Abhiprerna ke Siddhant – अभिप्रेरणा के सिद्धान्त -MOTIVATION

आज के आर्टिकल में हम मनोविज्ञान के तहत अभिप्रेरणा के सिद्धांत (Abhiprerna ke Siddhant) विस्तार से पढेंगे ।

abhiprerna ke siddhant

(THEORIES OF MOTIVATION)

अभिप्रेरणा के सम्बन्ध में समय-समय पर विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने पृथक् सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इनमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त नीचे बताए जा रहें हैं-

(1) मूल प्रवृत्ति सिद्धान्त (Instince Theory) –

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मैक्डूगल ने किया मैक्डूगल के अनुसार मनुष्य में चौदह मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। जैसे-क्रोध, काम, युयुत्सा, वात्सल्य आदि। ये चौदह मूल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को विभिन्न कार्य करने के लिये प्रेरित करती हैं। इस प्रकार मनुष्य का प्रत्येक कार्य तथा व्यवहार मूल प्रवृत्ति के अनुसार जन्म लेता है। इतना ही नहीं, मूल प्रवृत्ति की तीव्रता के अनुसार उसके सम्बन्धित व्यवहार की भी तीव्रता रहती है।

(2) संज्ञानात्मक क्षेत्र सिद्धान्त (Cognitive Field Theory) –

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन लेविन (Lewin) ने किया। लेविन ने मनोविज्ञान के क्षेत्र सिद्धान्त (Field Theory) का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के मनोविज्ञान क्षेत्र में अनेक शक्तियाँ (Forces) होती हैं इन शक्तियों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- (1) सदिश (Vector) तथा बल (Valence)।

(3) मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त (Psychoanalytic Theory) –

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी फ्रायड के अनुसार प्रत्येक प्राणी में दो चालक-मृत्यु शक्ति तथा जीवन-शक्ति (Thanatose and Erose) होती हैं। ये चालक ही प्राणी को व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं।

(4) मोर्गन का सिद्धान्त (Morgan’s Theory) –

मोर्गन के प्रेरणा सिद्धान्त को आधुनिक काल में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मोर्गन के अनुसार प्राणी की सभी क्रियाओं तथा व्यवहारों के पीछे एक केन्द्रीय अवस्था होती है जो प्राणी को प्रेरणा प्रदान करती है।

मोर्गन के अनुसार इस केन्द्रीय अवस्था की तीन प्रमुख विशेषताएँ होती हैं-
(i) एक बार उत्पन्न होने पर इन्हें फिर किसी उद्दीपक या पुनर्बलन की आवश्यकता नहीं होती है।
(ii) ये एक निश्चित दिशा में चयनात्मक अनुक्रियायें करती है।
(iii) इनके कारण एक निश्चित प्रकार के व्यवहार को जन्म दिया जाता है।

मोर्गन के अनुसार केन्द्रीय अवस्था ही प्रेरणा को जन्म देती है। केन्द्रीय अवस्था (Central State) जितनी तीव्र होगी, प्रेरणा भी उतनी तीव्र होगी। यह केन्द्रीय अवस्था प्राणी को आवश्यकता मुक्ति के प्रति अनुक्रिया करने के लिये न केवल उत्तेजित ही करती है, अपितु उसे इसकी अनुभूति भी कराती है।

अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिये मोर्गन ने अनेक प्रयोग किये। इन समस्त प्रयोगों के द्वारा मोर्गन ने सिद्ध किया कि चाहे स्नायुतन्त्र से सम्बन्धित क्रियायें हों, अथवा स्नायुमण्डल में विद्युत-धारा प्रवाह से सम्बन्धित क्रियायें हों, सभी में केन्द्रीय अवस्था कार्य करती है।

(5) मैस्लो का सिद्धान्त (Maslow’s Theory) –

मैस्लो के सिद्धान्त (maslow ka abhiprerna siddhant) को प्रेरणा का पदानुक्रमी सिद्धान्त (Hierarchy Theory of Motivation) भी कहते हैं। मैस्लो के अनुसार प्रेरणा-संरचना में एक आधारभूत पदानुक्रम (Hierarchy) होता है। यह पदानुक्रम बहुत कुछ मात्रा में आवश्यकताओं (Needs) पर निर्भर करता है। आवश्यकता जितनी आधारभूत होगी उससे सम्बन्धित प्रेरणा भी उतनी ही तीव्र होगी। आधारभूतता के आधार पर मैस्लो ने मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं को पाँच वर्गों में पदानुक्रम के अनुसार वर्गीकृत किया-

मैस्लो का सिध्दान्त
मैस्लो का सिद्धांत(maslow ka abhiprerna siddhant)

आगे चलकर मैस्लो ने संज्ञामूलक (Cognitive) तथा सौन्दर्य मूलक (Asthetic) आवश्यकताओं की ओर चर्चा की तथा इन सभी आवश्यकताओं को दो वर्गों में विभक्त किया। जीवन-रक्षक (Survival) आवश्यकताओं में प्रथम तीन आवश्यकताओं को सम्मिलित किया तथा शेष आवश्यकताओं को मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ कहा।

इसी अवस्था (Stage) में आकर मैस्लो ने एक नया शब्द ‘D-Motivation’ का दिया। डी-मोटीवेशन अवस्था से मैस्लो का तात्पर्य व्यक्ति का असुरक्षा हीनता, दुर्बलता, असहायता की भावना से छुटकारा पाने की अवस्था से है। प्रत्येक व्यक्ति इनसे मुक्ति चाहता है परिणामस्वरूप वह इसके लिए प्रेरित हो प्रयास करता है।

यहीं आकर मैस्लो ने B-Cognition तथा D-Cognitive के दो अन्य प्रत्य भी दिये। बी-कागनीशन से मैस्लो का तात्पर्य उस चेतन अवस्था है जहाँ व्यक्ति संतुष्टि की स्वीकृति करता है तथा डी-कागनीशन से तात्पर्य उस आत्म-केन्द्रित संज्ञान से है जो व्यक्ति की न्यूनताओं, दुर्बलताओं तथा कमजोरियों को दूर करने की दृष्टि से कुछ निर्णय तथा कार्य सम्पन्न करने के लिये आयोजित किये जाते हैं।

मैस्लो के अनुसार आवश्यकताओं में पदानुक्रम पाया जाता है। जिसके अनुसार प्राणी के लिये आवश्यकताओं का महत्त्व पृथक्-पृथक् होता है किन्तु काल एवं परिस्थितियों के अनुसार प्राणी के लिये आवश्यकताओं के इस पदानुक्रम में सबसे नीचे शरीर-क्रिया या जैविक आवश्यकतायें आती हैं। आवश्यकताओं का यह सबसे निम्न स्तर है। प्राणी सबसे पहले इन्हीं आवश्यकताओं जो अपने स्वभाव एवं प्रकृति में सर्वश्रेष्ठ होती हैं, की पूर्ति करता है।

किन्तु इस व्यवस्था के अपवाद सदैव पाये जाते हैं क्योंकि काल एवं परिस्थितियों के अनुसार प्राणी अपनी नीचे की आवश्यकताओं को कभी-कभी तिलांजलि लेकर उच्च स्तरीय आवश्यकताओं को महत्त्व देता है। आवश्यकताओं के पदानुक्रम पर व्यक्ति के मूल्यों का भी प्रभाव पङता है। उदाहरण के लिए ’’प्राण जाय पर वचन न जाहि’’ में पदानुक्रम जीवन मूल्यों के कारण बदल गया है जबकि ’भूखे भजन न होंहि गुपाला’ में सर्व प्रमुखता मैस्लो के पदानुक्रम को ही दी गई है।

जैसे-जैसे नीचे के पदों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती जाती है, व्यक्ति उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रेरित होता जाता है।

मनुष्य, मैस्लो के अनुसार सर्वप्रथम अपनी जैविकीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस प्रकार की आवश्यकताओं में हम भोजन, पानी के अलावा काम (Sex) सम्बन्धी आवश्यकताओं को सम्मिलित करते हैं। जब व्यक्ति अपनी इन आधारभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि कर लेता है तो वह बाद में अपनी सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु प्रेरित होता है।

आवास सम्बन्धी आवश्यकता सुरक्षा के वर्ग में आती है। बालक अपने माता-पिता या अन्य प्रौढ़ो पर निर्भरता प्रकट करके सुरक्षा का अनुभव करता है।

व्यक्ति अपनी मित्र-मण्डली चाहता है, वह दूसरों को प्यार करना तथा प्यार प्राप्त करना चाहता है। वह चाहता है कि दूसरे उससे सम्बद्ध हों तथा वह दूसरों से सम्बद्ध हो इसी वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वह विभिन्न क्लबों, मण्डलियों तथा समितियों की सन्तुष्टि की ओर प्रेरित होता है। इस अवस्था में वह अपनी शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा अन्य क्षेत्रों में शक्ति बढ़ाता है।

वह हर क्षेत्र में स्वतन्त्र होना चाहता है, वह चाहता है कि दूसरे उससे सम्बद्ध हों तथा वह दूसरों से सम्बद्ध हो। इसी वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वह विभिन्न क्लबों, मण्डलियों तथा समितियों का सदस्य बनता है। यह प्रेम तथा सम्बद्धता से सम्बन्धित आवश्यकताएँ हैं।

इन आवश्यकताओं की पूर्ति के हो जाने वह आत्म-सम्मान से सम्बन्धित आवश्यकताओं की सन्तुष्टि की ओर प्रेरित होता है। इस अवस्था में वह अपनी शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा अन्य क्षेत्रों में शक्ति बढ़ाता है। वह हर क्षेत्र में स्वतन्त्र होना चाहता है, वह चाहता है कि दूसरे उसका सम्मान करें तथा उसकी अधीनता स्वीकार कर लें। वह प्रभुत्व जमाना चाहता है।

आवश्यकताओं के श्रेणी-क्रम में मैस्लो के अनुसार सर्वोच्च श्रेणी की आवश्यकता आत्म-वास्तवीकरण की है। जहाँ वह किसी एक विशिष्ट में कोई ऐसा योगदान देना चाहता है जिससे उसका नाम एवं ख्याति दूर-दूर तक तथा लम्बे समय तक सुरक्षित हो। वह कविता लेखन, चित्रांकन, समाज, सेवा, संगीत, विज्ञान या किसी अन्य क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करना चाहता है। यह कार्य उसे आत्म-सन्तुष्टि प्रदान करते हैं।

(6) मरे का सिद्धान्त (Murray’s Theory) –

मैस्लो के समान भी मरे ने भी मानव व्यवहार का प्रेरणा का मूल स्रोत आवश्यकताओं को ही माना है। इसलिये मरे जब प्रेरणा का वर्णन करता है तब वह आवश्यकताओं को ही प्रेरणा का मूल कारण बताता है। अपने सम्पूर्ण वर्णन में मरे ने आवश्यकताओं के महत्त्व का ही गुणगान किया है। मरे के अनुसार आवश्यकता का अदय शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा पर्यावरणीय कारकों के फलस्वरूप होता है तथा प्रत्येक आवश्यकता के साथ ही साथ तद्नुरूप ही एक विशिष्ट अनुभूति या संवेदना भी जागृत होती है जो मानव व्यवहार तथा प्रेरणा को जन्म देती है, संचालित करती है तथा उद्वेलित करती है।

जिसके कारण व्यक्ति क्रियाशील बनता है तथा उद्देश्य की प्राप्ति कर आवश्यकता की सन्तुष्टि करता है। आवश्यकता की सन्तुष्टि होने पर उत्पन्न हुआ तनाव समाप्त होता है। आवश्यकता तनाव को जन्म देती है तथा मनुष्य तनाव को दूर करने के हेतु उद्देश्य की प्राप्ति करता है। यहाँ मरे अन्य मनोवैज्ञानिकों से थोङा पृथक् है। दूसरे मनोवैज्ञानिक जहाँ कहते हैं कि मनुष्य आवश्यकताओं के कारण उत्पन्न तनाव को दूर करने या न्यून करने हेतु प्रयास करता है। मरे इसे स्वीकार करता है किन्तु यह भी कहता है कि स्वभाव से मनुष्य तनाव भी उत्पन्न करता है जिससे कि उस तनाव को दूर करने हेतु वह प्रयास कर सके। मनुष्य की यह प्रवृत्ति उसे व्यस्त तथा क्रियाशील बनाये रखने के लिये आवश्यक है।

मैस्लो के समान ही मरे भी आवश्यकताओं का वर्गीकरण करता है किन्तु मरे इन्हें कोई पदक्रम नहीं देता है। मरे ने कुल 20 वर्गों में सम्पूर्ण आवश्यकताओं को विभक्त किया है।

मरे द्वारा प्रस्तुत आवश्यकताओं के 20 वर्ग निम्नलिखित हैं-

  1. आत्म सम्मान सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Abasement)
  2. निष्पत्ति सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Achievement)
  3. सम्बद्धता सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Affiliation)
  4. क्रोध सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Aggression)
  5. स्वायत्तता सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Autonomy)
  6. प्रतिकार सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Counteraction)
  7. प्रतिरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Immunization)
  8. समर्थन सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Support)
  9. प्रभुत्व सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Dominance)
  10. प्रदर्शन सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Exhibition)
  11. हानि-परिहार्य सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Harm-avoidance)
  12. अपमान से स्थान सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-In-Avoidance)
  13. परोपकार सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Nurturance)
  14. व्यवस्था सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Order)
  15. क्रीङा सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-play)
  16. निष्कासन सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Reflection)
  17. भोग विलास सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Sentience)
  18. काम सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Sex)
  19. पर-सहायता सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Suecourance)
  20. अवबोध सम्बन्धी आवश्यकताएँ (n-Understanding)।

मरे मैस्लो के समान इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करने हेतु कोई क्रम प्रदान करता है। मरे इस बात को सदैव मानकर चलता है किसी आवश्यकता का महत्त्व तथा गुरुत्व मनुष्य के लिये समय, परिस्थिति, स्वभाव के अनुसार बदलती रहती है।

(7) मैक्लीलैण्ड का सिद्धान्त (Me Clelland) –

मैक्लीलैण्ड ने निष्पत्ति प्रेरक (Achievement Motive) के सन्दर्भ में प्रेरणा की व्यवस्था की इसलिये इसके सिद्धान्त के निष्पत्ति प्रेरक सिद्धान्त (Theory of Achievement Motive) के नाम से पुकारा जाता है। मैकलेलैण्ड के सिद्धान्त को प्रेरणा का प्रभावक सक्रियता के सिद्धान्त (Effective Arousal) उत्पन्न होती है इसलिए कभी-कभी मैकलेलैण्ड के सिद्धान्त (Effective Arousal theory of Motivation) भी कहते हैं।

प्रभावक सक्रियता प्राणी के व्यवहारों को जन्म देती है तथा उन्हें दिशा एवं गति प्रदान करती है। इसी के कारण प्राणी चयनित व्यवहार (Selective Behaviours) करता है।

चयनित व्यवहारों के लिये सम्बन्धद्धता (Redintegration) का होना आवश्यक है सम्बन्धबद्धता के कारण प्राणी को संकेत (Cues) प्राप्त होते हैं जिनकी सहायता से वह अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयास करने के लिये प्रेरित होता है। संक्षेप में कहा जाये तो हम कह सकते हैं कि प्रभावक वातावरण (Effective Environment) में संकेतों में परिवर्तनों के कारण उत्पन्न सम्बन्धबद्धता की प्रेरक है।

यदि संकेतों में परिवर्तन न हो तो कोई प्रेरक भी उत्पन्न न होगा। इसी के साथ मैकलेलैण्ड निष्पत्ति प्रेरक को जोङता है। संकेत ग्रहण करके प्राणी अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अग्रसर होता है। उद्देश्य को प्राप्त कर लेना ही निष्पत्ति है।

निष्पत्ति के लिये केवल मात्र बौद्धिक अभिवृत्ति (Intellectual Attitude) ही पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि इससे प्रभावक सक्रियता की कोई गारन्टी नहीं है। बौद्धिक अभिवृत्ति के साथ जब प्रेरक मिल जाता है तो उद्देश्य प्राप्ति होती है। इसे ही निष्पत्ति प्रेरक कहा जाता है।

निष्पत्ति प्रेरक के लिये मैकलेलैण्ड ने कई अभिधारणाओं का भी उल्लेख किया जैसे पुरस्कार तथा प्रशंसा (सफलता के लिये) दण्ड, लांछन तथा प्रताङना की अपेक्षा भार अधिक शक्तिशाली प्रेरक है। हमें घनात्मक प्रेरकों को अधिक महत्त्व देना चाहिये आदि।

(8) रोजर का आत्म-प्रत्यय सिद्धान्त –

रोजर (Roger) के अनुसार अभिप्रेरणा के लिये आत्म-प्रत्यय का अत्यन्त महत्त्व है। आत्म-प्रत्यय से तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति अपने शारीरिक, मानसिक गुण में, अपनी क्षमताओं, शक्तियों, अपनी आर्थिक व सामाजिक स्थिति, अपनी वैवाहिक एवं पारिवारिक दशा, अपनी मित्र-मण्डली, अपने शत्रुओं, अपने व्यवसाय, अपने अन्य विविध कार्यों, आदतों आदि के समग्र रूप के विषय में क्या सोचता है। उनका कैसा मूल्यांकन करता है।

उनके विषय में वह जैसा सोचता है व उसके व्यवहार भी तद्नुसार होंगे। उदाहरण के लिये एक अच्छा-खासा तन्दुरुस्त व्यक्ति अपने को सदैव ही बीमार समझता है तो एक बीमार व्यक्ति जैसा ही व्यवहार करेगा।

मनोविज्ञान के आत्म-प्रत्यय को दो रूपों में लिया जाता है-

(1) एक प्रत्यय के रूप में

(2) एक प्रक्रिया के रूप में।

  1. आत्म एक प्रत्यय के रूप में – जब कोई व्यक्ति अपने आत्मा का मूल्यांकन अपनी अभियोग्यताओं, अभिवृत्तियों, रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं आदि के रूप में करता है तो यहाँ वह अपने आत्म के एक प्रत्यय के रूप में लेता है।
  2. आत्म एक प्रक्रिया के रूप में – जब कोई व्यक्ति अपने व्यवहारों तथा समायोजन तकनीकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में लेता है तो यहाँ आत्म एक प्रक्रिया के रूप में कार्य करता है।

लेविन के विभेदीकरण तथा सामान्यीकरण के नियमों का रोजर भी प्रयोग करता है किन्तु एक दूसरी ही विवेचना के साथ। रोजन के अनुसार बालक जब छोटा होता है तब उसमें आत्म-प्रत्यय का विकास नहीं होता है। किन्तु बालक जैसे-जैसे बङा होता जाता है। खासतौर से यहाँ बौद्धिक विकास का अधिक महत्त्व है-उसमें अपने स्वयं के दूसरों के भिन्न सोचने की योग्यता आ जाती है।

अब वह अपने अस्तित्व को दूसरों से पृथक् कर समझता है। यहाँ आकर की वह अपने दूसरे के मध्य विभेद करने लगता है। यहीं पर उसमें विभेदीकरण की शक्ति विकसित हो जाती है।

आत्म-प्रत्यय निर्माण के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है। बौद्धिक विकास के साथ ही साथ उसमें विभेदीकरण की शक्ति बढ़ जाती है। अब यह ’मेरा इज्जत’, ’मेरा परिवार’, ’मेरा विद्यालय’ आदि के सन्दर्भ में सोचने लगता है और इनके हित में कार्य करने के लिये अभिप्रेरित होता है।

अब इसमें इन सबके प्रति जागरूकता विकसित हो जाती है। यही जागरूकता उसमें एक निश्चित अभिवृत्ति, संवेदना, भावनायें तथा इच्छायें जागृत कर उसकी जीवन-दर्शन को एक निश्चित संरचना तथा रूप प्रदान करती है।

वह अपने से सम्बन्धित तथ्यों को प्राप्त करने का इनका विकास व हित करने के लिये अभिप्रेरित होता है। इस प्रकार आत्म-प्रत्यय अभिप्रेरणा के लिये आवश्यक हो जाता है।

जैसे-जैसे व्यक्ति की विभेदीकरण की शक्ति विकसित होती है वह विभिन्न तत्त्वों को समानता, असमानता आदि के आधार पर पृथक्-पृथक् समूहों में विभक्त कर, एक समूह के सदस्यों को एक दृष्टि से देखता है। यहीं से इसमें सामान्यीकरण की शक्ति विकसित होती है।

वह सामान्यीकरण के आधार पर तथ्यों का प्रत्यक्षीकरण करने लगता है। वह इस स्तर पर उनका अपनी योग्यताओं, क्षमताओं आदि का भी सामान्यीकरण के आधार पर मूल्यांकन करने लगता है और उसके आधार पर ही कार्य करने के लिये अभिप्रेरित होता है।

आत्म-प्रत्यय के लिए विभेदीकरण तथा सामान्यीकरण विकसित होने पर व्यक्ति अपने आत्म के सन्दर्भ में ही सामाजिक अन्तःक्रिया में करता है। अपने आकांक्षा-स्तर का निर्धारण करता है। मानसिक स्वास्थ्य को स्थिर करता है, शैक्षिक उपलब्धियों के स्तर को निर्धारित करता है तथा समाज में अपना स्थान बनाने के लिये अभिप्रेरित होता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आज अनेक शोध अध्ययनों से यह प्रतिष्ठित हो चुका है कि आत्म-प्रत्यय तथा अधिगम में उच्च स्तरीय धनात्मक सम्बन्ध है। छात्र अपने विषय में जैसा सोचता है तथा जैसा उसका आकांक्षा स्तर है तद्नुसार ही उसकी शैक्षिक-उपलब्धियाँ होती हैं।

उदाहरण के लिये यदि कोई छात्र बस-कंडक्टर बनने की आकांक्षा रखता है तो उसकी शैक्षिक उपलब्धियाँ उतनी उच्चस्तरीय नहीं होगीं जितनी कि उस छात्र की है जिसकी आकांक्षा प्रोफेसर बनने की है।

दोस्तो आज के आर्टिकल में आपने अभिप्रेरणा के सिद्धांतों (Abhiprerna ke Siddhant) को अच्छे से समझ लिया होगा ..धन्यवाद

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