आज के आर्टिकल में हम संवेग क्या है , संवेग का अर्थ , संवेगों की विशेषताएँ और सभी अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास को अच्छे से समझेंगे ।
संवेगात्मक विकास – EMOTIONAL DEVELOPMENT
संवेगों का मानव जीवन में बङा महत्त्व है। यह मान्यता है कि संवेग मानव व्यवहार के प्रेरक होते हैं। यह ठीक है कि व्यक्ति का व्यवहार अपने बौद्धिक विकास पर आधारित होता है, किन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जबकि संवेग (samveg) व्यक्ति के चिन्तन एवं व्यवहार को अत्यधिक प्रभावित करते हैं।
⇒ संवेगों के प्रभाव में आकर व्यक्ति के चिन्तन एवं व्यवहार को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। संवेगों के प्रभाव में आकर व्यक्ति तात्कालिक रुचियों और इच्छाओं पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है और दूरगामी लक्षणों की अवहेलना कर बैठता है। इस प्रकार संवेग कभी तो बालक को कार्य करने की प्रेरणा देते हैं और कभी कार्य करने में बाधक बन जाते हैं।
संवेगों का बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर प्रभाव पङता है। तीव्र संवेग मानसिक तनाव पैदा करके बालकों के ध्यान को भंग कर देते हैं और बालक दत्तचित्त होकर अध्ययन करने में असफल रहता है। संवेग बालक के सामाजिक समायोजन पर भी प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी बालक के कुसमायोजन के लिए संवेगों का प्रभाव उत्तरदायी होता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर ध्यान दिया जाए।
संवेग का अर्थ – MEANING OF EMOTION
संवेग को अंग्रेजी भाषा में ’इमोशन’ (Emotion) कहते हैं। ’मोशन’ शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के ’इमोवरी’ (Emovere) शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- ’उत्तेजित करना’। इस विश्लेषण के अनुसार व्यक्ति की ’उत्तेजित अवस्था’ को संवेग कहा जा सकता है। वुडवर्थ ने संवेग की व्याख्या करते हुए लिखा है कि व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था को संवेग कहते हैं कि आलोचकों का मत है कि सभी संवेगों में भाव उत्तेजित नहीं होते हैं।
वुडवर्थ के समान ही आर्थर टी. जर्सील्ड ने संवेग के बारे में लिखा है-’’संवेग शब्द आवेश में आने, भङक उठने तथा उत्तेजित होने की दशा को इंगित करता है।’’
“The term ‘emotion’ denotes a state of being moved, stirred up or aroused in some way.” – Arthur T. Jersild
इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मत है कि यह आवश्यक नहीं है कि सभी संवेगों के भाव उत्तेजित हों। इस दृष्टिकोण के आधार पर हरलाॅक ने संवेग के बारे में लिखा है कि संवेग एक व्यापक शब्द है जिसमें उत्तेजित मनोदशाएँ और शान्तिमय सन्तुष्टि-दोनों सम्मिलित हैं।’’
क्रो और क्रो ने संवेग को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ’’संवेग एक प्रभावशाली अनुभव है जिसके साथ आन्तरिक समायोजन और व्यक्ति की मानसिक एवं शारीरिक उत्तेजित दशा जुङी रहती है और जो उसके बाहरी व्यवहार में परिलक्षित होती है।’’
“An emotion is an affective experience the accompanies generalized inner adjustment and mental and physiological stirred up states in the individual and that shows itself in his over behaviour -Crow & Crow.
इससे स्पष्ट है कि संवेग एक गत्यात्मक आन्तरिक समायोजन है जो व्यक्ति के सन्तोष, रक्षा एवं भलाई के लिए क्रियाशील रहता है।
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संवेगों की विशेषताएँ – CHARACTERISTICS OF EMOTIONS
संवेग जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव-जीवन में प्रकट होते रहते हैं। संवेगों के साथ शारीरिक परिवर्तन सम्बन्धित रहते हैं। जैसे क्रोध आने पर चेहरे पर तनाव हो जाता है और आँखें लाल हो जाती है। संवेगों का मूल-प्रवृत्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। संवेग के प्रभाव से अनेक कार्य स्वचालित रूप में होने लगते हैं, उदाहरण के लिए, जंगल में शेर को देखकर भय का संवेग पैदा होता है और भय के संचार से व्यक्ति भागने लगता है।
संवेग व्यक्तित्व विभिन्नताओं के आधार पर वैयक्तिक होते हैं। संवेग बार-बार प्रकट होते हैं। संवेग का प्रभाव शरीर पर संवेग की समाप्ति के बाद भी बिना रहता है। संवेग के परिणामस्वरूप व्यक्ति ऐसे कार्य कर डालता है जिनकी उससे आशा नहीं की जा सकती है।
संवेगों की उत्पत्ति – AROUSAL OF EMOTIONS
संवेगों की उत्पत्ति के लिए अनेक दशाएँ उत्तरदायी होती हैं। जब हमारी इच्छाओं, लक्ष्यों या आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई बाधा पैदा होता है तो उससे उद्दीपकों का निर्माण होता है जो संवेगों को जाग्रत करते हैं। संवेगों की उत्पत्ति बाह्य एवं आन्तरिक दोनों कारणों से होती है।
एक उद्दीपक एक समय पर दो संवेगों को पैदा नहीं कर सकता है। उसके द्वारा एक समय में एक ही संवेग पैदा किया जायेगा, किन्तु वही उद्दीपक भिन्न समय या परिस्थितियों में भिन्न संवेग को जन्म दे सकता है। यहाँ तक कि इसके द्वारा दूसरी परिस्थिति में पहले संवेग का विपरीत संवेग भी पैदा किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, शरीर पर हाथ फेरने से एक समय प्रेम या स्नेह का संवेग पैदा हो सकता है किन्तु भिन्न परिस्थितियों में यही क्रियामय, क्रोध या घृणा को जन्म दे सकती है।
सांवेगिक प्रतिक्रिया की गहनता और अवधि व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक दशा एवं उद्दीपक की शक्ति पर निर्भर रहती है। यदि उद्दीपक लम्बी अवधि तक रहता है तो संवेग भी लम्बी अवधि तक विद्यमान रहेगा। व्यक्ति की रुचि और योग्यता वृद्धि के साथ संवेगों को उद्दीप्त करने वाली परिस्थितियाँ भी परिवर्तित होती रहती है।
उदाहरण के लिए, शैशवावस्था में शरीर को कष्ट या सुविधा देने वाली परिस्थितियाँ ही उद्दीपन कार्य करती हैं किन्तु आयु में वृद्धि के साथ कार्य-क्षेत्र में वृद्धि होती है। अतएव उद्दीपक एवं संवेग दोनों में ही वृद्धि होना स्वाभाविक है।
ब्रिग्स(Bridges) के अनुसार संवेगात्मक विकास
समय | संवेग |
जन्म के समय | उत्तेजना |
3 माह | उत्तेजना,आनंद,कष्ट |
6 माह | उत्तेजना,आनंद,कष्ट,भय ,घृणा , क्रोध |
12 माह | उत्तेजना,आनंद,कष्ट,भय ,घृणा , क्रोध,उल्लास ,प्रेम |
18 माह | उत्तेजना,आनंद,कष्ट,भय ,घृणा , क्रोध,उल्लास ,प्रेम,ईर्ष्या |
24 माह | उत्तेजना,आनंद,कष्ट,भय ,घृणा , क्रोध,उल्लास ,प्रेम,ईर्ष्या,हर्ष |
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास – EMOTIONAL DEVELOPMENT IN INFANCY
मनोवैज्ञानिकों में इस बात पर मतभेद है कि जन्म के समय शिशु में संवेगों का विकास होता है। सुसेन आइजेक, वाटसन आदि मनोवैज्ञानिकों का मत है कि नवजात शिशु में भय, क्रोध, स्नेह आदि संवेग प्रारम्भ से ही पाये जाते हैं। शर्मेन ने परीक्षण के आधार पर अपना मत प्रकट किया कि नवजात शिशु दो संवेग-दुःख और सुख का अनुभव करता है।
इसके विपरीत कुछ मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि नवजात शिशु में संवेगों का अभाव होता है। ब्रजेज के अनुसार, नवजात शिशु के संवेग उत्तेजना के रूप में रहते हैं और आयु में वृद्धि के साथ वे विकसित होते हैं।
हरलाॅक का भी यह मत है कि जन्म के समय नवजात शिशु की संवेगात्मक अवस्थाएँ इतनी स्पष्ट नहीं होतीं कि उनको विशिष्ट संवेगों के रूप में देखा जा सके। छः माह की आयु में बालक के चेहरे को देखकर भय और क्रोध के संवेग में अन्तर किया जा सकता है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दो वर्ष की आयु तक शिशु में लगभग सभी संवेग पैदा हो जाते हैं। वैसे शिशु जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति रोने, चिल्लाने अथवा हाथ-पैर फेंकने के द्वारा करता है, किन्तु आयु में वृद्धि के साथ तीव्रता में कमी होती जाती है।
शिशु के संवेगात्मक विकास में आयु में वृद्धि के साथ धीरे-धीरे परिवर्तन आता जाता है। उदाहरण के लिए, 4 माह का शिशु अपनी प्रसन्नता हँसकर व्यक्त करता है।
शैशवावस्था में विभिन्न संवेगों का विकास इस प्रकार होता है-
क्रोध –
शैशवावस्था में क्रोध एक सामान्य संवेग माना जाता है। क्रोध का संवेग दूसरों के ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करने तथा अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए शिशुओं का एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र है। इसके साथ ही खेल या अन्य क्रियाओं में बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध की अभिव्यक्ति शिशु के द्वारा होती है।
बिकूनस के अनुसार 9 माह के शिशु में क्रोध उस दशा में उत्पन्न होता है जबकि उसकी इच्छानुसार कार्य नहीं हो पाता है। जीनस के अनुसार 16 माह से लेकर 3 वर्ष की आयु तक के शिशुओं में क्रोध की उत्पत्ति के लिए अनेक परिस्थितियाँ उत्तरदायी होती हैं।
3 वर्ष की आयु से शिशु क्रोध को अनेक ढंगों से प्रकट करने लगता है, उदाहरण के लिए, क्रोध आने पर शिशु वस्त्र फाङकर, बाल खींचकर, काटकर अपने क्रोध को प्रकट करता है। जरसील्ड तथा मार्के के अध्ययन से पता चला कि अनेक सामाजिक कारण भी क्रोध की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी होते हैं।
उदाहरण के लिए, जिन बालकों को खेलने के लिए स्थान का अभाव होता है तो वे क्रोधित होकर आक्रामक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। शिशु में क्रोध का आदेश क्षणिक होता है, किन्तु इसका रूप भयानक होता है।
भय –
शिशुओं में भय का संवेग जन्म के कुछ दिन बाद ही उत्पन्न होने लगता है। वाटसन के अनुसार जन्म के कुछ सप्ताह बाद शिशु तीव्र ध्वनि से भयभीत होने लगता है। बुहलर तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 5 से 12 सप्ताह की आयु में शिशु अपरिचित व्यक्ति या वस्तु से भयभीत होने लगते हैं। होम्स और स्टर्न के अनुसार, 1 वर्ष से 5 वर्ष की आयु में बालक अँधेरे या एकांकीपन से भयभीत होने लगते हैं।
शैशवावस्था में बालक के भयभीत होने के लिए जानवर भूत-प्रेत, कर्कश स्वर, एकान्त, अपरिचित व्यक्ति एवं वस्तु चित्र, कहानियाँ आदि उत्तरदायी होते हैं।
शिशु अनुकरण द्वारा भयभीत होना सीखते हैं। यदि माता-पिता किसी घटना से भयभीत होते हैं तो उनको देखकर बालक भी भयभीत होना सीख जाते हैं। भय की अवस्था में शिशुओं का व्यवहार बङा विचित्र होता है। भय के कारण बच्चे रोना, पसीना छूटना, ओठ सूखना, चेहरे का पीला पङना तथा भागना आदि चिन्ह प्रकट करते हैं।
आनन्द –
आनन्द या हर्ष का संवेग शिशु के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है। ब्रजेज के अनुसार आनन्द का संवेग 3-4 माह की आयु में शिशु में प्रकट होने लगता है। इस अवस्था के बाद वह मुस्कराना आरम्भ कर देता है। 2 वर्ष की आयु पर शिशु आनन्द की अभिव्यक्ति हँसकर करने लगता है। 3 वर्ष की आयु से खिलौनों के साथ खेलने में वह आनन्द की अनुभूति करता है। आनन्द के संवेग से उत्पन्न व्यवहार हँसने, उछल-कूद करने या जोर से चिल्लाने के रूप में प्रकट होता है।
ईर्ष्या-द्वेष –
इस संवेग का विकास जन्म के बाद 2 से 5 वर्ष के मध्य की आयु में होता है। यदि माता-पिता किसी अन्य बालक को अधिक प्यार करने लगते हैं तो बच्चे में ईर्ष्या पैदा हो जाती है।
स्नेह – ब्रजेज के अनुसार नवजात शिशु में स्नेह का संवेग नहीं होता है। 5-6 माह की अवस्था में वह अपनी माँ के प्रति स्नेह भाव प्रकट करने लगता है। इस अवस्था में स्नेह प्रकट करने के अनेक ढंग होते हैं, जैसे-माँ को देखकर मुस्कराना, शारीरिक हरकत करना, स्तनपान करते समय स्तर पर हाथ फेरना, माँ के कपङे पकङकर खींचना आदि।
शिशु परिचित व्यक्तियों के प्रति भी स्नेह प्रदर्शित करते हैं। 3 वर्ष की आयु में अपने साथी बच्चों के प्रति स्नेह पैदा होता हैै।
बाल्यावस्था में सांवेगिक विकास – EMOTIONAL DEVELOPMENY IN CHILDHOOD
बाल्यावस्था में शारीरिक और मानसिक विकास के साथ ही सांवेगिक विकास में वृद्धि पाई जाती है। अब बालक के संवेग अधिक निश्चित और स्पष्ट हो जाते हैं। किन्तु उसमें शैशवावस्था जैसी प्रचण्डता नहीं रहती है। संवेगों की तीव्रता में ह्रास होने के कारण बालक का व्यवहार भी परिमार्जित होता है।
अब बालक शैशवावस्था की उत्तेजनाओं जैसे कोई सांवेगिक क्रिया नहीं करता है।
इस आयु में संवेगों के प्रचण्ड प्रदर्शन में ह्रास के कुछ कारण इस प्रकार हैं-
(1) बालक में मानसिक विकास के कारण समझ बढ़ जाती है। अब यह उत्तेजना पैदा करने वाली परिस्थितियों के प्रति सचेत हो जाता है।
(2) बालक में भाषा का विकास होने से अब क्रिया की अपेक्षा अपने भावों को भाषा के माध्यम से प्रकट करता है।
(3) बाल्यावस्था में अनेक संवेग बालक को हास्यास्पद बना देते हैं। साथ ही विद्यालय या परिवार के सदस्य उसको संवेगात्मक व्यवहार के लिए ताङना देते रहते है। इन कारणों से बालक अपने संवेगों को छिपाने लगता है, किन्तु संवेगों को छिपाना ठीक नहीं माना जाता है।
बाल्यावस्था में बालक का सामाजिक दायरा विस्तृत हो जाता है। वह अब विद्यालय भी जाने लगता है। इसके साथ ही अपने मौहल्ले या विद्यालय में वह अनेक समूहों का सदस्य बन जाता है। इन समूहों में परस्पर द्वेष और ईर्ष्या पाई जाती है। बालक पर भी द्वेष और ईर्ष्या का प्रभाव देखा जा सकता है।
विद्यालय में बालक के संवेगात्मक विकास पर अध्यापक के व्यवहार तथा विद्याललय एवं कक्षा के वातावरण का भी प्रभाव पङता है। अध्यापकों को बालकों के साथ स्नेहयुक्त व्यवहार करना चाहिये। साथ ही अध्यापकों को बालकों में वांछनीय संवेगों के विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
परिवार या विद्यालय में कठोर अनुशासन बालकों को स्वतन्त्रतापूर्वक संवेगों को अभिव्यक्त करने में बाधा उत्पन्न करता है। ऐसा होने से बालक में अनेक मानसिक ग्रन्थियाँ पैदा हो जाती है जो उसके विकास के लिए बाधक होती है अतएव विद्यालय में स्वतन्त्रतायुक्त वातावरण रखना चाहिये ताकि बालकों को अपने संवेगों की अभिव्यक्ति का अवसर मिल सके।
बाल्यावस्था में कुछ संवेगों का रूप निम्नलिखित प्रकार का रहता है-
क्रोध – पूर्व बाल्यावस्था में क्रोध उत्पन्न करने के लिए अनेक परिस्थितियों उत्तरदायी होती है। अपनी प्रिय वस्तु के छिनने, आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा पैदा होने, परिवार का वातावरण, अन्य बालक द्वारा गाली देने आदि परिस्थितियों के कारण बालकों में क्रोध की अनुभूति होती है। बालक क्रोध को रूठकर, गाली देकर, रोकर, झुँझलाहट के रूप में प्रकट करता है।
10-12 वर्ष की आयु में बालक दूसरों की मजाक बनाकर या टीका-टिप्पणी के द्वारा क्रोध को प्रकट करता है। हरलाॅक के अनुसार, 10-12 वर्ष की आयु में बालक की स्वतन्त्रता में बाधा उत्पन्न होने पर वह क्रोधित होने लगता है।
भय – बाल्यावस्था में परिचय का दायरा बढ़ने के कारण अब अपरिचितों से भयभीत होना बन्द हो जाता है। साथ ही बालक उपहास से बचने के लिए भय के संवेग को छिपाने लगता है। अब भय पैदा करने वाले उद्दीपक असुरक्षा, असफलता, उपहास आदि हो जाते हैं।
ईर्ष्या-द्वेष – 6 वर्ष की अवस्था के बाद ईर्ष्या-द्वेष का संवेग तीव्र रूप में प्रकट होने लगता है। इस अवस्था में ईर्ष्या दूसरे बालकों की अच्छी आर्थिक स्थिति, उत्तम वेशभूषा, अधिक योग्यता या बुद्धि, परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने के कारण होती है।
आत्म-प्रदर्शन की अतृप्ति के कारण भी ईर्ष्या-द्वेष पैदा होता है। ईर्ष्या-द्वेष का भाव परिवार से ही पैदा होता है। परिवार में से ही बालक अपने भाई-बहिनों से ईर्ष्या करने लगता है। विद्यालय में पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने पर बालक अध्यापकों से ईर्ष्या करने लगते हैं।
हर्ष – 6-8 वर्ष की आयु में बालक को सफलता, भ्रमण, खेलकूद, मित्र-मण्डली में मिलने आदि परिस्थितियों में हर्ष का अनुभव होता है। टी. डी. जोन्स के अनुसार 9 वर्ष की आयु के बाद बालक साहस के कार्य करने में आनन्द की अनुभूति करता है। हर्ष प्रकट करने की अभिव्यक्तियों में भी शिष्टता आ जाती है।
प्रेम – बाल्यावस्था में प्रेम समलिंगीय के प्रति होता है। बालक अपने मित्रों के प्रति अधिक स्नेहशील होते हैं। उनकी सहायता करने को तत्पर रहते हैं। विद्यालय में बालक अपनी टोली के सदस्यों के प्रति अधिक प्रेम प्रदर्शित करता है। क्योंकि उसमें सभी सदस्य समन्वय और समरुचि वाले होते हैं।
किशोरावस्था में सांवेगिक विकास – EMOTIONAL DEVELOPMENT IN INFANCY
किशोरावस्था की अवधि 12-13 वर्ष से लेकर 18-19 वर्ष तक मानी जाती है। इस आयु स्तर पर सांवेगिक विकास तीव्र गति से होता है। कौल और ब्रूस का मत है कि किशोरावस्था के आगमन का मुख्य प्रतीक संवेगात्मक विकास में परिवर्तन हैं।
किशोरावस्था में शारीरिक एवं मानसिक विकास भी तीव्र गति से होता है। इसके कारण किशोर समायोजन की समस्या अनुभव करने लगता है, क्योंकि बाल्यावस्था की समायोजन सम्बन्धी विधियाँ इस आयु पर उपयोगी सिद्ध नही होती हैं, इस अवस्था में चिन्तन एवं कार्य करने की पुरानी आदतों को त्याग कर नवीन आदतों को ग्रहण करने की प्रक्रिया के कारण संवेग तीव्र होते हैं।
कोहलेन के अनुसार किशोरों में चिन्ता एवं तनाव कुछ समायोजन की समस्याओं के कारण पैदा होते हैं।
किशोरावस्था में संवेगों को उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में भी परिवर्तन हो जाता है। बहुत-सी बातें जो बाल्यावस्था में उसको आनन्दित करती थीं, वे ही अब उसके क्रोध का कारण बन जाती हैं।
किशोरावस्था में संवेगात्मक स्थिति पैदा करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
प्रतिकूल पारिवारिक सम्बन्ध – अनेक किशोरों के अपने माता-पिता से स्नेहयुक्त सम्बन्ध न होने के कारण अन्तद्र्वन्द्व और अपर्याप्त प्रशिक्षण के परिणामस्वरूप उनमें अनेक अशिष्ट संवेग पैदा होते हैं।
इच्छा-पूर्ति में बाधा – जब अर्थाभाव के कारण किशोर अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता है अथवा अपने साथी को स्वयं से अधिक सम्पन्न देखता है तो उसमें संवेग तनाव के कारण पैदा होता है।
स्वयं की अयोग्यता – अनेक परिस्थितियों में जब किशोर स्वयं को समायोजित करने के अयोग्य पाता है तो वह सांवेगिक अस्थिरता से पीङित हो उठता है।
नवीन वातावरण के साथ समायोजन – परिवार, सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, समुदाय आदि विभिन्न वातावरण के साथ किशोर को समायोजन करना पङता है। वैसे यही परिस्थितियाँ बाल्यावस्था में भी रहती हैं, किन्तु किशोरावस्था में किशोर प्रौढ़ के समान लगता है। अतएव उससे आशा की जाती है कि वह प्रौढ़़ के समान समायोजन करे।
भिन्न लिंग के साथ सामाजिक समायोजन – किशोरावस्था में विषमलिंग के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की भावना पैदा होती है, किन्तु किशोर चिन्तित रहता है। विषमलिंग के साथ क्या और कैसे बात की जाये? उसका व्यवहार कैसा हो? आदि बातें किशोर में उत्तेजना पैदा करती है।
इनके अतिरिक्त विद्यालय में असफलता धार्मिक भ्रम, व्यावसायिक समस्याएँ आदि भी किशोरों में संवेगों को पैदा करती है।
किशोरों में विभिन्न संवेगों के रूप इस प्रकार पाए जाते हैं-
क्रोध – किशोरों में क्रोध पैदा करने वाली परिस्थितियाँ सामाजिक होती हैं। नवकिशोर में क्रोध के संवेग की उत्पत्ति उपहास करने, आलोचना करने, अपमानजनक व्यवहार करने, प्रतिबन्ध लगाने तथा अनुचित दण्ड देने के कारण होती है। नवकिशोर क्रोध की अभिव्यक्ति गाली देकर, निन्दा कर, मजाक उङाकर करता है। ग्रेट्स के अनुसार, उत्तर
किशोरावस्था में क्रोध पैदा होने के दो कारण होते हैं- अनुचित दबाव या कार्य करने की इच्छा में बाधा तथा आदत पङने वाले कार्य में बाधा। किशोरों में क्रोध क्षणिक न होकर लम्बी अवधि तक चलता है।
भय – किशोरों के भय को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) वस्तु एवं पदार्थजन्य भय – इसमें सर्प, कुत्ते, तेज ध्वनि, आग, जल, वायुयान आदि सम्मिलित है।
(2) सामाजिक सम्बन्धों का भय – लोगों से मिलने, निर्दयी, चालाक, महत्त्वपूर्ण टीका-टिप्पणी करने वाले लोगों से मिलने में भय पैदा होता है। एकान्त में, भीङ में भाषण देने में, विषमलिंग के साथ पार्टी में, प्रौढ़ों के समूह में भी किशोर भय का अनुभव करता है।
(3) स्व से सम्बन्धित भय – इसमें निर्धनता, गम्भीर बीमारी, लकवा, बहरापन या अन्धेपन के कारण अक्षमता, विद्यालय में असफलता आदि सम्मिलित हैं, जो भय उत्पन्न करते है।
नवकिशोर में अधिकतर भय का कारण प्रथम वर्ग के उद्दीपक होते हैं। नोबुल एवं लुण्ड के अध्ययन से पता चला कि नवकिशोर के भय का कारण विद्यालय की क्रियाएँ होती हैं। मीन्स (Means) के अनुसार, उत्तर किशोरावस्था में भय के कारण अधिकतर सामाजिक होते हैं। आयु में वृद्धि के साथ भय उत्पादक कारकों की संख्या कम हो जाती है।
चिन्ता – हरलाॅक के अनुसार, चिन्ता एवं प्रकार का भय है वास्तविक कारणों की अपेेक्षा काल्पनिक के द्वारा अधिक पैदा होती है। नवकिशोरों को विद्यालय का काम करने की चिन्ता अधिक रहती है। फ्लीज के अनुसार, 6 में से 5 किशोर परीक्षा में कम अंक आने पर चिन्तित होते हैं।
गैरीसन के अनुसार, नवकिशोर में अपने रूप, लोकप्रियता, विषमलिंग के साथ सम्बन्ध बताने की अक्षमता आदि भी चिन्ता उत्पन्न करने वाले कारण होते हैं। उत्तर किशोरावस्था में विवाह तथा नौकरी की चिन्ता अधिक रहती है।
ईर्ष्या – ईर्ष्या का कारण सदैव सामाजिक होता है। नवकिशोर विद्यालय में अपने उन साथियों से ईर्ष्या करता है जो अधिक अच्छे अंक प्राप्त करते हैं या उच्च स्तर का जीवन व्यतीत करते हैं। ईर्ष्या विषमलिंग के द्वारा अवज्ञा करने पर भी पैदा होती है।
उत्तर किशोरावस्था में किशोर किसी विशेष विषमलिंगी के प्रति अधिक आकर्षित होते हैं। यदि वह किसी अन्य से भी प्रणय लीला में व्यस्त रहे तो किशोर को उससे ईर्ष्या हो जाती है।
हर्ष और आनन्द –
हर्ष या आनन्द प्रदान करने वाली परिस्थितियाँ संख्या में चार हो सकती हैं-
(1) नवीन परिस्थिति में अपनी योग्यता द्वारा समायोजित हो जाने पर हर्ष अनुभव होता है।
(2) वे परिस्थितियाँ भी किशोरों को हर्ष प्रदान करती हैं जिनमें हास्य का पुट होता है।
(3) किशोर उस समय हर्ष अनुभव करता है जब वह पाता है कि उसने गलत विश्लेषण करके व्यर्थ ही चिन्ता या क्रोध पाल लिया था।
(4) वरिष्ठता की भावना भी किशोर को आनन्दित करती है।
स्नेह अथवा प्रेम – किशोरावस्था में विषमलिंगीय प्रेम अधिक होता है। किशोर किशोरियों के प्रति और किशोरी किशोर के प्रति अपने प्रेम-भाव प्रदर्शित करने लगती है। प्रेम प्रदर्शित करने के अनेक ढंग हो सकते हैं।
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक – FACTORS INFLUENCING EMOTIONAL DEVELOPMENT
बालक के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं-
1. स्वास्थ्य- क्रो और क्रो के अनुसार, बालक की सांवेगिक प्रतिक्रियाएँ उसके स्वास्थ्य से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित होती हैं। बीमार की अपेक्षा स्वस्थ बालकों का संवेगात्मक व्यवहार अधिक शिष्ट और स्थिर होता है।
2. परिवार – परिवार का वातावरण बालक के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करता है। यदि माता-पिता परस्पर झगङते रहते हैं तो बालक पर इसका बुरा प्रभाव पङता है। इसी प्रकार यदि परिवार में बालकों की संख्या अधिक है तो भी बालक का संवेगात्मक विकास प्रभावित होता है।
3. सामाजिक स्थिति – बालकों की सामाजिक स्थिति उनके संवेगों के विकास को प्रभावित करती है। क्रो और क्रो का कथन है कि उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों में निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा अधिक सांवेगिक स्थिरता होती है।
4. मानसिक विकास – मानसिक विकास संवेगात्मक व्यवहार को नियंत्रित करता है। जिन बालकों में बौद्धिक विकास अधिक होता है, वे मन्द-बुद्धि बालकों की अपेक्षा अपने संवेगों पर अधिक नियन्त्रण रखने में सफल होते हैं।
5. विद्यालय – परिवार के बाद विद्यालय ही वह दूसरा स्थान है जहाँ बालक के शैक्षिक ज्ञान में वृद्धि होने के साथ-साथ सांवेगिक विकास के लिए भी पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाते हैं। विद्यालय के कार्य में अरुचि या पिछङापन, परीक्षा में असफलता, टोली में कुसमायोजन, सांस्कृतिक कार्यों में भाग लेने में अक्षमता आदि कारण बालक के संवेगात्मक व्यवहार को अस्थिर बना देते हैं। इसके साथ ही अध्यापक का व्यवहार भी बालक को प्रभावित करता है।
संवेगात्मक विकास और शिक्षा
बालक के सन्तुलित विकास में संवेगों का भी प्रभाव पङता है। संवेग व्यक्ति की अभिवृत्ति, जीवन-मूल्य और भविष्य के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। संवेगों के अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के प्रभाव रहते हैं। संवेग प्रेरणा और आनन्द के स्रोत होते हैं तथा साथ ही शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं।
अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि संवेगों के उचित विकास पर विद्यालय में ध्यान दिया जाये। अध्यापक को अध्यापन करते समय संवेगों का लाभ उठाना चाहिये। संवेगों को जगाकर अध्यापक पाठ को रोचक और प्रभावोत्पादक बना सकता है।
बालकों के वांछनीय संवेगों का अवदमन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से बालकों के व्यवहार में अस्थिरता एवं विद्रोही भावनाओं का उद्वेक हो जाता है। बालकों को संवेगों पर नियन्त्रण करने का प्रशिक्षण देना चाहिये। शिक्षक का व्यवहार छात्रों के सांवेगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
शिक्षक को अपने छात्रों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। ऐसे व्यवहार के द्वारा वह बालकों को विनीत तथा शिष्ट आचरण करने की प्रेरणा दे सकता है। अध्यापक को भयावह वातावरण नहीं रखना चाहिये।
विद्यालय में नाटक, वाद-विवाद या अन्य उत्सवों का आयोजन करके छात्रों को आत्म-प्रदर्शन के लिए अधिक अवसर देने चाहिये। भ्रमण या देशाटन का आयोजन करके बालकों की घुमक्कङ प्रवृत्ति को सन्तुष्टि प्रदान करनी चाहिये। किशोरावस्था में बालक आत्म-निर्भर बनना पसन्द करता है।
अतएव विद्यालय में उसको उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपने चाहिये। अध्यापक को मार्गान्तरीकरण तथा शोधन-विधियों को प्रयोग में लाना चाहिये। बालकों को समाचार-पत्र तथा अन्य साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा देनी चाहिये। किशोरों को ललित-कला की ओर आकर्षित करना चाहिये।
क्रो तथा क्रो ने संवेग को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ’’संवेग व्यक्ति के व्यवहार की दिशा को निश्चित करते हैं जो जीवन की किसी भी परिस्थिति में पैदा हो सकते हैं।’’
“The emotions determine the direction that an individual’s behaviour will be likely to take in any situation.” – Crow & Crow.
दोस्तो आज के आर्टिकल में आपको बताया गया टॉपिक संवेग का अर्थ , संवेगों की विशेषताएँ , संवेगात्मक विकास अच्छे से बताया गया है ,हम आशा करतें है कि आपने इसे अच्छे से समझ लिया होगा ।