आज के आर्टिकल में हम नवरात्रि पूजा विधि (Navratri Puja Vidhi) की सही विधि को जानेंगेऔर इससे होने वाले फायदों के बारे में भी पढेंगे।
नवरात्रि पूजा विधि – Navratri Puja Vidhi
हिंदू धर्म में नवरात्रि का बहुत महत्त्व है। प्रतिवर्ष कुल 4 नवरात्रि मनाई जाती हैं, जिनमें से दो प्रत्यक्ष और दो गुप्त नवरात्रि होती है। प्रत्यक्ष नवरात्रि ’शारदीय व चैत्र’ नवरात्रि है, जिसे गृहस्थी लोगों द्वारा बड़े धूमधाम तथा हर्षोल्लास के साथ मनायी जाती है। प्रत्येक वर्ष आश्विन माह में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक शारदीय नवरात्रि मनाई जाती है। हिंदूओं का बड़ा त्योहार शारदीय नवरात्र इस साल 15 अक्टूबर 2023 से शुरू हो रहा है। यह मां दुर्गा की पूजा का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है।
नवरात्रि में नौ दिन तक जगत जननी आदिशक्ति मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होती है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, शारदीय नवरात्रि हर साल आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होती है और नवमी तिथि के साथ समाप्त होती है। इस साल नवरात्रि की नवमी तिथि 23 अक्टूबर को है। इस बार शारदीय नवरात्रि 15 से 23 अक्टूबर तक होंगे और दशहरा 24 अक्टूबर 2023 को मनाया जाएगा।
शारदीय नवरात्रि पूरे उत्तरी और पूर्वी भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है। नवरात्रि अच्छाई और बुराई के बीच नौ दिनों की लड़ाई का एक प्रतीकात्मक उत्सव है, जिसका समापन दसवें दिन अच्छाई की जीत में होता है। इस दौरान माँ दुर्गा की शक्ति, ऊर्जा और ज्ञान की देवी के रूप में पूजा की जाती है।
धार्मिक मान्यता है कि जगत जननी आदिशक्ति मां दुर्गा की पूजा करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। साथ ही जीवन में व्याप्त दुख और परेशानियां दूर हो जाती हैं। ज्योतिषियों के मुताबिक, शारदीय नवरात्रि पर एक साथ कई शुभ योग बन रहे हैं। इन योगों में मां दुर्गा की पूजा करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
घटस्थापना हेतु शुभ मुहूर्त
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, प्रातःकाल घटस्थापना और देवी पूजा करने का विधान है। परन्तु इसमें चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग को वर्जित माने जाते है। ज्योतिष पंचांग के अनुसार, घटस्थापना का शुभ मुहूर्त आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि अर्थात् 15 अक्टूबर को सुबह 6 बजकर 21 मिनट से लेकर सुबह 10 बजकर 12 मिनट तक है।
इस समय जगत जननी आदिशक्ति माँ दुर्गा की प्रथम शक्ति के स्वरूप माँ शैलपुत्री की पूजा की जाती है। इसके बाद अभिजीत मुहूर्त में घटस्थापना कर सकते हैं। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पर अभिजीत मुहूर्त सुबह 11:44 बजे से 12:30 बजे तक है। इस अवधि में आप घटस्थापना करके देवी मां की पूजा कर सकते हैं।
शुभ योग
शारदीय नवरात्रि के पहले दिन बव करण बनाई जाती है। बव करण शुभ कार्यों के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। इस दौरान आप शुभ कार्य कर सकते हैं। वहीं बव करण के दौरान मां दुर्गा की पूजा करने से साधक को अक्षय फल की प्राप्ति होती है। उसके बाद बालव करण का निर्माण होता है।
घटस्थापना में ध्यान रखने योग्य बातें
नवरात्रि में कलश या घटस्थापना से पहले उस स्थान को गंगा जल से शुद्ध किया जाता है। कलश को पांच प्रकार के पत्तों से सजाया जाता है और उसमें हल्दी की गांठ, सुपारी, दूर्वा आदि रखी जाती है। कलश को स्थापित करने के लिए उसके नीचे बालू की वेदी बनाई जाती है, जिसमें जौ बोये जाते हैं। धन-धान्य देने वाली देवी अन्नपूर्णा को प्रसन्न करने के लिए जौ बोने की विधि की जाती है। पूजा स्थल के मध्य में मां दुर्गा की फोटो या मूर्ति स्थापित करते है। उसके बाद मां दुर्गा का श्रृंगार, भूमिका, चावल, सिन्दूर, माला, फूल, चुनरी, साड़ी और आभूषण चढ़ाए जाते हैं। कलश में अखंड दीपक जलाया जाता है और व्रत के अंतिम दिन तक जलते रहना चाहिए।
घटस्थापना अर्थात् मिट्टी का घड़ा, चांदी, अष्ट धातु, पीतल या आदि धातु का कलश, जिसे नवरात्रि के पहले दिन के शुभ मुहुर्त में ईशान कोण में स्थापित किया जाता है।
इसके लिए सबसे पहले थोड़ी सी मिट्टी डालें और फिर इसमें जौ डालें। फिर एक परत मिट्टी की बिछाए और एक बार फिर जौ डालें। फिर से मिट्टी की परत बिछाये। अब इस पर ऊपर से थोड़ा पानी का छिड़काव कर दें। उसके बाद इसे स्थापित कर दें।
घटस्थापना करने से पहले एक लकड़ी के टुकड़े पर एक पाट रखें। फिर उस पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर घट स्थापित करें। घट पर रोली या चंदन से स्वास्तिक बनाये। घट के गले में कलावा बांधे। कलश के नीचे चावल रखें और फिर कलश के अंदर सिक्का, सुपारी, पंचपल्लव (आम के पत्ते) और सप्तम मृतिका (मिट्टी) डालें। घट के आसपास मिठाई, प्रसाद रखें। सबसे पहले हम गणेश की पूजा करते हैं और फिर देवी का आह्वान करते हैं। उसके बाद देवी देवताओं का आह्वान करते हुए प्रार्थना करें।
नवरात्रि पूजन की सामग्री
घटस्थापना के लिए कलश, जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र, जौ बोने के लिए शुद्ध साफ मिट्टी, यदि जौ उपलब्ध ना हो तो गेहूं, गंगाजल, रोली, कलावा, सुपारी, दूर्वा, पीपल या आम के पत्ते, रेशेदार ताजा नारियल, हवन के लिए सूखा नारियल, पीतल, तांबा या स्टील का जल से भरा हुआ एक लोटा, कलश को ढकने के लिए मिट्टी या तांबे का ढक्कन, कलश में रखने के लिए एक सिक्का, हवन सामग्री, फूल, पान के पत्ते, लौंग और इलायची, रुई बत्ती, कपूर, तिल का तेल या घी, दीपक जलाने के लिए दीपक, भोग के लिए मिठाई और अलग-अलग फल, माता की चैकी, लाल रंग का कपड़ा आदि सामग्री खरीदें।
माता के शृंगार की सामग्री
माता के शृंगार के लिए मोतियों या फूलों की माला, सुंदर सी साड़ी, माता की चुनरी, कुमकुम, लाल बिंदी, आलता, लाल चूड़ियां, सिंदूर, शीशा, मेहंदी आदि खरीदें।
नवरात्रि उपवास की सामग्री –
नवरात्रि के उपवास के लिए सात्विक भोजन के लिए घी, मूंगफली, सिंघाड़े या कुट्टू का आटा, मखाना, आलू, लौकी, हरी मिर्च, व्रत के दौरान खाई जाने वाली सब्जियां और ताजे फल जैसी सामग्री सात्विक भोजन के लिए घर लाएं।
नवरात्रि की पूजा विधि –
नवरात्रि के पहले दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें और स्वच्छ कपड़े पहन लें। पूजा स्थल को साफ करें। उसके बाद भगवान गणेश जी का आह्वान करें। मां दुर्गा की मूर्ति स्थापित करें और माता रानी का श्रृंगार करें। माता रानी को फल, फूल, धूप, दीप आदि अर्पित करें। माता रानी को सुंदर फूलों की माला पहनाएं। इसके बाद उन्हें चुनरी उढ़ाएं। फिर देवी दुर्गा के नाम पर एक अखंड दीपक जलाएं। फिर कलश को अपने पास रख लें। फिर पवित्र धागा को मिट्टी के घड़े के गले में बांध दें। कलश को भरपूर मिट्टी और अनाज के बीजों से भरें।
फिर कलश को पवित्र जल से भर दें। फिर इसमें सुपारी, चंदन, अक्षत, दूर्वा घास और सवा रुपया डालें। कलश के ऊपर आम या अशोक के पांच पत्ते रखें। कलश के मुख पर एक साबुत नारियल रखें। नारियल को लाल कपड़े में लपेटकर मौली से बांध दें। कलश को मिट्टी से भरे उस गमले के बीच में रखें जहां आपने जौ के बीज बोए हैं। कलश स्थापना के साथ ही नौ दिनों तक चलने वाले नवरात्रि व्रत का संकल्प लें। देवी दुर्गा के आशीर्वाद का आह्वान करते हुए, माँ दुर्गा की पूजा आरंभ कर दे। माता के मंत्रों का जाप करें। मां दुर्गा के ’दुर्गा सप्तशती स्तोत्र’ का पाठ करें। फिर मां को उनके प्रिय व्यंजन का भोग लगाये। मां दुर्गा की आरती करें और भोग वितरित करें।
नवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व
पौराणिक कथाओं के अनुसार नवरात्रि की शुरुआत के पीछे अलग-अलग कथाएं हैं। राक्षसों के राजा महिषासुर ने स्वर्ग में देवताओं के खिलाफ युद्ध शुरू कर दिया था। उसका मुकाबला करने के लिए, शिव, ब्रह्मा और विष्णु की त्रिमूर्ति सहित सभी देवताओं ने अपनी दिव्य शक्तियों में शक्ति और शक्ति की माँ को जन्म दिया। इस प्रकार देवी दुर्गा का अवतार हुआ और उन्होंने अपनी शक्ति और ज्ञान से महिषासुर के खिलाफ नौ रातों की भयंकर लड़ाई के बाद उसे मार डाला। इस प्रकार विजय का दसवां दिन विजय दशमी के रूप में मनाया जाता है- बुराई पर अच्छाई की जीत का दिन।
भगवान राम सीता को लंका में कैद से छुड़ाने के लिए रावण के खिलाफ युद्ध शुरू करने वाले थे। युद्ध शुरू करने से पहले, राम ने देवी दुर्गा की पूजा की और उनका आशीर्वाद लिया। पूजा के लिए उन्हें 108 कमल चाहिए थे। गिनती पूरी करने के लिए, जब राम अपनी एक आंख को हटाने वाले थे, तो देवी दुर्गा प्रकट हुईं और उन्हें अपनी दिव्य ‘शक्ति’ का आशीर्वाद दिया। उस दिन राम ने युद्ध जीत लिया था और इसलिए इसको विजय दशमी के रूप में भी जाना जाता है।
कहा जाता है कि हिमालय के राजा दक्ष की बेटी उमा नवरात्रि के दौरान दस दिनों के लिए घर आती है। उमा ने भगवान शिव से विवाह किया और यह पर्व उनके पृथ्वी पर आने का जश्न के रूप में मनाया जाता है।
दुर्गा माता के नौ रूप – Nau Deviyon ke Naam
पहला रुप | शैलपुत्री |
दूसरा रुप | ब्रह्मचारिणी |
तीसरा रुप | चन्द्रघंटा |
चौथा रुप | कूष्माण्डा |
पांचवां रुप | स्कंदमाता |
छठा रुप | कात्यायनी |
सातवां रुप | कालरात्रि |
आठवां रुप | महागौरी |
नौवां रुप | सिद्धिदात्री |
दुर्गा माता की आरती
जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी। तुमको निशिदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी॥
ओम जय अंबे गौरी……………
मांग सिन्दूर विराजत, टीको मृगमद को। उज्जवल से दोउ नैना, चन्द्रवदन नीको॥
ओम जय अंबे गौरी……………
कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै। रक्तपुष्प गल माला, कण्ठन पर साजै॥
ओम जय अंबे गौरी……………
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्परधारी। सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुखहारी॥
ओम जय अंबे गौरी……………
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती। कोटिक चन्द्र दिवाकर, सम राजत ज्योति॥
ओम जय अंबे गौरी……………
शुम्भ-निशुम्भ बिदारे, महिषासुर घाती। धूम्र विलोचन नैना, निशिदिन मदमाती॥
ओम जय अंबे गौरी……………
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे। मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे॥
ओम जय अंबे गौरी……………
ब्रहमाणी रुद्राणी तुम कमला रानी। आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी॥
ओम जय अंबे गौरी……………
चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैरूं। बाजत ताल मृदंगा, अरु बाजत डमरु॥
ओम जय अंबे गौरी……………
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता। भक्तन की दु:ख हरता, सुख सम्पत्ति करता॥
ओम जय अंबे गौरी……………
भुजा चार अति शोभित, वर-मुद्रा धारी। मनवान्छित फल पावत, सेवत नर-नारी॥
ओम जय अंबे गौरी……………
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती। श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योति॥
ओम जय अंबे गौरी……………
श्री अम्बेजी की आरती, जो कोई नर गावै। कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावै॥
ओम जय अंबे गौरी, ओम जय अंबे गौरी
दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥
निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूं लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला।
नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे।
दरश करत जन अति सुख पावे॥
तुम संसार शक्ति लै कीना।
पालन हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला।
तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी।
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥
रूप सरस्वती को तुम धारा।
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥
धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।
परगट भई फाड़कर खम्बा॥
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।
श्री नारायण अंग समाहीं॥
क्षीरसिन्धु में करत विलासा।
दयासिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥
केहरि वाहन सोह भवानी।
लांगुर वीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर खड्ग विराजै।
जाको देख काल डर भाजै॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला।
जाते उठत शत्रु हिय शूला॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत।
तिहुंलोक में डंका बाजत॥
शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे।
रक्तबीज शंखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी।
जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा।
सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ़ संतन पर जब जब।
भई सहाय मातु तुम तब तब॥
अमरपुरी अरु बासव लोका।
तब महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावें।
दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर आचारज तप कीनो।
काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।
काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप का मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो॥
शरणागत हुई कीर्ति बखानी।
जय जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो।
तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा तृष्णा निपट सतावें।
रिपू मुरख मौही डरपावे॥
शत्रु नाश कीजै महारानी।
सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥
करो कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।
जब लगि जिऊं दया फल पाऊं ।
तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।
सब सुख भोग परमपद पावै॥
देवीदास शरण निज जानी।
करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥
॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥
दुर्गा मां के मंत्र
1. सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।
2. ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।
3. या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
4. नवार्ण मंत्र ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै’ का जाप अधिक से अधिक अवश्य करें।
दुर्गा माता के नौ रूपों की कथाएँ
माँ शैलपुत्री
माँ शैलपुत्री, दुर्गा के नौ रूपों में से प्रथम हैं जिनकी पूजा भक्तों द्वारा नवरात्रि उत्सव के दौरान की जाती है। नवरात्रि के नौ दिन देवी दुर्गा के नौ रूपों को समर्पित हैं और इस पवित्र त्योहार के पहले दिन देवी शैलपुत्री की पूजा की जाती है।
शैलपुत्री पूजा मुहूर्त
देवी शैलपुत्री की पूजा से पहले घटस्थापना की प्रक्रिया की जाती है।
शैलपुत्री स्वरूप
- माथे पर अर्धचंद्र
- दाहिने हाथ में त्रिशूल
- बाएं हाथ में कमल
- नंदी बैल की सवारी।
संस्कृत में शैलपुत्री का अर्थ है “पहाड़ की बेटी”। पौराणिक कथा के अनुसार, माता शैलपुत्री अपने पिछले जन्म में भगवान शिव की पत्नी (सती) और दक्ष की बेटी थीं। एक दिन जब दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन किया तो उसमें सभी देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन भगवान शंकर को नहीं। उधर, सती सचमुच यज्ञ में जाना चाहती थीं। भगवान शिव ने उनसे कहा कि सभी देवताओं को आमंत्रित किया गया है, लेकिन उन्हें नहीं; ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है. सती की हठ को देखकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।
जब सती घर लौटीं तो उनके मन में भगवान शिव के प्रति तिरस्कार की भावना आने लगी। दक्ष ने भी उनके बारे में अपमानजनक शब्द कहे। इससे सती को अत्यंत कष्ट हुआ। वह अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकी और योगाग्नि से स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। इस भयंकर दुःख से उबरकर भगवान शंकर ने इस यज्ञ को नष्ट कर दिया। फिर अगले जन्म में यही सती हिमालय के राजा शैलराज की पुत्री के रूप में जन्मीं और उन्हें शैलपुत्री नाम दिया गया।
हिमालय के राजा का नाम हिमवत था इसलिए देवी को हेमवती भी कहा जाता है। माता की सवारी बैल है इसलिए इनका एक नाम वृषारूढ़ा भी है।
मंत्र
ॐ देवी शैलपुत्र्यै नमः॥
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
माँ ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। देवी के इस रूप को माता पार्वती का अविवाहित रूप माना जाता है। ब्रह्मचारिणी एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ब्रह्मा के समान आचरण करने वाली। उनकी कठोर तपस्या के कारण उन्हें तपश्चारिणी भी कहा जाता है।
माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप.
माता ब्रह्मचारिणी सफेद वस्त्र धारण करती हैं और उनके दाहिने हाथ में जप की माला और बाएं हाथ में कमंडल होता है। देवी का स्वरूप अत्यंत उज्जवल एवं प्रकाशमय है। इसके अलावा, देवी प्रेम का अवतार भी हैं।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की, जिसके बाद उनके माता-पिता ने उन्हें मना करने की कोशिश की। इन सबके बावजूद, देवी ने इंद्रिय गतिविधियों के स्वामी, भगवान कामदेव से मदद मांगी। ऐसा कहा जाता है कि कामदेव ने शिव पर वासना का तीर चलाया था और इस तीर ने शिव की ध्यान अवस्था को भंग कर दिया था, जिससे भगवान क्रोधित हो गए और उन्होंने अपना बलिदान दे दिया।
कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती, इसके बाद पार्वती शिव के रूप में रहने लगीं। देवी पर्वत पर गईं और वहां कई वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिसके कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया। इस कठोर तपस्या से देवी ने भगवान शंकर का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद भगवान शिव ने अपना रूप बदला और पार्वती के पास पहुंचे और उन्हें भला-बुरा कहा, लेकिन देवी ने उनकी एक न सुनी। भगवान शिव ने उन्हें गोद लिया और उनसे विवाह किया।
मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥
चंद्रघण्टा माता
नवरात्रि उत्सव के तीसरे दिन चंद्रघंटा माता की पूजा की जाती है। नाम का अर्थ चंद्र यानी चंद्रमा और घंटा यानी समय के समान है। उनके माथे पर चंद्रमा चमकने के कारण उन्हें चंद्रघंटा कहा जाता था। इसे चन्द्रकाण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इस देवी की उपस्थिति भक्तों को साहस और वीरता की भावना प्रदान करती है और दुख को दूर करती है। देवी चंद्रघंटा पार्वती की मां का उग्र रूप हैं, लेकिन वह केवल तभी प्रकट होती हैं जब वह क्रोधित होती हैं और अन्यथा उनका व्यक्तित्व बहुत सौम्य होता है।
माता चंद्रघंटा का स्वरूप
चंद्रघंटा की मां शेर की सवारी करती हैं और उनका शरीर सोने की तरह चमकता है। उनकी 10 भुजाएं हैं. उनकी बाईं चार भुजाओं में त्रिशूल, गदा, तलवार और धनुष सुशोभित हैं और उनका पांचवां हाथ दूल्हे की मुद्रा में है। मां की अन्य चार भुजाओं में कमल, बाण, धनुष और माला है और उनका पांचवां हाथ अभय मुद्रा में है। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित देवी मां की यह आकृति युद्ध में देखी जा सकती है।
पौराणिक मान्यताएँ
जब भगवान शिव ने देवी से कहा कि वह किसी से विवाह नहीं करेंगी तो देवी को बहुत बुरा लगा। देवी की यह स्थिति भगवान को आध्यात्मिक रूप से हानि पहुंचाती है। इसके बाद भगवान बारात लेकर राजा हिमवान के पास पहुंचे। उनके विवाह समारोह में सभी प्रकार के जानवर, भगवान शिव, देवता, अघोरी, आत्माएं आदि उपस्थित थे।
इस भयानक जुलूस को देखकर देवी पार्वती की मां मीना देवी डर के मारे बेहोश हो गईं। इसके बाद, देवी ने परिवार को शांत किया और सांत्वना दी और चंद्रघंटा के रूप में भगवान शिव के सामने प्रकट हुईं। तब उन्होंने शिव को प्यार से सांत्वना दी और उन्हें अपना दामाद बनकर आने को कहा। शिव ने देवी की बात मान ली और खुद को आभूषणों से सजा लिया।
मंत्र
ॐ देवी चन्द्रघण्टायै नमः॥
कूष्माण्डा माता
नवरात्रि के चौथे दिन कुष्मांडा माता की पूजा की जाती है। कुष्मांडा एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “कु” का अर्थ है “छोटा/सूक्ष्म”, “उष्मा” का अर्थ है “ऊर्जा” और “अंडा” का अर्थ है “अंडा”। देवी कुष्मांडा के स्वरूप की पूजा करने से भक्तों को धन, समृद्धि, सुख और शांति की प्राप्ति होती है।
मां कुष्मांडा का स्वरूप
मां कूष्मांडा की 8 भुजाएं हैं जो चक्र, गदा, धनुष, बाण, अमृत कलश, कमंडलु और कमल से सुशोभित हैं। माँ शेरनी की सवारी करती हैं.
पौराणिक मान्यताएँ
जब सर्वत्र अंधकार था और ब्रह्मांड का अस्तित्व नहीं था, तब देवी कुष्मांडा ने हल्की मुस्कान से ब्रह्मांड की रचना की। देवी का यह रूप ऐसा है कि वह सूर्य के नीचे भी निवास कर सकती हैं। यह रूप भी सूर्य के समान चमकता है। ब्रह्मांड के निर्माण के बाद, देवी ने त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) और त्रिमूर्ति (काली, लक्ष्मी और सरस्वती) का निर्माण किया। देवी का यह स्वरूप इस संपूर्ण ब्रह्मांड का रचयिता है।
मंत्र
ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः॥
माता स्कंदमाता
नवरात्रि उत्सव के पांचवें दिन माता स्कंदमाता की पूजा की जाती है। देवी के इस रूप के नाम का अर्थ यह है कि स्कंद का अर्थ है भगवान कार्तिकेय/भगवान मुरुगन और माता का अर्थ है माँ, इसलिए उनके नाम का अर्थ है स्कंद की माँ।
स्कंदमाता का स्वरूप
मां स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं। देवी के दोनों हाथों में कमल का फूल, एक हाथ में कार्तिकेय और दूसरे में अभय मुद्रा है। देवी का एक नाम पद्मासना भी है क्योंकि वह कमल के फूल पर विराजमान हैं। मां की आराधना से श्रद्धालुओं को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। सच्चे मन से देवी की पूजा करके लोग मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। देवी के इस रूप को अग्नि देवी के रूप में भी पूजा जाता है। माताएँ विश्वासियों को प्रेम देती हैं क्योंकि वे प्रेम का प्रतीक हैं।
पौराणिक मान्यताएँ
मान्यता के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था जिसने ब्रह्मदेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी। एक दिन उसके पश्चाताप से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे दर्शन दिये। फिर उसने अमरता मांगी। ब्रह्माजी ने समझाया कि इस धरती पर जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु अवश्य होगी। तब उसने सोचा कि भगवान शिव कभी विवाह नहीं करेंगे क्योंकि वह एक तपस्वी हैं। इसलिए, इस विचार के साथ, उसने भगवान से केवल शिव के पुत्र द्वारा मारे जाने का आशीर्वाद मांगा। ब्रह्माजी उससे सहमत हुए और तथास्तु कहा। फिर उसने दुनिया भर में कहर बरपाना और लोगों को मारना शुरू कर दिया।
उसकी क्रूरता से तंग आकर देवताओं ने भगवान शिव की ओर रुख किया और उनसे उससे विवाह करने के लिए कहा। फिर उन्होंने देवी पार्वती से विवाह किया और कार्तिकेय को जन्म दिया। जब भगवान कार्तिकेय बड़े हुए, तो उन्होंने राक्षस तारकासुर को हराया और लोगों को बचाया।
मंत्र
ॐ देवी स्कन्दमातायै नमः॥
कात्यायनी माता
नवरात्रि के छठे दिन कात्यायनी माता की पूजा की जाती है। देवी पार्वती ने राक्षस महिषासुर को मारने के लिए यह रूप धारण किया था। मां का यह रूप काफी क्रूर माना जाता है, यही कारण है कि मां कात्यायनी को युद्ध की देवी भी कहा जाता है।
माँ कात्यायनी का स्वरूप
कात्यायनी की मां शेर की सवारी करती हैं। उनकी चार भुजाएँ हैं: उनके दो बाएँ हाथों में कमल का फूल और तलवार है, और उनके दो दाहिने हाथों में वरद और अभय मुद्रा है। देवी को लाल वस्त्र पहनाए गए हैं।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक मान्यता के अनुसार, देवी कात्यायनी ने ऋषि कात्यायन को जन्म दिया था, इसलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा। कई स्थानों पर यह भी उल्लेख मिलता है कि वह देवी शक्ति का अवतार हैं और ऋषि कात्यायन ने सबसे पहले उनकी पूजा की थी, इसलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा।
जब महिषासुर नामक राक्षस ने पूरी दुनिया में कहर बरपाया, तो देवी कात्यायनी ने उसका वध किया और ब्रह्मांड को उसके अत्याचार से मुक्त कराया। तलवार आदि हथियारों से सुसज्जित देवी और राक्षस महिषासुर के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही देवी उनके पास पहुंची, उन्होंने भैंस का रूप धारण कर लिया। तब देवी ने अपनी तलवार से उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी। देवी को महिषासुर मर्दिनी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने महिषासुर का वध किया था।
मंत्र
ॐ देवी कात्यायन्यै नमः॥
माता कालरात्रि
नवरात्रि उत्सव के सातवें दिन माता कालरात्रि की पूजा की जाती है। उन्हें देवी पार्वती के समकक्ष माना जाता है। देवी के नाम काल का अर्थ है मृत्यु/समय और रात्रि का अर्थ है रात। नाम का शाब्दिक अर्थ है “अंधकार का नाश करने वाला”।
कालरात्रि माँ की छवि
देवी कालरात्रि की त्वचा कृष्ण के समान है। वह गधे पर सवारी करता है। देवी की चार भुजाएं हैं, उनके दाहिने हाथ में अभय या वर मुद्रा है और उनके बाएं हाथ में तलवार या खड्ग है।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक मान्यता के अनुसार, शुंब और निशुंब नाम के दो राक्षस थे जिन्होंने दुनिया में कहर बरपाया था। इस युद्ध में देवताओं के राजा इंद्रदेव की हार हुई और राक्षसों ने संसार पर शासन कर लिया। तब सभी देवता संसार वापस लेने के लिए माता पार्वती के पास गए। जब देवताओं ने देवी को उनकी दुर्दशा के बारे में बताया, तो देवी घर पर स्नान कर रही थीं और उन्होंने चंडी को उनकी मदद के लिए भेजा।
जब देवी चंडी राक्षस से युद्ध करने गईं तो राक्षस ने चंड-मुंड को उनके विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। फिर उन्होंने देवी मां कालरात्रि की रचना की। तब देवी ने उसका वध कर दिया और उन्हें चामुंडा नाम दिया गया। उसके बाद रेक्टबीज नामक राक्षस उनसे युद्ध करने आया। वह अपने शरीर को एक विशालकाय शरीर में बदलने में सक्षम था और उसके खून (खूना) के भ्रष्टाचार के माध्यम से एक नया राक्षस (रेक्टबिज) भी उभरा। इसलिए देवी ने उसे मारकर उसका रक्त पीने का विचार किया ताकि उसका रक्त पृथ्वी पर न गिरे और अन्य लोगों का जन्म न हो।
माता कालरात्रि के अनेक उल्लेख मिलते हैं। उनमें से एक बताइये कि देवी पार्वती कैसे दुर्गा बनीं? मान्यता के अनुसार, देवी पार्वती की अनुपस्थिति के दौरान दुर्गासुर नामक राक्षस ने शिव और पार्वती के निवास स्थान कैलाश पर्वत पर हमला करने की कोशिश की थी। इसलिए देवी पार्वती ने उनकी देखभाल के लिए कालरात्रि को भेजा, लेकिन वह विशालकाय होते गए। तब देवी शक्तिशाली हो गईं और स्वयं को अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर लिया। बाद में, जब दुर्गासुरु ने फिर से कैलाश पर हमला करने की कोशिश की, तो देवी ने उसे मार डाला। इसीलिए उन्हें दुर्गा कहा गया।
मंत्र
ॐ देवी कालरात्र्यै नमः॥
माता महागौरी
नवरात्रि के आठवें दिन माता महागौरी की पूजा की जाती है। सच्चे मन से आस्थावानों की प्रार्थना मां अवश्य स्वीकार करती हैं। महागौरी नाम का अर्थ: महा का अर्थ है बड़ा, गौरी का अर्थ है गोरा। देवी का रंग गोरा होने के कारण इन्हें महागौरी कहा गया।
माँ महागौरी का स्वरूप
देवी महागौरी की चार भुजाएं हैं और वे बैल पर सवार हैं। एक दाहिने हाथ में वह अभय मुद्रा रखती हैं, दूसरे में वह त्रिशूल रखती हैं, अपने बाएं हाथ में वह दमरा रखती हैं और दूसरे बाएं हाथ से वह वर मुद्रा में हैं।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक मान्यता के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपना पति बनाने के लिए गर्मी, सर्दी और बारिश को झेलते हुए कठोर तपस्या की, जिसके कारण उनका रंग काला हो गया। इसके बाद भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें गंगा के पवित्र जल से स्नान कराया, जिसके बाद देवी का रंग चमक उठा। तभी से वे महागौरी के नाम से विख्यात हुईं।
मंत्र
ॐ देवी महागौर्यै नमः॥
माता सिद्धिदात्री
नवरात्रि उत्सव के नौवें दिन माता सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। उनके नाम का अर्थ है सिद्दी, जिसका अर्थ है आध्यात्मिक शक्ति, और देहत्री, जिसका अर्थ है क्षमा। इसका अर्थ है सफलता देने वाली। देवी विश्वासियों से बुराई और अंधकार को दूर करती हैं और उन्हें ज्ञान के प्रकाश से भर देती हैं।
माता सिद्धिदात्री का स्वरूप
सिद्दात्री की मां कमल के फूल पर बैठती हैं और शेर की सवारी करती हैं। उनकी चार भुजाएं हैं, उनके दाहिने हाथ में गदा, दूसरे दाहिने हाथ में चक्र और बाएं हाथ में शंख और कमल का फूल है। इस देवी के दर्शन से सभी प्रकार के फल प्राप्त होंगे।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने विभिन्न सिद्धियां प्राप्त करने के लिए देवी सिद्धिदात्री की पूजा की थी। देवी उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं और उन्होंने सभी फल भगवान शिव को दे दिए। तब भगवान शिव का आधा शरीर देवी सिद्दात्री में परिवर्तित हो गया। इसके बाद भगवान शिव अर्धनारीश्वर कहलाये।
मंत्र
ॐ देवी सिद्धिदात्र्यै नमः॥
नवरात्रि व्रत का उद्यापन
कुछ लोग अष्टमी के दिन कन्या पूजन करते हैं तो कई लोग नवमी के दिन कन्या पूजन करते हैं। ऐसे में अष्टमी या नवमी, जिस भी दिन आप कन्या पूजन करना चाहते हैं, उस दिन 9 कन्याओं और 1 छोटे बच्चे को कन्या पूजन के लिए आमंत्रित करें और भोजन बनाएं।
- नवमी के दिन आप सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और देवी मां की पूजा करें।
- पूजा करने के बाद हवन करें और इसे देवी मां को अर्पित करें।
- इसके बाद कन्या को प्रणाम करें. इसे करने के लिए सबसे पहले कन्याओं के पैर धोएं और उन्हें साफ आसन पर बैठाएं।
- अब सभी कन्याओं को तिलक लगाएं और हाथों पर कलावा बांधें.
- अब कन्याएं श्रद्धापूर्वक भोजन करें। आप अपनी श्रद्धा के अनुसार कन्याओं को उपहार भी दे सकते हैं।
- भोग ग्रहण करने के बाद कन्याओं को अपने हाथ-पैर धोने चाहिए।
- अब कन्याओं को दक्षिणा और प्रसाद बांटकर आशीर्वाद लें।
- कन्या पूजन करने के बाद परिवार के सदस्यों को प्रसाद वितरित करें और स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें।
नवरात्रि के नियम
- सबसे पहले तो नवरात्रि के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करें।
- नौ दिनों तक सुबह जल्दी उठें, स्नान करें और अपने घर और मंदिर को अच्छी तरह से साफ करें।
- नौ दिनों तक व्रत रखें. यदि आप पूरे दिन उपवास नहीं कर सकते तो एक समय कुछ खा लें।
- मां दुर्गा के सामने अखंड ज्योति जलाएं और उनकी पूजा करें।
- देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा करें और उचित प्रसाद चढ़ाएं।
- अपनी मां को लाल चुनरी, श्रृंगार का सामान और आभूषण उपहार में दें।
- नवरात्रि के दौरान सात्विक भोजन करें, प्याज, लहसुन आदि का सेवन न करें। इन दिनों में।
- नवरात्रि के दौरान नंगे पैर रहना शुभ माना जाता है।
- पूजा के अंत में दुर्गा सप्तशती और दुर्गा चालीसा का पाठ करें।
- कन्या पूजन करें और गरीबों की मदद करें।
- नवरात्रि के दौरान आपको अपने बाल, नाखून या दाढ़ी नहीं कटवानी चाहिए।
- नवरात्रि के दौरान नौ दिनों तक चमड़े की वस्तुओं का प्रयोग न करें।
- नवरात्रि के दौरान जमीन पर सोने की कोशिश करें।
- साफ और धुले हुए कपड़े पहनें.
- नवरात्रि के दौरान दिन में सोना वर्जित है इसलिए दिन में नहीं सोना चाहिए।
- व्रत के दौरान फल खाएं और एक जगह बैठकर केवल एक बार ही भोजन करें।
- घर में प्याज, लहसुन या अन्य गैर-सब्जी उत्पाद न पकाएं।
- नवरात्रि के दौरान तंबाकू, पान, गुटखा और शराब का सेवन करने से बचें।
- नवरात्रि के दौरान भूलकर भी किसी स्त्री या कन्या का अपमान न करें, इससे देवी मां नाराज हो जाएंगी।
- पूजा के बीच में खड़े न हों, इससे पूजा अधूरी हो जाएगी।
- नवरात्रि के दौरान शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए।
क्या खाना है और क्या नहीं ?
- आप संवत चावल या बरगद का आटा, कुट्टू या कुट्टू का आटा, साबूदाना या साबूदाना, राजगिरा, सिंघाड़े का आटा या सिंघाड़े का आटा इस्तेमाल कर सकते हैं.
- आप आलू, शकरकंद, कद्दू, तारो, स्क्वैश, पालक, स्क्वैश, खीरा और गाजर खा सकते हैं।
- प्याज, लहसुन, भिंडी, बैंगन और मशरूम से बचें।
- गेहूं, चावल, सूजी, मैदा, मक्के का आटा, बीन्स और दालें उन खाद्य पदार्थों में से हैं जिन्हें व्रत के दौरान नहीं खाना चाहिए।
आज के आर्टिकल में हमनें के बारे में विस्तार से पढ़ा , हम उम्मीद करते है कि आपने नवरात्रि पूजा विधि (Navratri Puja Vidhi) के बारे में वांछित जानकारी प्राप्त की होगी ….धन्यवाद
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