आज के आर्टिकल में हम अधिगम के अंतर्गत कोह्लबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत (Kohlberg Theory in Hindi) को विस्तार से समझेंगे और इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी पढेंगे।
इस सिद्धांत से सम्बंधित प्रश्न UPTET / REET / CTET / KVS / DSSB / HTET सभी एग्जाम में पूछे जाते हैं।
कोह्लबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत
(Kohlberg’s Theory of Moral Development)
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक लाॅरेंस कोह्लबर्ग (Lawrence Kohlberg, 1958) का नैतिक विकास सिद्धांत स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे (1932) के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत का एक मूल रूपांतर है। कोह्लबर्ग के नैतिक विकास सिद्धांत को अवस्था सिद्धांत (Stage Therory) भी कहा गया है।
नैतिक व्यवहार जन्मजात नहीं होता है, बल्कि इसे सामाजिक परिवेश से सीखा या अर्जित किया जाता है।
कोह्लबर्ग (Lawrence Kohlberg)ने सर्वप्रथम नैतिक विकास सिद्धांत 1969 ई . में दिया और इसके बाद इसमें 1981 व 1984 में संशोधन किया ।
लाॅरेंस कोह्लबर्ग (1927-1987) के नैतिक विकास के छह चरण हैं। उसने पाया कि ये चरण सार्वभौमिक होते हैं। इन छह चरणों में से प्रत्येक चरण नैतिक दुविधाओं को सुलझाने में अपने पूर्व चरण से अधिक परिपूर्ण होता है।
पियाजे की तरह कोह्लबर्ग ने भी पाया कि नैतिक विकास कुछ चरणों (Steps) में होता है। अलग-अलग उम्र के बच्चों से इन सवालों के जवाबों का अध्ययन करते हुए कोह्लबर्ग को यह ज्ञात होता है कि लोगों की उम्र बढ़ने के कारण नैतिक तर्क कैसे बदल गया। इस न्यादर्श में पहले तो 4-16 साल आयु वर्ग के लङकों को व बाद में 28 साल तक के व्यक्तियों को सम्मिलित किया गया था।
नैतिकता से तात्पर्य सही और गलत में अंतर को स्पष्ट करना है। नैतिकता समाज का वह तत्त्व है, जिसकी उपस्थिति में सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता है। कोह्लबर्ग के अनुसार, सही और गलत के बारे में निर्णय लेने में शामिल चिंतन प्रक्रिया को नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) कहा जाता है।
सही और गलत के बारे में निर्णय नहीं ले पाने की स्थिति नैतिक द्वंद्व/दुविधा (Moral Dilemma) कहलाती है। बच्चों में नैतिकता 4 साल की उम्र से शुरू हो जाती है, जिसका मुख्य आधार डर/भय/दंड का प्रभाव होता है।
कोह्लबर्ग ने पाया कि ये नैतिक विकास के चरण सार्वभौमिक होते हैं। कोह्लबर्ग का विश्वास था कि बच्चे का नैतिक विकास विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Specific to General) होता है। इन्होंने नैतिक चिंतन के तीन बुनियादी स्तर बताए हैं, जिन्हें पुनः दो-दो चरणों में विभाजित किया गया है।
नैतिक विकास की अवस्थाएं (Stages of Moral Development): कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास के कुल छह चरणों का वर्णन किया है, लेकिन उन्होंने दो-दो चरणों या उप-अवस्थाओं को एकसाथ रखकर उनके तीन स्तर बना दिए हैं-
- पूर्व परंपरागत स्तर (Pre-Conventional Level)
- परंपरागत/रूढ़िगत स्तर (Conventional Level)
- पश्च परंपरागत स्तर (Post-Conventional Level)
(1) पूर्व परंपरागत/लौकिक स्तर (Pre-Conventional Level) :
(4 से 10 वर्ष) – इसे बाल्यावस्था (Childhood) के रूप में भी जाना जाता है। यह नैतिक चिंतन का सबसे निचला स्तर है। इस स्तर पर क्या सही और गलत है, पर बाहर से मिलने वाली सजा और उपहार का प्रभाव पङता है। इस स्तर में नैतिकता पर बाह्य नियंत्रण रहता है। जब बालक किसी बाहरी भौतिक घटना के संदर्भ में किसी आचरण को नैतिक अथवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्क शक्ति पूर्व परंपरागत स्तर की कही जाती है। इसे बंटनात्मक यथार्थवाद (Distributive realism) का स्तर भी कहते हैं। कोह्लबर्ग द्वारा इस अवस्था में 4 से 10 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को लिया गया।
इस स्तर के अंतर्गत दो चरण या उप अवस्थाएं आती हैं-
(अ) आज्ञा एवं दंड की अवस्था (Stage of Order and Punishment)
(ब) अहंकार की अवस्था (Stage of Ego)।
चरण 1. आज्ञाकारिता और सजा अभिविन्यास या आज्ञा एवं दंड की अवस्था (Orientation/ Stage of Order and Punishment) :
यह नैतिकता की पूर्व परंपरागत अवस्था का पहला चरण है। यह बाहरी सत्ता पर आधारित है। यहां नैतिक सोच, सजा (Punishment) से बंधी होती है। जैसे, बच्चे यह मानते हैं कि उन्हें बङों की बातें माननी चाहिए, नहीं तो बङे उन्हें दंडित करेंगे। बालक द्वारा मान्य व्यवहार पुरस्कार प्राप्त करने या दंड से बचने के लिए किया जाता है। यहां ’जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहावत चरितार्थ होती है।
चरण 2. व्यक्तिगतता और विनिमय या अहंकार की अवस्था (Stage of Ego) :
यह पूर्व परंपरागत अवस्था का दूसरा चरण है। इस अवस्था को यांत्रिक/साधन सापेक्षता (Instrumental relativity) भी कहते हैं। यह व्यक्ति केंद्रित, एक दूसरे का हित साधने पर आधारित नैतिक चिंतन की अवस्था है। बालक आत्मकेंद्रिता (Egocentrism) यानी ’मेरे लिए इसमें क्या है?’ स्थिति को व्यक्त करता है।
इस अवस्था में बालक की सभी नैतिक क्रियाएं अपनी आवश्यकताओं तथा इच्छाओं पर केंद्रित होती हैं। बालक के लिए वही क्रिया नैतिक होती है, जो उसके हित में होती है।
यहां बच्चा सोचता है कि अपने हितों के अनुसार कार्य करने में कुछ गलत नहीं है, परंतु हमें साथ में दूसरों को भी उनके हितों के अनुरूप काम करने का मौका देना चाहिए। अतः इस स्तर की नैतिक सोच यह कहती है कि वही बात सही है जिसमें बराबरी का लेनदेन हो रहा हो।
अगर हम दूसरे की कोई इच्छा या आवश्यकता पूरी कर दें तो वे भी हमारी इच्छा पूरी कर देंगे (Give and Take Equally)। यहां ’तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारी पीठ खुजलाऊंगा’ कहावत चरितार्थ होती है।
(2) परंपरागत/लौकिक स्तर (Conventional Level) :
(10 से 13 वर्ष) – इसे किशोरावस्था (Adolescence) के रूप में भी जाना जाता है। इस स्तर पर लोग एक पूर्व आधारित सोच से चीजों को देखते हैं। जैसे-बच्चों का व्यवहार उनके मां-बाप या किसी बङे व्यक्ति द्वारा बनाए गए नियमों पर आधारित होना। इस स्तर में नैतिकता पर सामाजिक नियंत्रण रहता है। कोह्लबर्ग द्वारा इस अवस्था में उच्च प्राथमिक स्कूल स्तर के अर्थात् 10 से 13 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को लिया गया।
इस स्तर पर नियमों व सिद्धांतों के अनुसार नैतिकता होती है। इसे नैतिक यथार्थवाद (Moral realism) का स्तर भी कहते हैं। इस स्तर को भी दो उप-अवस्थाओं या चरणों में विभाजित किया जाता है-
(अ) प्रशंसा की अवस्था (Stage of Appreciation)
(ब) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था (Stage of Respect for Social System)।
चरण 3. अच्छे पारस्परिक संबंध या प्रशंसा की अवस्था (Stage of Appreciation) :
इस अवस्था में लोग विश्वास, दूसरों का ख्याल रखना, दूसरों के निष्पक्ष व्यवहार को अपने नैतिक व्यवहार का आधार मानते हैं। बच्चे और युवा अपने माता-पिता द्वारा निर्धारित किए गए नैतिक व्यवहार के मापदंडों को अपनाते हैं, जो उन्हें उनके माता-पिता की नजर में एक ’अच्छा लङका या अच्छी लङकी’ (Good Boy or Good Girl) बनाते हैं। इस अवस्था का मुख्य लक्ष्य दूसरों को प्रसन्न करना या स्वीकृति पाना है, जिससे उसे प्रशंसा मिले।
चरण 4. सामाजिक आदेश को बनाए रखना या सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था (Stage of Respect for Social System) :
यह कोह्लबर्ग के सिद्धांतों की चौथी अवस्था है। इस अवस्था की नैतिकता व अनैतिकता का असर समाज पर होने लगता है। इस स्थिति में लोगों के नैतिक विकास की अवस्था सामाजिक आदेश, कानून, न्याय और कर्तव्यों पर आधारित होती है। इस अवस्था में बालक सामाजिकता के गुणों को धारण करता है।
उसमें सामाजिक नियमों के प्रति नैतिकता का विकास होता है। इस अवस्था में उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है। वह समझने लगता है कि कौनसा व्यवहार उसके समाज के हित में है या नहीं। वह न्याय व कर्तव्यों को समझने लग जाता है।
जैसे-किशोर सोचते हैं कि समाज अच्छे से चले, इसके लिए कानून द्वारा बनाए गए दायरे के अंदर ही रहना चाहिए।
(3) पश्च परंपरागत/उत्तर लौकिक स्तर (Post-Conventional Level) :
(13 वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक) – इसे युवा-प्रौढ़ावस्था (Young Adulthood) के रूप में भी जाना जाता है। इसे आत्मअंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर भी कहते हैं। कोह्लबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांतों के इस स्तर पर वैकल्पिक रास्ते खोजे जाते हैं और फिर अपना एक व्यक्तिगत लाभ (Personal Benifit) वाले व्यवहार का रास्ता ढूंढ़ा जाता है। व्यक्तिगत निर्णय स्वयं चुने हुए सिद्धांतों पर आधारित हैं और नैतिक तर्क व्यक्तिगत अधिकारों व न्याय पर आधारित है।
इस स्तर में नैतिकता पर आंतरिक नियंत्रण रहता है। यह स्तर सहयोगात्मक नैतिकता (Morality of cooperation) के रूप में भी जाना जाता है। इस स्तर में 13 वर्ष से अधिक उम्र के बालकों को लिया गया। कोह्लबर्ग ने अपने तीसरे स्तर को भी दो उप-अवस्थाओं में बांटा है-
(अ) सामाजिक समझौते की अवस्था (Stage of Social Contract)
(ब) विवेक/सार्वभौमिक सिद्धांत की अवस्था (Stage of Conscience/Universal Principle)।
चरण 5. सामाजिक समझौते की अवस्था (Stage of Social Contract) :
इस अवस्था में व्यक्ति समाज के नियमों का पालन करता है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि समाज के साथ समझौता बनाए रखना है या तोङना है। इस अवस्था में व्यक्ति यह सोचने लगता है कि कुछ मूल्य, सिद्धांत और अधिकार कानून से भी ऊपर हो सकते हैं। व्यक्ति वास्तविक सामाजिक व्यवस्थाओं का मूल्यांकन इस दृष्टि से करने लगता है कि वे किस हद तक मूल अधिकारों व मूल्यों का संरक्षण करते हैं।
चरण 6. सार्वभौमिक सिद्धांत या विवेक की अवस्था (Stage of Conscience) :
इसे विवेक की अवस्था भी कहते हैं। यह सार्वभौमिक नीति सम्मत सिद्धांतों पर आधारित नैतिक चिंतन की अवस्था है। यह कोह्लबर्ग के नैतिक सिद्धांतों की सबसे ऊंची और छठी अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखकर अपनी मानसिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए विशेष नैतिक व्यवहार करता हुआ पाया जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति सार्वभौमिक मानवाधिकार पर आधारित नैतिक मापदंड बनाता है। जब भी कोई व्यक्ति अंतरात्मा की आवाज के द्वंद्व के बीच फंसा होता है, तो वह यह तर्क करता है कि अंतरात्मा की आवाज के साथ चलना चाहिए, चाहे वो निर्णय जोखिम से भरा ही क्यों न हो। इसीलिए उसे कुछ भी करने से पहले अपनी भावनाओं के अलावा औरों के जीवन के बारे में सोचना चाहिए।
कोह्लबर्ग (1958) की प्रसिद्ध हाइंस दुविधा (Heinz Dilemma)
कोह्लबर्ग की सबसे अच्छी कहानियों में से एक हाइन्स (Heinz) नामक एक व्यक्ति से संबंधित है जो यूरोप में कहीं रहता था। हाइन्स की पत्नी क्लारा (Clara) एक विशेष प्रकार के कैंसर से मौत के कगार पर थी। डाॅक्टरों ने कहा कि एक नई दवा जो एक रसायनज्ञ (Chemist) द्वारा बनाई गई है, उससे उसे बचाया जा सकता है।
एक स्थानीय रसायनज्ञ द्वारा दवा की खोज की गई थी और हाइंस ने कुछ खरीदने के लिए सख्त कोशिश की थी, लेकिन रसायनज्ञ दवा बनने के लिए दस गुना पैसे मांग कर रहा था। यह हाइंस के लिए बहुत अधिक था।
हाइन्स केवल उसकी लागत ही चुका सकता था। वह परिवार और दोस्तों से मदद के बाद भी आधे पैसे एकत्रित कर सका। उसने रसायनज्ञ को समझाया कि उसकी पत्नी मौत के कगार पर है और पूछा कि क्या वह दवा सस्ती हो सकती है या बाद में बाकी राशि चुका देगा, उसके लिए ठहर जाए।
लेकिन रसायनज्ञ ने इनकार कर दिया कि उसने दवा की खोज की और इससे वह पैसे कमाने जा रहे है। पति अपनी पत्नी को बचाने के लिए बेताब था, इसलिए उस रात वह केमिस्ट की दुकान में दवा चुराने के लिए घुस गया और दवा चुरा ली।
यह कहानी पढ़ने के बाद जिन बच्चों से साक्षात्कार लिया गया, उन्हें नैतिक दुविधा/धर्मसंकट (Moral Dilemma) पर बनाए गए कुछ प्रश्नों के उत्तर देने होते थे।
- क्या हाइन्स को दवा चोरी करनी चाहिए थी?
- ⇒क्या चोरी करना सही है या गलत है, क्यों?
- क्या यह एक पति का कर्तव्य है कि वो अपनी पत्नी के लिए दवाई चोरी करके लाए?
- ⇒क्या दवाई बनाने वाले को हक है कि वह दवाई के इतने पैसे मांगे?
- क्या पुलिस को रसायनज्ञ को हत्या के लिए गिरफ्तार करना चाहिए, यदि महिला की मृत्यु हो गई है?
- ⇒क्या ऐसा कोई कानून नहीं है, जिससे दवा की कीमत पर अंकुश लगाया जा सके, क्यों और क्यों नहीं?
अतः कहा जा सकता है कि नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) आयु के अनुसार विकसित और परिवर्तित होती है। यानी इन छह अवस्थाओं में से प्रत्येक अवस्था नैतिक दुविधाओं को सुलझाने के लिए अपनी पूर्व अवस्था से अधिक परिपूर्ण होती है।
महत्त्वपूर्ण प्रश्न (kohlberg theory of moral development in hindi) –
(ब) परंपरागत
(स) पश्च-परंपरागत
(द) सार्वभौतिक नैतिक सिद्धांत
(ब) स्तर I ✔️
(स) स्तर II
(द) स्तर III
(ब) यह नैतिक तर्क और कार्यवाही के बीच एक स्पष्ट संबंध स्थापित करता है
(स) उनका विश्वास है कि बच्चे नैतिक दार्शनिक हैं
(द) उनके सिद्धांत ने संज्ञानात्मक परिपक्वता और नैतिक परिपक्वता के बीच एक सहयोग का समर्थन किया है ✔️
(ब) परंपरागत स्तर से ✔️
(स) पूर्व-परंपरागत स्तर से
(द) विशिष्ट अनुक्रिया स्तर से
(ब) पश्च लौकिक नैतिकता का
(स) लौकिक नैतिकता का ✔️
(द) नैतिकता का सापेक्षिक
(ब) सांयोगिक क्रम में नैतिक फैसले के स्तरों को खोल देना
(स) अंतिम स्तर के नैतिक फैसले की पहुंच सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आधारित होती है
(द) पर्यावरणीय निवेश पर नैतिक फैसला आश्रित नहीं है
Kohlberg Theory in Hindi
(ब) पियाजे ने
(स) अ एवं ब दोनों ✔️
(द) इनमें से कोई नहीं
(ब) शारीरिक
(स) नैतिक ✔️
(द) गामक
(ब) कोह्लबर्ग ने प्रस्ताव किया कि नैतिक तार्किकता विकासात्मक है
(स) कोह्लबर्ग ने पुरुषों एवं महिलाओं की नैतिक तार्किकता में सांस्कृतिक विभिन्नताओं को महत्व नहीं दिया ✔️
(द) कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास की स्पष्ट अवस्थाओं का उल्लेख नहीं किया
ख. वैयक्तिकता और विनिमय
ग. अच्छे अंतः वैयक्तिक संबंध
घ. सामाजिक अनुबंध और व्यक्तिगत अधिकार
(अ) क और घ
(ब) क और ग ✔️
(स) ख और क
(द) ख और घ
(ब) नैतिक तर्कणा ✔️
(स) नैतिक यथार्थवाद
(द) नैतिक दुविधा
(ब) व्यवहार के स्पष्ट नियम बनाकर
(स) नैतिक मुद्दों पर आधारित चर्चाओं में उन्हें शामिल करके ✔️
(द) ’कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए’ इस पर कठोर निर्देश देकर
(ब) विभिन्न चरण अलग-अलग प्रत्युत्तर हैं न कि सामान्य प्रतिमान
(स) सभी संस्कृतियों से संबद्ध चरणों की सार्वभौम शृंखला ✔️
(द) विभिन्न चरण एक गैर-पदानुक्रम रूप में आग की ओर बढ़ते हैं
(ब) व्यक्तिगत आवश्यकताएं तथा इच्छाएं
(स) व्यक्तिगत मूल्य
(द) पारिवारिक अपेक्षाएं
(ब) संवेगात्मक विकास के चरण
(स) नैतिक विकास के चरण ✔️
(द) संज्ञानात्मक विकास के चरण
बाण्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत
kohlberg theory of moral development in hindi