आज के आर्टिकल में हम जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Jin piyaje ka sidhant) विस्तार से पढेंगे ,इनके द्वारा दिए गए बालक के मानसिक विकास को अच्छे से समझेंगे ।
Jean Piaget of Cognitive theory
बीसवीं शताब्दी के द्वितीय शतक में जीन पियाजे (1896-1980) ने मानव विकास-विशेष तौर से किशोरावस्था के उन विभिन्न पहलुओं की ओर अपने अनेक लेखों तथा पुस्तकों के माध्यम से ध्यान दिलाया जिसकी ओर अब तक अन्य मनोवैज्ञानिकों का ध्यान नहीं गया था।
माना कि पियाजे ने अधिगम आदि मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अपने को सम्बन्धित नहीं किया फिर भी उन्होंने तर्क, चिन्तन, नैतिक निर्णय, प्रत्यय बोध जैसे अनेक अछूते मनोवैज्ञानिक तथ्यों के क्रमिक विकास का बङे ही मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया और इसी अध्ययन क्रम में उन्होंने सन् 1923 में अपनी सर्वप्रथम पुस्तक ’दा लैंगुएज ऑफ थाॅट ऑफ दा चाइल्ड’ (The Language of the Thought of the Child) लिखी।
इसके बाद सन् 1976 तक के लिए 53 वर्ष तक के काल तक उन्होंने 32 पुस्तकें लिखीं।
इसके बाद सन् 1976 तक के 53 वर्ष तक के काल तक उन्होंने 32 पुस्तकें लिखीं। इसमें कई मनोवैज्ञानिक प्रत्ययों के क्रमिक विकास का वर्णन किया, इस कारण आपकी मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं को ’विकासवादी मनोविज्ञान’ का नाम दिया गया।
अब हम जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त के बारे में जानेंगे –
जीन पियाजे द्वारा प्रतिपादित ’मानव विकास की बौद्धिक अवस्थायें’ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। हम जीन पियाजे द्वारा प्रतिपादित विकास की अवस्थाओं की चर्चा करें इससे पूर्व यह उचित रहेगा कि हम पियाजे द्वारा प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक विकास की सामान्य प्रवृत्ति का ज्ञान करें।
संतुलनीकरण क्या है ?
अब तक के मनोवैज्ञानिकों ने मानव विकास के तीन पक्ष बतलाये थे-
- जैविकीय परिपक्वता (Biological Maturation),
- भौतिक वातावरण के साथ अनुभव (Experience with Physical Environment)
- सामाजिक वातावरण के साथ अनुभव (Experience with Social Environment)।
जीन पियाजे ने कहा कि मानव विकास के उक्त तीन पक्षों के अलावा सन्तुलनीकरण (Equilibrium) नामक एक पक्ष और होता है।
जीन पियाजे के अनुसार सन्तुलनीकरण
मानव विकास की एक अनिवार्य शर्त है। सन्तुलनीकरण मानव विकास के अन्य तीनों पक्षों के मध्य सन्तुलन एवं समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है। इस सन्तुलन के अभाव में किसी भी प्राणी का विकास सम्भव नहीं है। जीन पियाजे के अनुसार सन्तुलनीकरण एक स्वचालित उन्नतोन्मुखी (Progressive Self-regulating) प्रक्रिया है।
पियाजे ने अपने विचारों में संज्ञान (Cognition) के विकास को सबसे अधिक प्रधानता दी है। यदि हम कहें कि पियाजे का सम्पूर्ण कार्य संज्ञान तथा तर्क के विकास से ही सम्बन्धित है तो अतिशयोक्ति नहीं है।
पियाजे ने तर्क तथा मनोविज्ञान को परस्पर पास लाने का प्रयास किया। वे अपने अधिकांश कार्यों में तर्क-विकास के मनोवैज्ञानिक पक्ष का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन कर विभिन्न नियमों का निरूपण करते हैं।
जीन पियाजे ने मानव-विकास के सामान्य तथ्यों की चर्चा के मध्य ही सन्तुलनीकरण को स्पष्ट करने के लिए दो अन्य प्रत्यय भी दिये जिन्हें पियाजे ने आत्मीकरण (Assimilation) तथा संधानीकरण (Accomodation) नाम दिया।
बालक ज्ञान प्राप्त करने के लिए न केवल वातावरण का ही ज्ञान प्राप्त करता है अपितु वह वातावरण के साथ समायोजन भी स्थापित करता है। जब तक वह वातावरण के साथ समायोजन व संधानीकरण नहीं कर लेता है वह वातावरण (दोनों ही भौतिक एवं सामाजिक) का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है और न अपने व्यक्तित्व का ही समन्वित विकास कर सकता है।
बाह्य वास्तविकताओं (Realities) और वातावरण का समायोजन वर्तमान संरचनात्मक संगठन के साथ अनिवार्य है। यह समायोजन ही सन्तुलनीकरण (Equilibrium) है। यह समायोजन प्रक्रिया याय सन्तुलनीकरण मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास के लिए अनिवार्य है।
बालक ज्यों-ज्यों वातावरण के साथ एकीकरण करते चलते हैं उनका संज्ञानात्मक विकास आगे बढ़ता चलता है।
मानसिक विकास की अवस्थाएँ (Stages of Intellectual Growth)
पियाजे ने मानसिक विकास के चरणों की विस्तृत व्याख्या की है। इस व्याख्या में जीन पियाजे, अर्नाल्ड गैसेल (Arnold Gessell) तथा फ्रायड से पूरी तरह पृथक अपने विचार रखते हैं। उदाहरण के लिए फ्रायड ने बाल-विकास की पाँच अवस्थायें बताई हैं जो हैं-
- गुदीय (Anal)
- मुखीय (Oral)
- उत्तिष्ठ (Phallic)
- सुप्तीय (Latency)
- कामेन्द्रिय (Genital)
वास्तव में ये व्यक्तित्व विकास या बौद्धिक विकास की अवस्थायें न होकर केवल मात्र काम विकास की अवस्थायें हैं। पियाजे काम-भावना को विकास का मुख्य तत्त्व नहीं मानता, वह मानसिक विकास को व्यक्तिगत विकास का मुख्य कारक मानता है। इसलिए पियाजे व्यक्तित्व विकास के क्रम में अपना पूरा ध्यान मानसिक विकास पर ही देता है।
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएं हैं-
क्रम संख्या | संज्ञानात्मक अवस्थाओं के नाम | समयकाल |
1. | संवेदी गामक अवस्था /संवेदीपेशीय अवस्था / इंद्रिय जनित गामक अवस्था /ज्ञानात्मक क्रियात्मक अवस्था / ज्ञानेंद्रिय गामक अवस्था | जन्म से 2 वर्ष |
2. | पूर्व संक्रियात्मक अवस्था / प्राक् संक्रियात्मक अवस्था | 2 से 7 वर्ष |
3. | मूर्त संक्रियात्मक अवस्था / मूर्त प्रचलनात्मक अवस्था / स्थूल संक्रियात्मक अवस्था | 7 – 11 वर्ष |
4 | अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था / औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था | 11 से 15 वर्ष |
पियाजे ने मानसिक विकास की नीचे लिखी तीन अवस्थायें बताई हैं-
- संवेदना-गामक विकास की अवस्था (Period of Sensori-motor Development)
- प्रतिनिधियात्मक एवं स्थूल विकास की अवस्था (Period of Representative Intelligence and Concrete Operation)
- औपचारिक कार्यात्मक अवस्था (Period of Formal Operation)।
नीचे इन्हीं तीन अवस्थाओं का सामान्य परिचय प्रस्तुत है-
(1) संवेदना गामक विकास की अवस्था (Period of Sensori-motor Development) –
जन्म से लेकर चौबीस माह अर्थात् 2 वर्ष तक की अवस्था पियाजे के अनुसार संवेदना-गामक बुद्धि के विकास की अवस्था होती है। इस आयु में शिशु प्रमुख रूप से तीन प्रकार की क्रियायें करता है- (1) प्राथमिक (Primary), (2) द्वितीयक (Secondary), (3) तृतीयक (Tertiary), शिशु इन्हीं तीन प्रकार की क्रियाओं की चक्ररूप में (In a Circular Way) पुनरावृत्ति करता रहता है। वह इन क्रियाओं की पुनरावृत्ति से ही कुछ नवीन, मौलिक तथा स्थायी निर्माण करना चाहता है।
पियाजे ने शिशु की संवेदना-गामक (Sonsori-motor) अवस्था को पुनः छः उप-विभागों में विभक्त किया-
(क) 0-1 माह – इस अवस्था में बालक चूसना, रोना तथा अन्य समस्त शारीरिक क्रियायें करता है।
(ख) 1 से 4 माह – इस अवस्था में वह प्राथमिक क्रियाओं का सम्पादन करना सीखता है। यहीं से वह आत्मीकरण तथा संधानीकरण में अन्तर प्रारम्भ करता है।
(ग) 4 से 8 माह – यहाँ से शिशु के कार्यों में उद्देश्यपूर्णता आती है। अब उसकी क्रियायें किसी स्पष्ट उद्देश्य के निमित्त होती हैं।
(घ) 8 से 12 माह – इस अवस्था में आकर वह प्राथमिक तथा अन्य क्रियाओं में समन्वय स्थापित करने लगता है। अब वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति में आई बाधाओं को भी दूर करना सीखता है।
(ङ) 12 से 18 माह – इस अवस्था में आकर बालक साधन एवं साध्य में अन्तर करना तथा उपयुक्त साधनों का प्रयोग कर साध्यों को प्राप्त करना सीखता है।
(च) 18 से 24 माह – इस अवस्था में आकर बालक अपनी मानसिक शक्तियों के प्रयोग से साध्य की प्राप्ति हेतु नवीन साधनों का चयन एवं प्रयोग करना सीखता है।
(2) प्रतिनिधित्यात्मक एवं स्थूल बुद्धि विकास की अवस्था (Period of Represen-tative Intelligence and Concrete Operations)
जीन पियाजे के अनुसार बालक के बौद्धिक विकास की दूसरी अवस्था ’प्रतिनिधियात्मक बुद्धि तथा स्थूल कार्यात्मक विकास की अवस्था’ है। यह अवस्था 2 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की आयु तक फैली रहती है।
जीन-पियाजे इस अवस्था को पुनः दो अवस्थाओं में उप-विभाजित करते हैं-
- पूर्व-कार्यात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage)।
- स्थूल कार्यात्मक अवस्था (Concrete Operational Stage)।
पियाजे के अनुसार 2 से 7 वर्ष की अवस्था पूर्व-कार्यात्मक अवस्था (Preoperational stage) होती है तथा 7 से 12 वर्ष की अवस्था स्थूल कार्यात्मक अवस्था होती है।
(3)अ पूर्व-कार्यात्मक अवस्था (Pre-operational Stage)-
पियाजे द्वारा प्रस्तावित पूर्व-कार्यात्मक अवस्था उस समय प्रारम्भ होती है जब बालक प्रतिमूर्तियों (Images) का निर्माण करना प्रारम्भ कर देता है। प्रतिमूर्ति बनाने की प्रक्रिया उस समय प्रारम्भ होती है जब बालक अनुकरण का आन्तरिकीकरण (Internalization) करना प्रारम्भ कर देता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक पहले अपनी स्वयं की ही प्रतिमूर्ति का निर्माण करना प्रारम्भ करता है और जब वह अपनी प्रतिमूर्ति के रूप में अपने को अपेक्षाकृत महत्ता प्रदान करने लगते हैं और जब बालक अपनी प्रतिमूर्ति को महत्ता प्रदान करने लगता है तभी से उसमें प्रतीकात्मक विचार (Symbolic Thought) प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
कालान्तर में बालक अहम्-केन्द्रितता (Ego centricism) से हटकर अन्य की ओर अपना ध्यान देना प्रारम्भ कर देता है। यहाँ आकर ही उसके आत्मीकरण तथा स्थानीकरण में और भी अधिक स्पष्ट पृथकीकरण आ जाता है। फलतः वह भार, आकार, संक्रिया, आयतन जैसे सूक्ष्म प्रत्ययों को समझने लगता है। सूक्ष्म प्रत्ययों को समझने के लिए स्थूल प्रत्ययों के ज्ञान संरक्षण (Conservation) अति आवश्यक है। इसी संरक्षण गुण के कारण बालक भार, लम्बाई, ऊँचाई, आकार तथा अन्य बीजगणितीय एवं ज्यामितिक प्रत्ययों को समझ पाने की योग्यता का विकास करता है। पियाजे इस अवस्था को ही स्थूल कार्यात्मकता (Concrete operational phase) कहते हैं।
(ब) स्थूल कार्यात्मक अवस्था (Concrete Operational Stage)-
’करके सीखना’ (Learning by doing) स्थूल कार्यात्मकता की एक अनिवार्य विशेषता है। बालक इस अवस्था में आकर कार्यों को स्वयं करके सीखता है। लम्बे समय तक एक ही कार्य को करते रहने से बालक कार्य करने के नियम बना लेता है। यह अवस्था ही नियमीकरण की अवस्था कहलाती है। कालान्तर में बालक के ये नियम ही तार्किक नियम (Logical rules) का रूप धारण कर लेते हैं और यहीं से तार्किक चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
स्थूल कार्यात्मकता के विकास की तीन प्रमुख विशेषताएँ होती हैं-
- सारणीबद्ध (Seriation)
- वर्गीकरण (Classification)
- अनुरूपीकरण (Correspondena)।
स्थूल कार्यात्मकता (Concrete operational phase) की अवस्था में आकर बालक तथ्यों का सारणीकरण, वर्गीकरण तथा अनुरूपीकरण करना प्रारम्भ कर देता है।
(अ) सारणीकरण (Seriation) –
सारणीकरण से तात्पर्य तथ्यों तथा विचारों को किसी एक सुनिश्चित क्रम में सजाने से है। अब बालक तथ्यों व विचारों को क्रमबद्ध रूप में सजाने तथा व्यक्त करने लगता है। उदहरण के लिए, वह वस्तुओं को उसके आकार में रखना सीख जाता है।
(ब) वर्गीकरण (To classify) –
वर्गीकरण करने की योग्यता का विकास भी करीब सात-आठ वर्ष की आयु में हो जाता है। वर्गीकरण करने की योग्यता का विकास होने पर बालक विभिन्न प्रकार के तथ्यों को विभिन्न विशेषताओं के आधार पर उन्हें पृथक्-पृथक् वर्गों अथवा श्रेणियों में विभाजित करना सीख जाता है। उदाहरण के लिए एक रंग या आकार की वस्तुओं को एक समूह में विभक्त करने लगता है। धीरे-धीरे बालक स्थूल तथ्यों से हटकर सूक्ष्म तथ्यों का भी वर्गीकरण करने लगता है।
(स) अनुरूपीकरण (Correspondena) –
स्थूल कार्यात्मकता के विकास की तीसरी विशेषता अनुरूपीकरण (Correspondena) है। इस विशेषता के तहत बालक दो या अधिक तथ्यों के जोङे बनाना सीखता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक किसी एक गुण के आधार पर ही जोङे बनाना सीखता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक किसी एक गुण के आधार पर ही जोङे बनाना सीखता है। किन्तु धीरे-धीरे वह विभिन्न गुणों के आधार पर ही जोङे बनाना सीख लेता है।
अपने प्रयोगों में पियाजे ने अनुरूपीकरण का पता लगाने हेतु एक गणितीय प्रश्न की रचना की। इस प्रश्न का प्रयोग अन्य वैज्ञानिकों ने भी किया। प्रश्न निम्नलिखित प्रकार से है-एक भण्डार में तीन चाकू है। दो चाकू दो फल (Blade) वाले हैं जिनका मूल्य क्रमशः 8 व 10 सिक्के हैं। दो चाकुओं में पेचकश लगा है जिनका मूल्य क्रमशः 10 तथा 12 सिक्के हैं। यदि आपको दो फल तथा पेचकश लगा चाकू खरीदना है तो कितना मूल्य चुकाना होगा।
(4) औपचारिक कार्यात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation) –
जब बालक पूर्व किशोरावस्था में प्रवेश करता है, उसके स्थूल विचार परिमार्जित एवं विकसित होकर औपचारिक कार्यात्मकता (Formal operational) को प्राप्त कर लेते हैं। औपचारिक कार्यात्मकता की अवस्था ही सोद्देश्य चिन्तन (Propositional thinking) की अवस्था है। इस अवस्था में आकर किशोर स्थूल रूप से प्रस्तुत तथ्यों के स्थान पर कई वर्गों तथा समूह के मिश्रण को समझने लगता है।
वह चार अन्य मानसिक क्रियायें करना प्रारम्भ कर देता है। ये क्रियायें हैं-
- तादात्मीकरण (Indentification)
- निषेधीकरण (Negation)
- पारस्परिक सम्बन्धबद्धता (Reciprocalness)
- सम्बन्धबद्धीय रूपान्तरण (Correlative Transformation)।
जीन-पियाजे इन चारों विशेषताओं को संक्षेप में INRC के द्वारा व्यक्त करते हैं।
औपचारिक कार्यात्मकता की अवस्था में आकर शैशवावस्था का अहम् केन्द्रीयकरण (Ego-centrism) समाप्त हो जाता है। अब वह केवल अपने पर ही या अपने लिये ही सभी कार्य व चिन्तन नहीं करता है किन्तु वह इस अवस्था में आकर विचार व चिन्तन शक्ति का विकास करने लगता है। वह बाह्य जाति के विषय में भी सोचने लगता है वह नये-नये प्रत्ययों का विकास करने लगता है जो बाह्य जाति से सम्बन्धित होते हैं।
औपचारिक कार्यात्मकता की अवस्था में आकर वह उपकल्पनाओं (Hypotheses) का भी निर्माण करने की शक्ति का विकास करने लगता है। उपकल्पनाओं के निर्माण के लिये पुनः चिन्तन की आवश्यकता होती है। उसके चिन्तन की
सामान्यतः पियाजे के अनुसार तीन विशेषतायें होती हैं।
- चिन्तन उपकल्पनात्मक-निगमनात्मक होता है (Thinking is hypotheticdeductive in nature)।
- चिन्तन अनुपातात्मक होता है (Thinking is Proportional) अर्थात् वह चिन्तन की अभिव्यक्ति के लिये तर्क तो दे सकता है किन्तु वाद-विवाद नहीं कर सकता है। वाद-विवाद के लिये तर्क-शक्ति व चिन्तन शक्ति का विकास कालान्तर में होता है।
- चिन्तन समेल होता है (Thinking in combinational) अर्थात् वह उपकल्पनाओं के विभिन्न मेल (Combinations) बनाने लगता है।
पियाजे का शिक्षण के क्षेत्र में योगदान –
जीन पियाजे स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि वे शिक्षाशास्त्री नहीं हैं। फलतः उन्होंने शिक्षणशास्त्र तथा शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में स्पष्ट कुछ नहीं लिखा किन्तु उन्होंने मनोविज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ कार्य किया उसका स्पष्ट प्रभाव शिक्षण विधियों पर पङता है। पियाजे ने बालक की विकास की अवस्थाओें के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा वह शिक्षण तथा अधिगम दोनों ही की दृष्टि से बङा महत्त्वपूर्ण है।
उदाहरण के लिए एक बात स्पष्ट है कि पियाजे के सिद्धान्त के अनुसार बालक पर कोई भी अधिगम सामग्री थोपी न जाये वरन् वह उसे अपनी विकासावस्था के अनुरूप अधिगम करने के लिए प्रेरित किया जाये। यह तथ्य आज सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकार करते हैं।
दूसरे, बालक का जैसे-जैसे संज्ञानात्मक विकास होता जाये, तथा वह ज्यों-ज्यों प्रत्यय-निर्माण में दक्ष होता जाये, उससे पाठ्यक्रम को तदनुसार ही व्यापक तथा विस्तृत बनाया जाये। यह तथ्य भी आज सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकार करते हैं।
पियाजे तत्कालीन प्रचलित अधिगम सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए वे अधिगम के सम्बन्धतावादी (Associationistic) सिद्धान्तों की कटु आलोचना करते हैं। वे हल (Hull) के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करते क्योंकि पियाजे के अनुसार ये सिद्धान्त केवल नकल (Copy) पर आधारित हैं।
इनसे बालक में अपनी स्वयं की बौद्धिक शक्ति विकसित नहीं हो पाती है। इनमें बालक बाह्य-वास्तविकताओं के घटने वाली घटनाओं की नकल करता है और हम कहते हैं कि उसने अधिगम पर लिया है। यह ठीक नहीं है।
पियाजे का मानना है कि शिक्षण की समस्या सैद्धान्तिक से व्यावहारिक पर चले जाने मात्र से ही हल नहीं हो जाती है (Practical problems of education are not solved by moving from theory to practice)। इस अर्थ में शिक्षा-मनोविज्ञान को हम सच्चे अर्थ में बाल-मनोविज्ञान नहीं कह सकते हैं। प्रयोगात्मक शिक्षण शास्त्र (Experimental Pedagogy) को उन समस्याओं को हल करना चाहिये जिन्हें मनोविज्ञान हल नहीं कर पाती है।
पियाजे के अनुसार प्रयोगात्मक शिक्षण-शास्त्र को बालक विकास तथा बाल-बुद्धि से सम्बन्धित समस्याओं को गम्भीरता तथा महत्त्व के साथ हल करना चाहिए। पियाजे शिक्षण के लिए शिक्षण यन्त्रों (Teaching machines) के प्रयोग पर खुलकर बल देते हैं।
पियाजे के एक अनुयायी एबली (Aebli) बताते हैं कि पियाजे के सिद्धान्तों को किस प्रकार शिक्षण के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जा सकता है। एबली इस सम्बन्ध में नीचे लिखे तथ्य इस सम्बन्ध में देते हैं-
- शिक्षण छात्र-संक्रिया तथा सहभागिता पर आधारित हो जिससे छात्रों को वातावरण के साथ सक्रिय प्रयोग (Active Experimentation) करने का अवसर मिल सके जिससे बालक स्वयं करके अपनी मानसिक क्रियाओं को समृद्ध बना सके।
- बङों (Peers) के साथ अन्तःक्रिया करने के बालकों को यथासम्भव अवसर दिये जाने चाहिए, इससे बालक अहं केन्द्रित (Ego-centricism) भावना से ऊपर निकलकर व्यापक दृष्टिकोण अपना सके। इसके लिए पियाजे समूह कार्यों को अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण उपयोगी बताते हैं। इससे उनमें विकेन्द्रीयता (Decentration) का विकास होगा।
In group activities, he must eventually learn to take the perspective of other, leading to what Piaget calls decentration.
पियाजे के एक और अनुगामी सिजेल (Sigel) ने पियाजे के विचारों को शिक्षण के क्षेत्र में उपयोग के सम्बन्ध में नीचे लिखे तीन तथ्य दिये हैं-
- पियाजे के सिद्धान्तों को ज्ञान के आधार पर आयु बढ़ने के कारण बालक में होने वाले परिवर्तनों के प्रति शिक्षक सावधान हो सकता है।
Through a knowledge of Piaget a teacher may become alerted to change in development with age. - जो पाठ्यक्रम-निर्माण से सम्बन्धित हैं वे पियाजे के द्वारा प्रस्तावित क्रमबद्धता पर सम्भावित अधिगम की क्रमबद्धता आधारित कर सकते हैं।
Those responsible for curriculum construction can base the sequence of expected learnings upon the sequences discovered by Piaget. - पियाजे के सिद्धान्तों पर आधारित विशिष्ट शिक्षण व्यूह रचनायें निरूपित की जा सकती है।
Specific teaching strategies can in part be derived from Piaget’s theories.
पियाजे शिक्षण-विज्ञान के लिये तीन तथ्यों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बताते हैं-
- विषय की आन्तरिक विशेषतायें
- नई शिक्षण विधियाँ
- बाल तथा किशोर मनोविज्ञान द्वारा प्रदत्त आँकङे तथा सूचनायें।
पियाजे के संवेगात्मक-गामक (Sensori-motor) विकास के तत्त्व मान्तेसरी शिक्षण प्रणाली के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं क्योंकि मान्तेसरी शिक्षा प्रणाली भी संवेदना-शिक्षा (Sensori-Education) को महत्त्व देती है। इसी प्रकार पियाजे के विचार डिक्रोली (Decroly) तथा डीवी (Dewey) के लिये भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि पियाजे छात्र-संक्रिया तथा सम्भागिता पर डिक्रोली तथा डीवी के समान ही महत्त्व देते हैं।
पियाजे के अनुसार क्रिया चिन्तन हेतु प्रशिक्षण देती है। (Activity provides training for thought.)
पियाजे खोज-अधिगम (Discovery Learning) पर महत्त्व देते हैं। पियाजे का खोज-अधिगम से तात्पर्य उस अधिगम से है जो समृद्ध वातावरण में मुक्त क्रियायें करने से प्राप्त होता है। (…….discovery learning is learning that comes through free activity in a rich environment.) यहाँ पर पुनः पियाजे के विचार जाॅन डीवी के विचारों का समर्थन करते हैं।
इसके बाद ही अधिकांश मनोवैज्ञानिकों का ध्यान खोज-अधिगम की ओर गया। पियाजे के इस विचार को विट्रोक (Vittrock) ने काफी आगे बढ़ाया तथा खोज अधिगम के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण कार्य किये।
पियाजे के सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने तर्क का मनोविज्ञानीकरण किया (He Psychologized Logic) तथा मनोविज्ञान का तार्किक रूप प्रस्तुत किया (He also logicized Psychology)।
पियाजे ने बताया कि किस प्रकार तर्क का विकास संज्ञानात्मक विकास से सम्बन्धित है। यह तर्क का मनोविज्ञानीकरण है और जब पियाजे सम्बन्धों के तर्क (Logic of relations) को अधिगमकर्ता के विकास से सम्बन्धित करते हैं तो वे तर्क का मनोविज्ञानीकरण करते हैं।
हम आशा करतें है कि आपको जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त अच्छे से समझ में आ गया होगा ….धन्यवाद