आज के आर्टिकल में हम राजस्थान सामान्य ज्ञान के अंतर्गत मेवाड़ के इतिहास (Mewar History in Hindi) के बारे में विस्तार से जानकारी पढेंगे ,आप इस टॉपिक को अच्छे से तैयार करें।
मेवाङ का इतिहास – Mewar History in Hindi
मेवाङ राज्य को प्राचीन काल मे मेदपाट, शिवि, प्राग्वाट आदि नामों से जाना जाता था। भगवान रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशजों मे से 566 ई. में मेवाङ में गुहादित्य (गुहिल) नाम का प्रतापी राजा हुआ। जिसने गुहिल वंश की नींव डाली। उदयपुर के राजवंश ने तब से लेकर राजस्थान के निर्माण तक इसी प्रदेश पर राज्य किया।
इतने अधिक समय तक एक ही प्रदेश पर राज्य करने वाला संसार में एकमात्र राजवंश यही है। उदयपुर के महाराणा हिन्दुआ सूरज कहलाते थे। उदयपुर राज्य के राज्य चिह्न मे अंकित शब्द ’’जो दृढ़ राखै धर्म को, तिहिं राखै करतार’’ उनकी स्वतंत्रता प्रियता व धर्म पर दृढ़ रहने को स्वयंमेव ही स्पष्ट करता है।
गुहिल वंश – Mewar History
मेवाङ में बङनगर नामक एक छोटा राज्य था। जिसकी राजधानी नागदा थी। यहाँ पर शिलादित्य नामक राजा शासन करता था। गुजरात की मेर जाति ने शिलादित्य की हत्या कर दी। इस समय शिलादित्य की पत्नी पुष्पावती तीर्थयात्रा पर गई हुई थी। रानी पुष्पावती गर्भवती थी तीर्थयात्रा से लौटने के बाद रानी पुष्पावती ने गुफा में ’गोह’ (गुहादित्य) को जन्म दिया। अपने बच्चे को विजयादित्य नामक नागर जाति के ब्राह्मण को सौंपकर सती हो गई।
गुहादित्य ने बङे होकर 566 ई. में मेर जाति को परास्त कर गुहिल वंश की स्थापना की। गुहादित्य (गुहिल) के उत्तराधिकारियों के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है। साक्ष्यों के
आधार पर उसके उत्तराधिकारियों का क्रम – शील, अपराजित, भर्तृभट्ट, अल्लट, नरवाहन, शक्तिकुमार, विजयसिंह, नागादित्य रहा होगा। गुहादित्य के बाद महेंद्र दित्य का पुत्र बप्पारावल (734-753 ई.) ही गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक कहलाया।
बप्पारावल (734-753 ई.)
बप्पारावल का मूल नाम कालभोज था। बप्पा के इष्ट देव एकलिंगजी थे। और एकलिंगजी के मुख्य पुजारी हारीत ऋषि के आशीर्वाद से सन् 734 ई. में बप्पा रावल ने मौर्य राजा मान से चित्तौङ दुर्ग जीता। बप्पा को हारीत ऋषि के आशीर्वाद से मेवाङ राज्य प्राप्त होने की जानकारी वैद्यनाथ प्रशस्ति (पिछोला झील उदयपुर) से मिलती है।
उस समय गुहिलों की राजधानी नागदा ही रही। बप्पा का देहांत नागदा में हुआ। उसका समाधि स्थल एकलिंगजी से एक मील दूरी पर है। जो अभी भी मौजूद है। जो ’बप्पा रावल’ के नाम से प्रसिद्ध है। बप्पा रावल के बाद की पीढ़ियों मे केवल नामों की जानकारी मिलती है।
अल्लट (951-953 ई.)
बप्पा रावल के वंशज अल्लट के समय मेवाङ की उन्नति हुई। आहङ उस समय एक समृद्ध नगर व एक बङा व्यापारिक केन्द्र था। अल्लट ने आहङ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। यह भी माना जाता है कि अल्लट ने मेवाङ मे सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया था।
शक्तिकुमार (977-993 ई.)
गुहिल शासक शक्तिकुमार के समय मे मालवा के परमार राजा मुंज ने चित्तौङ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। मुंज के वंशज राजा भोज ने ’त्रिभुवन नारायण शिव मंदिर’ जिसे अब ’’मोकल का समिद्धेश्वर मंदिर’’ कहते हैं, का निर्माण करवाया। राजा भोज 1012-1031 ई. के मध्य चित्तौङ मे रहा था। 11 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक मेवाङ परमारों के अधीन रहा। इसके बाद चालुक्यों ने परमारों से मेवाङ छीन लिया।
रणसिंह (कर्णसिंह)
गुहिल शासक रणसिंह जिसको कर्णसिंह भी कहते हैं, 1158 ई. मे मेवाङ का शासक बना। रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह ने मेवाङ की रावल शाखा को जन्म दिया। रणसिंह के अन्य पुत्र राहप ने सीसोदा ग्राम की स्थापना कर राणा शाखा को जन्म दिया।
रणसिंह के अन्य पुत्र राहप ने सीसोदा ग्राम की स्थापना कर राणा शाखा की नींव डाली। जो सीसोदे में रहने के कारण सिसोदिया कहलाए।
क्षेमसिंह
इसके दो पुत्र सामंतसिंह व कुमारसिंह हुए। सामंतसिंह 1172 ई. मे मेवाङ का शासक बना लेकिन नाडौल (जोधपुर) के चौहान राजा कीतू (कीर्तिपाल) ने सामंत सिंह से मेवाङ राज्य छीन लिया तथा सामंतसिंह ने बागङ में अपना राज्य स्थापित किया।
कुमारसिंह
(क्षेमसिंह का पुत्र) कुमारसिंह ने 1179 ई. में कीर्तिपाल को पराजित कर मेवाङ पर पुनः अधिकार कर लिया। कुमारसिंह का वंशज जैत्रसिंह सिंह (1213-1253) प्रतापी और वीर राजा हुआ।
जैत्रसिंह सिंह (1213-1253)
जैत्रसिंह सिंह के समय दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने नागदा पर (1222-1229 ई. में मध्य) पर आक्रमण किया व नागदा को भारी क्षति पहुंचाई तथा जैत्रसिंह सिंह ने मेवाङ की राजधानी नागदा से चित्तौङ को बनाया। जैत्रसिंह सिंह के वंशज समरसिंह के दो पुत्र रतनसिंह व कुंभकर्ण हुए। कुंभकर्ण नेपाल चला गया और रतनसिंह मेवाङ का शासक बना।
रतनसिंह (1302-1303)
रावल समरसिंह के बाद 1302 ई. मे उसका पुत्र रतनसिंह के सिंहासन पर बैठा। एक वर्ष बाद ही राज्य को दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना करना पङा। और अलाउद्दीन ने मेवाङ की स्वतंत्र सत्ता का अंत कर दिया। रतनसिंह के शासनकाल की महत्त्वपूर्ण घटना चित्तौङ का प्रथक साका थी। दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौङ पर 28 जनवरी, 1303 ई. में आक्रमण किया व 26 अगस्त, 1303 ई. को चित्तौङ का किला जीत लिया।
इस युद्ध मे रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए व रानी पद्मिनी ने जौहर किया। इस युद्ध मे ’गौरा’ (पद्मिनी के चाचा) व ’बादल’ (पद्मिनी का भाई) भी वीर गति को प्राप्त हुए। मलिक मुहम्मद जायसी के ’’पद्मावत’’ के अनुसार यह युद्ध रतनसिंह की रूपवती पत्नी पद्मिनी के लिए हुआ था। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौङ का किला अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंपकर उसका नाम खिज्राबाद रख दिया। चित्तौङ के प्रथम साके में प्रसिद्ध इतिहासकार व कवि अमीर खुसरो भी अलाउद्दीन खिलजी के साथ था। खिज्र खाँ कुछ वर्षों तक चित्तौङ मे रहा लेकिन गुहिल वंश की एक छोटी शाखा सीसोद के सामंत ने उसे लगातार परेशान किया।
अतः अलाउद्दीन खिलजी ने खिज्र खाँ को वापस बुला लिया और चित्तौङ का दुर्ग व मेवाङ का राज्य जालौर के चौहान शासक कान्हडदे के भाई मालदेव को सौंप दिया। परन्तु सीसोदा के सामंत हम्मीर ने मालदेव को चैन से नहीं बैठने दिया। मालदेव ने अपनी एक पुत्री का विवाह हमीर के साथ करके मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया।
1321 ई. मे आसपास मालदेव की मृत्यु हो गई। उसके कुछ समय बाद ही हम्मीर ने सम्पूर्ण मेवाङ पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। हम्मीर के पहले चित्तौङ के गुहिलवंशी शासक ’रावल’ कहलाते थे। हम्मीर के समय वे ’राणा’ तथा ’महाराणा’ कहलाने लगे। चूंकि हम्मीर सीसोदा का सामंत था। अतः मेवाङ का राजवंश ’सिसोदिया’ राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सिसोदिया वंश – Mewar History
राणा हम्मीर (1326-1364)
हम्मीर ने सन् 1326 ई. में चित्तौङ में सिसोदिया वंश की नींव डाली। राणा हम्मीर ने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक के चित्तौङ आक्रमण को विफल कर दिया था।
महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित ’रसिकप्रिया’ टीका में तथा कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति मे हम्मीर को ’विषम घाटी पंचानन’ कहा है। 1364 ई. मे हम्मीर की मृत्यु हो गई।
क्षेत्रसिंह (खेता) (1364-1382 ई.): हम्मीर की मृत्यु के बाद उसका बङा पुत्र क्षेत्रसिंह मेवाङ का राणा बना। उसके समय दिल्ली मे फिरोजशाह तुगलक शासन कर रहा था। बूंदी अभियान मे क्षेत्रसिंह की 1382 ई. मे मृत्यु हो गई।
महाराणा लाखा (लक्षसिंह) (1382-1397)
⇒ महाराणा हम्मीर के पौत्र व क्षेत्रसिंह (खेता) के पुत्र लक्षसिंह (राणा लाखा) सन् 1382ई. मे चित्तौङ के राज्य सिंहासन पर बैठे। इनके राजस्व काल मे जावर में चांदी की खान निकल आई। जिससे राज्य की आय मे वृद्धि हुई। महाराणा लाखा के काल में ही एक बनजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।
राणा लाखा के समय मारवाङ का शासक राव चूङा राठौङ था। जिसने अपनी प्रिय पत्नी के कहने में आकर ज्येष्ठ पुत्र रणमल के स्थान पर कान्हा को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इसलिए रणमल अपनी बहन हंसाबाई को लेकर महाराणा लाखा की शरण में आ गया। तथा अपनी बहन का विवाह महाराणा लाखा से किया।
इस समय राणा लाखा के पुत्र कुंवर चूंडा ने हंसाबाई से उत्पन्न होने वाले पुत्र को मेवाङ राज्य का स्वामी बनाने की प्रतिज्ञा की। रघुकुल मे या तो रामचन्द्र ने पितृ भक्ति के कारण ऐसा ज्वलंत उदाहरण दिखलाया या फिर कुंवर चूंडा ने। इसलिए कुंवर चूंडा को मेवाङ का भीष्म पितामह कहा जाता है। महाराणा लाखा की मृत्यु (1421) के बाद हंसा बाई के पुत्र मोकल को उत्तराधिकारी बनाया गया।
मोकल (1421-1433)
राणा बनते समय मोकल की आयु 12 वर्ष थी। अतः लाखा का बङा पुत्र चूंडा उसका अभिभावक बना। कुछ समय पश्चात् ही हंसा बाई को संदेह होने लगा कि कहीं अवसर मिलने पर चूंडा मेवाङ सिंहासन हस्तगत न कर ले। अंत में जब स्थिति असहनीय हो गई तो चूंडा मेवाङ छोङकर मांडू के सुल्तान की सेवा में चला गया।
लेकिन अपने एक भाई राघवदेव को मोकल की सुरक्षा के लिए छोङ गया। चूंडा की अनुपस्थिति में रणमल की स्थिति मजबूत हो गई। उसने मेवाङ के खर्चें पर अपनी एक राठौङ सेना तैयार की। मारवाङ मे चूंडा राठौङ की मृत्यु के बाद कान्हा को शासक बनाया गया। परंतु कान्हा की शीघ्र ही मृत्यु हो गई। इस समय मोकल की सहायता से रणमल ने मारवाङ राज्य प्राप्त किया। रणमल ने मंडोर को शक्ति का केन्द्र बनाया। रणमल तथा मोकल की संयुक्त सेना ने गुजरात के शासक अहमद शाह को पराजित किया।
परंतु युद्ध के दौरान ही महाराणा क्षेत्रसिंह (खेता) की अवैध संतान ’चाचा’ और ’मेरा’ ने मोकल की हत्या कर दी। महाराणा मोकल की हत्या के समय उनका ज्येष्ठ पुत्र कुंभा शिविर मे उपस्थित था। अतः चाचा ने उस पर भी हमला किया। किन्तु कुंभा के शुभचिंतकों ने उसे बचाकर चित्तौङ ले जाने में सफल रहे। चित्तौङ पहुंचने पर मेवाङ के सामंतों ने उसे मेवाङ का राणा घोषित कर दिया। (महाराणा मोकल ने चित्तौङ मे समद्धेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।)
महाराणा कुंभा (1433-1468)
⇒ महाराणा मोकल की हत्या के बाद महाराणा कुंभा सन् 1433 ई. में चित्तौङ के शासक बने। कुंभा को ’हिन्दू सुरत्राण’ तथा ’अभिनव भरताचार्य’ कहा जाता है। महाराणा कुंभा के शासनकाल मे मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी ने सन् 1437 ई. मे सारंगपुर के निकट युद्ध हुआ। जिसमें महाराणा कुंभा विजयी हुए। इस युद्ध का प्रमुख कारण सुल्तान महमूद खिलजी से महपा पंवार व अक्का की मांग करना था।
सुल्तान अपने शरणागतों को छोङने के लिए तैयार नहीं था। महाराणा कुंभा ने इस विजय के उपलक्ष्य मे चित्तौङ के किले में विजय स्तंभ बनवाया। जो 9 मंजिलें हैं। इस स्तंभ की तीसरी मंजिल पर नौ बार अल्लाह लिखा हुआ है। सम्पूर्ण विजय स्तंभ हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों एवं हिन्दू शैली के अलंकरण से सुशोभित है।
इसे ’भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष’ कहा जाता है। इन मूर्तियों की विशेषता है कि प्रत्येक मूर्ति के नीचे उसके बनाने वाले शिल्पी का नाम अंकित है। इसके निर्माणकर्ता जैता व उसके दो पुत्र नापा व पुंजा थे।
’कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि थे। लेकिन इनका निधन हो जाने के कारण इस प्रशस्ति को उनके पुत्र महेश ने पूरा किया।
चांपानेर की संधि
मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने महाराणा कुंभा को हराकर उसका मुल्क आपस में बांटने के लिए उस पर एक साथ मिलकर आक्रमण करने हेतु चापानेर में 1456 ई. मे एक संधि की। 1457 ई. मे सुल्तान कुतुबुद्दीन और महमूद खिलजी की संयुक्त सेनाओं ने मेवाङ पर आक्रमण किया।
लेकिन महाराणा कुंभा ने सम्मिलित सेना को बुरी तरह पराजित किया। महाराणा कुंभा शिल्पी शास्त्र का ज्ञाता होने के साथ-साथ शिल्पीकारियों का भी बङा प्रेमी था। ऐसा माना जाता है कि कुंभा ने राजस्थान के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण व जीर्णोद्धार करवाया। 1448 ई. में चित्तौड़ दुर्ग में कुंभा श्याम मंदिर व आदिवराह मंदिरों का निर्माण करवाया। कुंभा ने 1458 ई. में कुंभलगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
कुंभलगढ़ के दुर्ग का प्रमुख शिल्पी मंडन था।वर्तमान मे कुंभलगढ़ दुर्ग राजसमंद जिले में आता है। महाराणा कुंभा ने इसी दुर्ग के सबसे ऊँचे भाग पर अपना निवास स्थान बनवाया था। जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है। कटारगढ़ दुर्ग को मेवाङ की आंख कहा जाता है। इस दुर्ग के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि ’’यह इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगङी गिर जाती है।’’ कर्नल टाॅड ने इस दुर्ग की तुलना एस्ट्रूकन (चीन की दीवार) से की है।
कुंभा ने कुंभलगढ़ मे भी एक कीर्ति स्तंभ बनवाया था। कुंभलगढ़ प्रशस्ति के रचयिता कवि महेश हैं। कुंभा ने 1452 ई. मे अचलगढ़ दुर्ग की प्रतिष्ठा की। बसंतपुर (सिरोही) नगर को, जो पहले उजङ गया था, उन्होंने फिर बसाया। कुंभा के शासनकाल मे ही रणकपुर के जैन मंदिरों का निर्माण धरनक ने 1439 ई. में करवाया था।
रणकपुर के चैमुखा मंदिर का निर्माण देपाक नामक शिल्पी के निर्देशन मे हुआ था। इस मंदिर मे 1444 स्तंभ हैं। इसलिए इस मंदिर को स्तंभों का वन कहा जाता है। इस मंदिर की मुख्य विशेषता है कि इतने स्तंभ होने के बावजूद भी भगवान आदिनाथ की मूर्ति को किसी भी स्थान से देखा जा सकता है।
महाराणा कुंभा पराक्रमी यौद्धा और स्थापत्य प्रेमी के साथ-साथ एक विद्वान एवं विद्यानुरागी शासक भी थे। वे एक कवि, नाटककार, टीकाकार तथा संगीताचार्य थे। महाराणा कुंभा द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथ ’’संगीत राज, संगीत मीमांसा और रसिक प्रिया’’ है। कुंभा ने संगीत के विख्यात ग्रंथ ’’संगीत रत्नाकर’’ की टीका भी लिखी थी, व चंडी शतक की भी टीका लिखी थी। सूङ प्रबंध, कामराज रतिसार, सुधा प्रबंध आदि ग्रंथों की रचना की गई।
कुंभा के दरबार मे राज्याश्रित विद्वान | |
श्री सारंग व्यास | कुंभा के संगीत गुरु। |
कान्हा व्यास | ’एकलिंग माहात्म्य’ के रचनाकार। |
रमाबाई | कुंभा की पुत्री जो संगीत शास्त्र की ज्ञाता थी। |
अत्रि भट्ट | इन्होंने कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति की रचना प्रारंभ की थी। जिसे अपनी मृत्यु के बाद उनके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण किया था। |
महेश भट्ट | कवि अत्रि के पुत्र जिन्होंने कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति के शेष भाग की रचना की। |
मंडन | देव मूर्ति प्रकरण, प्रसाद मंडन, राजवल्लभ, रूपमंडन, वस्तुमंडन, वास्तुशास्त्र आदि ग्रंथों की रचना की। मंडन के भाई नाथा ने ’वास्तु मंजरी’ और मंडन के पुत्र गोविन्द ने ’उद्धार धोरणी’ ’कला निधि’ और ’द्वार-दीपिका’ नामक ग्रंथों की रचना की। |
मेवाङ-मारवाङ सम्बन्ध – Mewar History
1437 ई. मे रणमल ने महपा पंवार व अक्का के साथ मिलकर कुंवर चूंडा के भाई राघव देव की हत्या कर दी। सिसोदिया सरदारों ने इस हत्या का बदला लेने का निश्चय किया। इस समय कुंवार चूंडा गुजरात से लौटकर मेवाङ आ गया व 1438 में कुंवर चूंडा ने महपा पंवार व अक्का को अपनी तरफ सम्मिलित कर रणमल की प्रेमिका भारमली द्वारा अधिक शराब पिलाने के बाद उसकी हत्या कर दी।
रणमल का पुत्र राव जोधा अपने पिता के शव को लेकर चित्तौङ से भाग गया तथा बीकानेर के काहुनी नामक स्थान पर अपने पिता की अंत्येष्टि की। इस समय मारवाङ नेतृत्वविहीन था। इसलिए कुंवर चंूडा तथा कुंभा ने मारवाङ पर अधिकार कर लिया।
राव जोधा ने 14 वर्षों तक अपनी सेना को संगठित किया और जब महाराणा कुंभा मालवा सुल्तान के साथ युद्ध मे व्यस्त था तब एक दिन अर्द्ध रात्रि मे मारवाङ के मंडोर क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। अंत मे कुंभा तथा जोधा ने पाली नगर के पास संधि कर ली तथा जोधपुर मे अपनी पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुंभा के पुत्र रायमल से कर दिया।
महाराणा कुंभा के सबसे बङे पुत्र उदा ने कटारगढ़ मे 1468 ई. मे कुंभा की हत्या कर दी तथा स्वयं को चित्तौङ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस समय रायमल अपने ससुराल ईडर गया हुआ था। रायमल के लौटने के बाद चित्तौङ के पास उदा तथा रायमल में युद्ध हुआ।
जिसमें रायमल की विजय हुई तथा उदा भागकर गुजरात सुल्तान की शरण मे चला गया। गुजरात सुल्तान को मेवाङ पर आक्रमण करने के लिए राजी किया था। तथा अपनी बहन से विवाह का प्रस्ताव भी रखा था। लेकिन रास्ते में लौटते समय बिजली गिरने से उदा की मृत्यु हो गई।
रायमल (1473-1509)
राणा रायमल ने लगभग 36 वर्षों (1473-1509 ई.) तक शासन किया। किन्तु उसमें अपने अपने पिता की भांति शूरवीरता एवं कूटनीतिज्ञता का अभाव था। परिणामस्वरूप मेवाङ के कुछ अधीनस्थ क्षेत्र उसके हाथ से निकल गए। आबू, तारागढ़ और सांभर तो उदा के शासनकाल मे ही मेवाङ से अलग हो चुके थे।
रायमल ने इन्हें पुनः अधिकृत करने का कोई प्रयास नहीं किया। अब मालवा के सुल्तान ने रणथम्भौर, टोडा और बूंदी को अपने अधिकार मे कर लिया। टोडा के शासक राव सुरतान ने मेवाङ में आश्रय इस आशा से लिया था कि शायद मेवाङ से उसे सहायता मिल जाए। राव सुरतान के साथ उसकी पुत्री तारा भी थी जो अद्वितीय संुदर और वीरांगना थी। राव सुरतान ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह उस शूरवीर से करेगा जो टोडा जीतकर उसे वापस दिलाएगा।
राणा रायमल के द्वितीय पुत्र जयमल ने तारा की सुंदरता पर आसक्त होकर उससे विवाह करने की जिद की तथा राव सुरतान के साथ अत्यंत ही अशिष्ट व्यवहार किया। क्रुद्ध राव सुरतान ने जयमल को मौत के घाट उतार दिया और राणा को सूचित कर दिया। जयमल की मृत्यु के बाद रायमल के ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज ने तारा से विवाह करने का निश्चय कर टोङा पर आक्रमण कर जीत लिया।
कंुवर पृथ्वीराज ने टोडा का राज्य राव सुरतान को सौंप दिया तथा वचनबद्ध राव सुरतान ने तारा का विवाह पृथ्वीराज से कर दिया। राणा रायमल का ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज था और जयमल दूसरा सांगा तीसरा पुत्र था। जयमल राव सुरतान के हाथों मारा गया तथा सिरोही लौटते समय रास्ते में अपने बहनोई द्वारा दिए गए विषाक्त लड्डू खाने से पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई। इसी प्रकार रायमल के दो ज्येष्ठ पुत्रों का स्वर्गवास हो गया।
महाराणा सांगा (1509-1528)
रायमल की मृत्यु के बाद सांगा ’महाराणा संग्रामसिंह’ के नाम से मेवाङ की गद्दी पर बैठा। जिसका राज्याभिषेक 24 मई, 1509 को किया गया। महाराणा संग्रामसिंह ने जब मेवाङ राज्य संभाला उस समय दिल्ली मे लोदी वंश के सुल्तान सिकंदर लोदी, गुजरात मे महमूद शाह बेगङा और मालवा में नासीर शाह खिलजी का शासन था। सभी से महाराणा का सामना हुआ।
दिल्ली सल्तनत और राणा सांगा
सांगा के राज्यारोहण के समय दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोदी था। सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र इब्राहिम लोदी 22 नवम्बर, 1517 को दिल्ली के तख्त पर आसीन हुआ।
राणा सांगा ने पूर्वी राजस्थान के उन क्षेत्रों को जो दिल्ली सल्तनत के अधीन थे, जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। इससे इब्राहिम लोदी ने क्रुद्ध होकर सांगा को सबक सिखाने के लिए मेवाङ पर आक्रमण किया एवं दोनों के मध्य 1517 में हाङौती सीमा पर (बूंदी के निकट) खातौली का युद्ध हुआ। इस युद्ध मे इब्राहिम लोदी की पराजय हुई।
बाङी (धौलपुर) का युद्ध 1519 ई.
इब्राहिम लोदी ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए मियां मक्कन के नेतृत्व मे शाही सेना राणा सांगा के विरुद्ध भेजी। इस युद्ध मे शाही सेना को बाङी के युद्ध मे राणा सांगा ने बुरी तरह पराजित किया।
बाबर और महाराणा सांगा
राणा सांगा के समय काबुल का शासक बाबर (मोहम्मद जहीरुद्दीन बाबर) था। जो तैमूरलंग के वंशज उमरशेख मिर्जा का पुत्र था। इसकी माँ चंगेज खाँ की वंशज थी। बाबर ने 20 अपै्रल, 1526 को पानीपत की प्रथम लङाई मे दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित कर दिल्ली पर मुगल शासन की नींव डाली।
दिल्ली पर अधिकार करने के बाद बाबर ने उस समय के शक्तिशाली शासक राणा सांगा पर भी अपना अधिकार करने हेतु आक्रमण किया। वह भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। बाबर ने फतेहपुर सीकरी मे अपना पङाव डाला था। बाबर की ओर से मेहंदीख्वाजा द्वारा बयाना दुर्ग अधिगृहित कर लिया गया था।
बयाना का युद्ध
16 फरवरी, 1527 को राणा सांगा ने बाबर की सेना को हराकर बयाना दुर्ग पर कब्जा कर लिया। बाबर ने इस हार का बदला लेने के लिए राणा सांगा पर पुनः आक्रमण करने हेतु कूच किया।
बयाना की विजय के बाद राणा सांगा ने सीकरी जाने का सीधा मार्ग छोङकर भुसावर होकर सीकर जाने का मार्ग पकङा। वह भुसावर मे लगभग एक माह ठहरा रहा। इससे बाबर को खानवा के मैदान में उपयुक्त स्थान पर पङाव डालने और उचित सैन्य संचालन का समय मिल गया।
खानवा का युद्ध
17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान मे दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। खानवा का मैदान आधुनिक भरतपुर जिले की रूपवास तहसील में है। इस युद्ध मे महाराणा सांगा के झंडे के नीचे प्रायः सारे राजपूताना के राजा थे। राणा सांगा सारे राजपूताने की सेना के सेनापति बने थे। युद्ध के दौरान राणा सांगा के सिर पर एक तीर लगा। जिससे वे मूर्छित हो गए थे।
तब झाला अज्जा को सब राज चिह्नों के साथ महाराणा के हाथी पर सवार किया और उसकी अध्यक्षता मे सारी सेना लङने लगी। झाला अज्जा ने इस युद्ध मे अपने प्राण त्याग दिए। थोङी ही देर में महाराणा न होने की खबर सेना में फैल गई। इससे सेना का मनोबल टूट गया। बाबर विजयी हुआ।
मूर्छित महाराणा सांगा को राजपूत बसवा गांव (जयपुर) ले गए। खानवा के युद्ध मे सांगा की पराजय का मुख्य कारण महाराणा सांगा की प्रथम विजय के बाद तुरंत ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी का समय देना था। राजपूतों की युुद्ध तकनीक भी पुरानी थी और वे बाबर की युद्ध की नवीन ’तुलुगमा पद्धति’
से अनभिज्ञ थे।
सांगा को कालपी नामक स्थान पर उसके साथियों ने जहर देकर मार दिया। इसका दाह संस्कार मांडलगढ़ मे किया गया। जहां इसकी छतरी बनी हुई है। राणा सांगा को अंतिम भारतीय हिन्दू सम्राट के रूप मे स्मरण किया जाता है।
राणा विक्रमादित्य
महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद 5 फरवरी, 1528 के आसपास चित्तौङ राज्य का स्वामी राणा रतनसिंह हुआ। महाराणा रतन की 1531 ई. मे बूंदी के राजा सूरजमल के साथ लङाई मे मृत्यु हो गई। साथ ही सूरजमल भी मारा गया। फिर रतनसिंह का छोटा भाई विक्रमादित्य 1531 ई. मे मेवाङ का राजा बना। उस समय विक्रमादित्य छोटी उम्र मे था। अतः राजकार्य का संचालन उनकी माता हाङा रानी कर्मवती करती थीं। उस समय गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने सन् 1533 ई. मे चित्तौङ पर आक्रमण किया।
रानी कर्मवती ने बादशाह हुमायुं से सहायता मिलने की आशा पर अपना एक दूत हुमायुं के पास भेजा लेकिन हुमायूं ने सहायता नहीं की। अंततः कर्मवती ने सुल्तान से संधि कर ली। 24 मार्च, 1533 ई. को सुल्तान चित्तौङ से लौट गया परंतु 1534 ई. मे सुल्तान ने फिर आक्रमण किया। महाराणा विक्रमादित्य को उदयसिंह सहित बूंदी भेज दिया गया और युद्ध तक देवलिये के रावत बाघसिंह को महाराणा का प्रतिनिधि बनाया गया। वीर रावत बाघसिंह चित्तौङ दुर्ग के पाडनपोल दरवाजे के बाहर तथा राणा सज्जा व सिंहा हनुमान पोल के बाहर लङते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
लङाई मे सेनापति रूमी खां के नेतृत्व मे बहादुर शाह की सेना विजयी हुई और हाडी रानी कर्मवती ने जौहर किया। यह चित्तौङ का दूसरा साका कहलाता है। लेकिन बादशाह हुमायूं ने तुरंत ही बहादुरशाह पर हमला कर दिया। जिससे सुल्तान कुछ साथियों के साथ माण्डू भाग गया। बहादुर शाह के हारने पर मेवाङ के सरदारों ने पुनः चित्तौङ के किले पर अधिकार कर लिया। फिर विक्रमादित्य पुनः वहाँ के शासक हो गए।
बनवीर ने उदयसिंह का वध करना चाहा लेकिन स्वामीभक्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदय सिंह को बचा लिया। मेवाङ का स्वामी बनकर बनवीर राज्य करने लगा। उदयसिंह द्वितीय को लेकर पन्नाधाय कुंभलनेर पहुंची। वहां के किलेदार आशादेवपुरा ने उन्हें अपने पास रख लिया।
महाराणा उदयसिंह (1537-1572)
1537 में कुछ सरदारों ने उदयसिंह को मेवाङ का स्वामी मानकर कुंभलगढ़ मे राज्याभिषेक कर दिया। उदयसिंह ने सेना एकत्रित कर कुंभलगढ़ से ही चित्तौङ पर चढ़ाई की। बनवीर मारा गया। 1540 ई. मे उदयसिंह अपने पैतृक राज्य का स्वामी बना। 1559 ई. मे महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर की नींव डाली।
मुगल बादशाह अकबर ने 23 अक्टूबर, 1567 को चित्तौङ किले पर आक्रमण किया। महाराणा उदयसिंह ने मालवा के पदच्युत शासक राज बहादुर को अपने यहां शरण देकर अकबर के लिए चित्तौङ पर आक्रमण करने का अवसर प्रदान कर दिया। महाराणा उदयसिंह राठौङ जयमल और रावत पत्ता को सेनाध्यक्ष नियुक्त कर कुछ सरदारों के साथ मेवाङ के पहाङों में चले गए। अकबर से युद्ध मे जयमल और कल्ला राठौङ हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच और पत्ता रामपोल के भीतर वीरगति को प्राप्त हुए।
राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया। 25 फरवरी, 1568 को अकबर ने किले पर अधिकार कर लिया। यह चित्तौङ दुर्ग का तीसरा साका था। जयमल और पत्ता की वीरता पर प्रसन्न होकर अकबर ने आगरा जाने पर हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण की मूर्तियां बनवाकर किले के द्वार पर खङी करवाई। महाराणा उदयसिंह का 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगुंदा मे होली के दिन देहांत हो गया। जहां उनकी छतरी बनी हुई है।
महाराणा प्रताप (1572-1597)
⇒ महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को हुआ। उनकी माता जयवंता बाई, पाली के अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी। महाराणा उदयसिंह के बीस रानियां थीं और इनसे कुल मिलाकर 17 पुत्र पैदा हुए थे। महाराणा प्रताप उदयसिंह के सबसे बङे पुत्र थे। परंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपनी चहेती भटियानी रानी के प्रभाव में आकर उसके पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। अतः महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल को गद्दी पर बैठाने का षङयंत्र रचा गया।
किन्तु मेवाङ के स्वामीभक्त सरदारों ने जगमाल को राज्य विमुख कर 28 फरवरी, 1572 को महाराणा प्रताप का गोगुंदा मे राज्याभिषेक कर दिया। महाराणा प्रताप के लिए मेवाङ की गद्दी कांटों की सेज प्रमाणित हुई। दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाङ के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौङ के साथ मेवाङ के अनेक क्षेत्र मांडलगढ़, बदनोर, बागोर, जहाजपुर, रायला आदि पर मुगल आधिपत्य स्थापित हो चुका था।
1567 ई. तक जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, आमेर आदि के शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर उसके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। मेवाङ को उत्तर, पूर्व और पश्चिम में मुगल प्रदेशों से घेर लिया था।
मेवाङ की केवल दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी सीमा मुगल प्रभाव से मुक्त थी। 1567 ई. मे अकबर द्वारा चित्तौङ पर किए गए आक्रमण के फलस्वरूप मेवाङ के श्रेष्ठ योद्धा मारे जो चुके थे और मेवाङ साधनहीन हो चुका था। अकबर को भी अपने विस्तृत साम्राज्य में मेवाङ के पश्चिमी के छोटे से प्रदेश का स्वतंत्रत अस्तित्व असहनीय था। महाराणा प्रताप को शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर की शत्रुता विरासत में मिली थी।
अकबर और महाराणा प्रताप
⇒ अकबर ने महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए कूटनीतिक प्रयास किए। लेकिन सभी दूत प्रताप को राजी करने मे असफल रहे एवं वे महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने हेतु न मना सके।
हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को समझाने के लिए क्रमशः चार दूत भेजे गए: |
(1) सर्वप्रथम जून 1572 ई. मे दरबारी जलाल खाँ को महाराणा प्रताप के पास भेजा गया परंतु उसे कोई सफलता नहीं मिली। (2) दूसरी बार आमेर के मानसिंह को 1573 ई. मे संधि वार्ता के लिए भेजा गया। कर्नल टाॅड के अनुसार यह मुलाकात उदयपुर मे उदयसागर झील पर हुई। जिसमें भोज आयोजन मे प्रताप उपस्थित न होकर अपने पुत्र अमरसिंह को भेजा। (3) तीसरा शिष्टमंडल आमेर के राजा भगवंतदास के नेतृत्व में। (4) चोथा शिष्टमंडल टोडरमल के नेतृत्व में। |
हल्दी घाटी का युद्ध(haldi ghaati ka yuddh)
उपर्युक्त चारों वार्ता मंडल असफल रहे। फलस्वरूप 18 जून 1567 को अकबर के सेनापति मानसिंह के नेतृत्व मे महाराणा प्रताप के बीच हल्दीघाटी का युद्ध लङा गया। युद्ध अनिर्णित रहा था।
महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। हल्दीघाटी युद्ध मे महाराणा प्रताप की सेना में भील सेना का नेतृत्व पूंजा भील द्वारा किया गया था। इस युद्ध को आंखों देखने वाला प्रसिद्ध लेखक बंदायूनी था। प्रताप की सेना मे एकमात्र मुस्लिम सेनापति हकीम खां सूरी था। जिसने युद्ध प्रारंभ किया था।
हल्दीघाटी के युद्ध को कर्नल जेम्स टाॅड ने मेवाङ की थर्मोपोली कहा, अबुल फजल ने खमनौर का युद्ध और बंदायूनी ने गोगुन्दा का युद्ध कहा।
दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582)
महाराणा प्रताप ने मेवाङ की भूमि को मुक्त कराने का अभियान दिवेर से प्रारंभकिया। दिवेर वर्तमान राजसमंद जिले में उदयपुर-अजमेर मार्ग पर स्थित है। दिवेर के शाही थाने का मुख्तार सम्राट अकबर का काका सुल्तान खान था। महाराणा प्रताप ने उस पर अक्टूबर 1582 मे आक्रमण किया। मेवाङ और मुगल सैनिकों के मध्य निर्णायक युद्ध हुआ। महाराणा सम्राट को यश और विजय प्राप्त हुई। दिवेर की जीत की ख्याति चारों ओर फैल गई।
प्रताप के जीवन के बहुत बङे विजय अभियान का यह शुभ और कीर्तिदायी शुभारम्भ था। दिवेर की जीत के बाद महाराणा प्रताप ने चावंड मे अपना निवास स्थान बनाया। अकबर ने अब पुनः मेवाङ की ओर ध्यान देना प्रारंभ किया। प्रताप अब भी परास्त नहीं हुआ है, यह भारत विजेता सम्राट कैसे सहन कर सकता है। अतः अकबर ने आमेर के राजा भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कछवाहा के नेतृत्व मे 5 दिसंबर 1584 को एक विशाल सेना मेवाङ के विरुद्ध रवाना की लेकिन जगन्नाथ को भी कोई सफलता नहीं मिली। वह भी प्रताप को नहीं पकङ सका। यह अकबर का प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान था।
अब अकबर मेवाङ मामले मे इतना निराश हो चुका था कि छुटपुट कार्रवाई उसे निरर्थक लगी और बङे अभियान के लिए वह अवकाश नहीं निकाल सका। 1586 से 1596 तक दस वर्ष की सुदीर्घ अवधि मे प्रताप को जहाँ का तहाँ छोङ दिया गया। इसे अघोषित संधि कहा जा सकता है अथवा अपनी विवशता की अकबर द्वारा परोक्ष स्वीकृति। प्रताप ने 1585 में अपने स्थायी जीवन का आरंभ चावंड मे मेवाङ की नई राजधानी स्थापित करके किया।
प्रताप के अंतिम बारह वर्ष और उनके उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह के राजकाज के प्रारंभिक 16 वर्ष चावंड मे बीते। चावंड 28 साल मेवाङ की राजधानी रहा। चावंड गांव से लगभग आधा मील दूर एक पहाङी पर प्रताप ने अपने महल बनवाए। 19 जनवरी 1597 को प्रताप का चावंड मे देहांत हुआ। चावंड से कुछ दूर बांडोली गांव के निकट महाराणा का अंतिम संस्कार हुआ। जहां उनकी छतरी बनी हुई है।
अमरसिंह प्रथम (1597-1620)
यह महाराणा प्रताप के पुत्र थे। इनका राज्याभिषेक चावंड मे हुआ। इनके पुत्र कर्णसिंह व सिसोदिया सरदारों के कहने पर 5 फरवरी, 1615 ई. में शहजादा खुर्रम (मुगलों ) से संधि की।
कर्णसिंह (1620-1628)
ये मेवाङ के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें मुगल दरबार में 1000 की मनसबदारी दी गई। महाराणा कर्णसिंह ने जगमंदिर महलों को बनवाना शुरू किया। जिसे पुत्र जगतसिंह ने पूर्ण किया। इसलिए यह महल जगमंदिर एवं जगनिवास कहलाते हैं।
महाराणा जगतसिंह (1628-1652)
कर्णसिंह के बाद उसका पुत्र जगतसिंह प्रथम महाराणा बना। उसका राज्याभिषेक28 अप्रैल, 1628 को हुआ। 1652 ई. में उदयपुर में जगन्नाथ राय (जगदीश जी) का भव्य मंदिर बनवाया। मंदिर की विशाल प्रशस्ति की (जगन्नाथ राय प्रशस्ति) रचना कृष्णभट्ट ने की। 10 अप्रैल, 1652 को उदयपुर मे मृत्यु हो गई।
महाराणा राजसिंह (1652-1680)
इन्हें विजय कटा कातु की उपाधि दी गई। इन्होंने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति से विवाह किया। जजिया कर का विरोध किया। श्रीनाथ जी का मंदिर, अम्बा माता का मंदिर, द्वारिकाधीश मंदिर बनवाया। इन्होंने राजसमंद झील बनवाई। इस झील की नौ चैकी पाल पर ताकांे मे पच्चीस बङी-बङी शिलाओं पर राज प्रशस्ति शिलालेख लगा हुआ है।
जो भारत भर मे सबसे बङा शिलालेख और शिलाओं पर खुदे हुए ग्रंथों मे सबसे बङा है। इसकी रचना रणछोङ भट्ट तैलंग ने की थी। इन्होंने राजसमंद झील के पास राजनगर (वर्तमान में राजसमंद) नामक कस्बा बसाया था।
महाराणा जयसिंह (1680-1698)
महाराजा राजसिंह के बाद उनके पुत्र जयसिंह का राज्याभिषेक कुरज गांव मे हुआ। इन्होंने 1687 ई. मे जयसमंद झील बनाना प्रारंभ किया जो 1691 ई. मे बनकर तैयार हो गई। इसे ढेबर झील भी कहते है। इस झील मे दो बङे टापू हैं। इस झील मे छोटे-बङे सात टापू हैं। जिनमे सबसे बङे टापू का नाम ’बाबा का भांगङा’ व सबसे छोटे का नाम ’प्यारी’ है। जहां मीणा लोग रहते हैं।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1710)
⇒ महाराणा जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अमरसिंह द्वितीय मेवाङ के सिंहासनपर बैठे। उन्होंने अपनी पुत्री चंदा कंवर का विवाह आमेर के महाराजा सवाई जयसिंह से किया। मुगल बादशाह औरंगजेब का भी इनके द्वारा समय- समय पर विरोध किया गया।
संग्रामसिंह द्वितीय (1710)
इन्होंने मराठों के विरुद्ध राजस्थान के राजपूत नरेशों को संगठित करने हेतु हुरङा सम्मेलन आयोजित करने की योजना बनाई थी। परंतु इससे पूर्व ही उनका देहांत हो गया। इनके द्वारा उदयपुर मे सहेलियों की बाङी, सीसरमा गांव मे वैद्यनाथ का विशाल मंदिर बनवाए गए हैं।
महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734)
जगतसिंह द्वितीय ने 1734 ई. में मेवाङ की सत्ता संभाली। इनके समय अफगानआक्रमणकारी नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर उसे लूटा। मराठों ने इन्हीं के शासनकाल मे मेवाङ में पहली बार प्रवेश कर इनसे कर वसूल किया। जगतसिंह द्वितीय ने पिछोला झील मे जगत निवास महल बनवाया। इनके दरबारी कवि नेकराम ने जगतविलास ग्रंथ लिखा।
इन्होंने मराठों के विरुद्ध राजस्थान के राजाओं को संगठित करने के उद्देश्य से 17 जुलाई, 1734 ई. को हुरङा नामक स्थान पर राजाओं का सम्मेलन आयोजित कर एक शक्तिशाली मराठा विरोधी मंच बनाया। लेकिन यह मंच बाद मे निजी स्वार्थों के कारण असफल हो गया।
महाराणा भीमसिंह (1778 ई.)
1778 ई. में भीमसिंह मेवाङ की गद्दी पर बैठा। इनकी लङकी कृष्णाकुमारी के विवाह को लेकर जयपुर एवं जोधपुर मे संघर्ष हुआ। भीमसिंह ने अपनी पुत्री का रिश्ता जोधपुर नरेश भीमसिंह से तय किया था परंतु विवाह से पूर्व ही जोधपुर नरेश की मृत्यु हो जाने के कारण उन्होंने कृष्णाकुमारी का रिश्ता जयपुर नरेश जगतसिंह से तय कर दिया। इस पर मारवाङ के शासक मानसिंह ने ऐतराज किया एवं कहा कि उसका रिश्ता जोधपुर तय हुआ था।
अतः विवाह भी उनसे (मानसिंह से) ही होना चाहिए। फलस्वरूप जयपुर ने अमीर खां पिण्डारी की सहायता से मार्च 1807 मे गिंगोली नामक स्थान पर जोधपुर की सेना को युद्ध में हराया तथा फिर जयपुर की सेना ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। अंततः अमीर खाँ पिण्डारी व अजीतसिंह चुंडावत की सलाह पर 21 जुलाई 1810 ई. को कृष्णाकुमारी को जहर देकर इस विवाद को समाप्त किया गया।
1818 ई. मे महाराणा भीमसिंह ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से अधीनस्थ सहयोग संधि कर ली। इस प्रकार मेवाङ एक विदेशी शक्ति की दासता का शिकार हो गया।
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