँचने के कारण उसे यहाँ से भी भागना पङा। वह कुछ समय बांसवाङा रहकर अजमेर चला गया।

राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen)

🔸 अकबर द्वारा सोजत खालसा कर लेने से क्रोधित राठौङ सरदारों ने मारवाङ की रक्षा हेतु राव चंद्रसेन को निमंत्रण भेजा। निमंत्रण पाकर राव चंद्रसेन ने सोजत के पास डेरा डाल दिया।

🔹 राव चंद्रसेन ने जुलाई 1579 ई. को सोजत पर अधिकार कर लिया। इस विजय के बाद राव चंद्रसेन ने अधिक तेजी से अजमेर सूबे में आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया।

🔸 यह सूचना पाकर 1580 ई. में उसके विरुद्ध एक मुगल सेना भेजी गयी। चंद्रसेन यह सूचना पाकर ’सारण’ के पहाङों में चला गया। सारण के पहाङों में राव चंद्रसेन के पक्ष में मारवाङ के लगभग सभी राठौङ सरदार आ पहुँचे। लेकिन राठौङ बैरीसल नहीं आया। अतः उसे दंडित करने के लिए राव चंद्रसेन उसकी जागीर दूदांङा पर आक्रमण के लिए चल पङा। लेकिन राठौङ आसकरण ने दोनों पक्षों में समझौता करवा दिया।

🔹 राठौङ बैरीसल के आग्रह पर राव चंद्रसेन ने उसके यहाँ भोजन किया। वहाँ से लौटते ही ’सारण’ में 11 जनवरी, 1581 ई. को राव चंद्रसेन की मृत्यु हो गयी। अनुमान है कि उसकी मृत्यु विष देेने से हुई थी।

🔸 राव चंद्रसेन (Rao Chandrasen) ने जिस स्वतंत्रता की ज्योति को प्रज्वलित किया, उसे महाराणा प्रताप ने भी प्रज्वलित रखा। इसे जलाले अकबरी भी नहीं बुझा सकी। इस दृष्टि से रावचंद्रसेन को ’महाराणा प्रताप का अग्रगामी’ कहना उचित ही होगा।

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