बाण्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत (SOCIAL LEARNING BANDURA)

आज के आर्टिकल में हम अधिगम सिद्धांतों में बाण्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Bandura ka Samajik Adhigam ka Siddhant) पढेंगे ,आप इसकी विषयवस्तु को अच्छे से समझें।

बाण्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत

(SOCIAL LEARNING BANDURA)

बिल्कुल ही आसान भाषा में यह समझें कि बच्चे के सामने जैसा व्यवहार रखेंगे ,वैसे ही बच्चा व्यवहार करेगा ।

दोस्तो दूसरों को देखकर उनके अनुरूप व्यवहार करने के कारण अथवा दूसरों के व्यवहारों को अपने जीवन में उतारने तथा समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहारों को धारण करने तथा अमान्य व्यवहारों को त्यागने के कारण ही यह सिद्धांत सामाजिक अधिगम सिद्धांत कहलाता है। इसी को बाण्डुरा का ‘माॅडल द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाने का सिद्धान्त’ (Bandura’s theory of behaviour modification through modelling) भी कहते हैं।

देखने में आया है कि मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं उनमें प्रायः जानवरों पर प्रयोग करके सीखने की प्रक्रिया समझाने का प्रयास किया गया है।

लेकिन कक्षा-कक्ष की स्थिति में तथा पशुओं पर किये गये प्रयोगों के परिणामों को बालक पर लागू करने में शिक्षक सन्देह प्रकट करने लगे। शिक्षाशास्त्रियों का विचार है कि बालक अन्तःक्रिया द्वारा व्यवहार सीखता है। अन्तःक्रिया एक व्यक्ति या समूह के साथ हो सकती है।

अन्तःक्रिया के समय सीखे गये व्यवहार की पुष्टि किस स्थिति में मिलती है यह भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। इन समस्याओं के समाधान के लिये मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन प्रारम्भ किये गये। ऐसा ही एक अध्ययन एल्बर्ट बाण्डुरा महोदय का है।

अन्तःक्रिया सम्बन्धी सीखने के मार्ग को अपनाने से ही सामाजिक सीखना सम्बन्धी सिद्धान्त का निरूपण हुआ। सामाजिक जीवन में अनुकरण द्वारा सीखने का प्रयत्न अधिक है। किसी प्रतिमान के व्यवहार को देखकर बालक उसका अनुकरण करके उसके साथ दातात्म करने का प्रयास करता है।

अर्थात् किसी प्रतिमान द्वारा किये गये विशिष्ट व्यवहार के अवलोकन से अर्जित नवीन प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करना ही अनुकरणात्मक सीखना कहलाता है। बालकों के लिये ऐसे अनुकरणीय प्रतिमान बाण्डुरा के अनुसार प्रौढ़ व्यक्ति के लिये अधिक सार्थक होते हैं।

मुख्य बिन्दु –

1. अधिगम में अधिगमकर्ता किसी प्रतिमान को देखता और सुनता है।

2. अधिगमकर्ता प्रतिमान द्वारा किये गये व्यवहार को ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं द्वारा मस्तिष्क में संग्रहित करता है।

3. बालक प्रतिमान द्वारा किये गये व्यवहार के परिणामों का निरीक्षण करता है।

4. इसके बाद अधिगमकर्ता स्वयं प्रतिमान के व्यवहार का अनुकरण करके संवलीकरण की आशा करता है।

5. संवलीकरण धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है। लोगों से धनात्मक पुष्टिकरण मिलने पर बालक उस व्यवहार को सीख लेता है और किसी व्यवहार के प्रति लोगों का नकारात्मक रुख होने पर उस व्यवहार को त्याग देता है।

प्रयोग –

बाण्डुरा ने अनेक प्रयोग किये हैं। हम लोगों के जीवन में प्रतिदिन अनेक प्रतिमान आते हैं और उनके व्यवहारों का अनुकरण करते हैं। यही स्थिति बालक के सामने पैदा होती है। एक बालक दूरदर्शन पर प्रदर्शित चलचित्र में हीरो के कार्यकलापों को देखकर उसके व्यवहार को अपने मस्तिष्क में संग्रहीत कर लेता है। बालक वहाँ अन्य लोगों को भी उसके व्यवहार की प्रशंसा करता देखता है।

वही बालक घर पहुँचने पर अपने माता-पिता के सामने वैसा ही व्यवहार करता है। इस स्थिति में यदि माता-पिता उसके व्यवहार की प्रशंसा करते हैं तो वह उस व्यवहार को करना सीख लेता है और यदि माता-पिता उस व्यवहार को पसन्द नहीं करते हैं तो वह इस व्यवहार को नहीं सीखेगा।

सन् 1963 में बाण्डुरा ने अपने अध्ययन में दो स्थितियाँ रखीं-

(1) बाण्डुरा ने बालकों के ऐसे माॅडल दिखाये जो एक खेल के कमरे में आक्रामक व्यवहार कर रहे थे। बाण्डुरा ने पाया कि निरीक्षण करने वाले बालकों ने भी आक्रामक व्यवहार वैसी ही परिस्थितियों में किया।

(2) दूसरी स्थिति में अवरोध के प्रभाव को देखा गया। यह देखा गया कि आक्रामक व्यवहार करने पर दण्डित किया जाता है तो उन बालकों के सीखने में दण्ड एक अवरोध के रूप में आ गया। इसके कारण उन्होंने आक्रामक व्यवहार बन्द कर दिया। यदि निरीक्षण करने वाले बालक देखते हैं कि आक्रामक व्यवहार वाले बालकों को दण्डित नहीं किया गया तो विशेष स्थिति में वैसा व्यवहार करते हैं।

माॅडल की विशेषताएँ –

बाण्डुरा ने अध्ययन के परिणामों के आधार पर माॅडल की विशेषताओं के बारे में भी विचार किया। उनकी मान्यता है कि माॅडल की विशेषताएँ निरीक्षणकर्ता के अनुकरणीय व्यवहार के सीखने को प्रभावित करती हैं। विद्यालयों में बालकों के लिये शिक्षक का व्यवहार अनुकरणीय होता है।

लेकिन विद्यालय में अनेक शिक्षक होते हैं किन्तु उसी शिक्षक के व्यवहार का अनुकरण करना छात्र सीखते हैं जिनको बालक आदर्श स्वरूप मानते हैं। बाण्डुरा ने संक्षेप में माॅडल की विशेषताओं के बारे में लिखा है कि वह माॅडल जो आदरपूर्ण होते हैं, पुरस्कृत कर सकते हैं, योग्य है या जिनका स्तर उच्च होता है के व्यवहार का अनुकरण शीघ्रता से कर लिया जाता है।

प्रायः शिक्षक और अभिभावक बालक के अनुकरणात्मक व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालते हैं।

सामाजिक अधिगम के अवस्थान

(PHASES OF SOCIAL LEARNING)

बाण्डुरा के अनुसार सामाजिक अधिगम की चार अवस्थायें होती हैं-

(1) अवधानात्मक अवस्थान (Attentional Phase) – सामाजिक अधिगम में प्रतिमान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रतिमान के व्यवहार का ही अनुकरण किया जाता है। किन्तु निरीक्षणकर्ता जब तक माॅडल की ओर ध्यान नहीं देगा वह उसके गुणों की ओर सचेत नहीं होगा। निरीक्षणकर्ता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये माॅडल आकर्षक, लोकप्रिय, रोचक तथा सफल होने चाहिये।

(2) धारणात्मक अवस्थान (Retention Phase) – जब बालकों का ध्यान माॅडल की ओर आकर्षित हो जाये तो ऐसे समय माॅडल को वह व्यवहार करना चाहिये जो वह चाहता है कि निरीक्षणकर्ता उसका अनुकरण करें। उसको अभ्यास का अवसर देना चाहिये। ध्यान आकर्षित होने पर ही ज्ञानात्मक प्रक्रिया द्वारा सीखना आरम्भ होता है और ज्ञानात्मक प्रक्रिया आरम्भ होने पर ही निरीक्षणकर्ता अनुकरणीय व्यवहार को मस्तिष्क में धारण करता है।

(3) पुनरुत्पादनात्मक अवस्थान (Reproduction Phase) – सामाजिक अधिगम का अन्तिम चरण अनुप्रेरण है। बालक उस व्यवहार का अनुकरण करना सीखते हैं जिसके पुष्टिकरण की उनको अधिक आशा होती है। पुष्टिकरण ही एक प्रकार का अनुप्रेरण है। व्यवहार का अनुकरण करके वैसा ही व्यवहार करना पुनरुत्पादनात्मक अवस्थान कहलाता है।

शैक्षिक उपयोग

बाण्डुरा द्वारा प्रतिपादित सामाजिक अधिगम सिद्धान्त शिक्षा प्रक्रिया में अधिक उपयोगी हो सकता है। इसके उपयोग के निम्नलिखित क्षेत्र हो सकते हैं-

(1) व्यक्तित्व निर्माण में सामाजिक अधिगम अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण के लिये उनके सामने आदर्श व्यवहार वाले प्रतिमान प्रस्तुत करने चाहिये। प्रतिमान या माॅडल उपस्थित करने के उपयोगी माध्यम रेडियो, टेलीविजन, पुस्तक, कहानी, नाटक आदि हो सकते हैं। अध्यापक स्वयं भी एक प्रतिमान होता है। प्रारम्भ में छात्र अपने शिक्षण के गुणों का अनुकरण करते हैं।

इसीलिये अध्यापक का व्यक्तित्व अच्छा होना चाहिये। आजकल शिक्षक इस तथ्य को भूलते जा रहे हैं। विद्यालय के प्रारम्भिक वर्षों में मौखिक रूप में गुणों के उपदेश देने के स्थान पर प्रतिमान के गुणों को स्वयं धारण करने का प्रयास शिक्षक को करना चाहिये ताकि वह आदर्श माॅडल के रूप में अपने विद्यार्थियों के सामने सिद्ध हो सके।

(2) विशिष्ट या असामान्य व्यवहार करने वाले बालकों को प्रतिरूपण के माध्यम से सुधारा जा सकता है।

(3) बालक अच्छे-बुरे में विभेद करने में अपने को असमर्थ पाता है। यही कारण है कि यदि प्रतिमान बुरा व्यवहार करता है तो बालक अनुकरण द्वारा उसे सीख लेता है। अतः विद्यालय या कक्षा-कक्ष स्थितियों में प्रतिमान अर्थात् बुरे व्यवहार को उपस्थित नहीं करना चाहिये।

उदाहरण के लिये विद्यालय में बालकों के सामने शिक्षक को धूम्रपान नहीं करना चाहिये। शिक्षक को आक्रामक व्यवहार से बचना चाहिये।

(4) बालकों के व्यवहार में परिवर्तन या सुधार लाने में यह विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

तो दोस्तो आज के आर्टिकल में हमनें बाण्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Bandura ka Samajik Adhigam ka Siddhant)  अच्छे से पढ़ा ,हम आशा करतें है कि यह आपको अच्छे से समझ में आ गया होगा ।

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