Psychology Facts in Hindi – मनोविज्ञान का अर्थ, परिभाषा और क्षेत्र

दोस्तो आज के आर्टिकल में हम मनोविज्ञान के अंतर्गत मनोविज्ञान क्या है  (Psychology Facts in Hindi) इसका अर्थ एवं क्षेत्र को विस्तार से पढेंगे ताकि हम इस विषयवस्तु को अच्छे से समझ सकें ।

मनोविज्ञान का अर्थ एवं क्षेत्र

Psychology Facts in Hindi

दोस्तो जैसा कि आप जानते होंगे कि पशु और मनुष्य में बुद्धि की मात्रा का विशेष अन्तर है। इसी बुद्धि के कारण मनुष्य ने सम्पूर्ण जीव एवं अजीवों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है और इसी बुद्धि के कारण मनुष्य ने अपने कल्याण हेतु नाना प्रकार की विज्ञानों, सिद्धान्तों तथा शास्त्रों का विकास किया है।

बुद्धि ने ही मनुष्य को उन्नति के पथ पर इतना आगे अग्रसर किया है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के बल पर ही विभिन्न कला, साहित्य तथा प्रज्ञान में उन्नति की है।

मनोविज्ञान विषय का अभ्युदय तथा विकास भी मनुष्य की बुद्धि का ही परिणाम है। मनोविज्ञान अपने जन्म के समय में पूरी तरह से सैद्धान्तिक तथा विषयगत विषय था, किन्तु कालान्तर में मानव बुद्धि ने मनोविज्ञान को उन्नति के पथ पर अग्रसर कर इसके सैद्धान्तिक, व्यावहारिक तथा प्रयोगात्मक पक्षों का विकास किया।

आज मनोविज्ञान एक पूर्ण विकसित विज्ञान का रूप ले चुका है, जो विभिन्न क्षेत्रों को अपने कलेवर में सजोये हुए है।

मनुष्य ने मनोविज्ञान का विकास अति प्राचीन समय में ही कर लिया था, किन्तु यह बात दूसरी है कि तब इसका नामकरण पृथक् से नहीं हुआ था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हम मनोविज्ञान के अनेकानेक पहलुओं का अध्ययन करते हैं। इसी प्रकार गीता में श्रीकृष्ण के उपदेशों की मीमांसा करें तो हम पाते हैं कि गीता में भी व्यावहारिक मनोविज्ञान की स्पष्ट अवधारणा उसमें है।

वेद, उपनिषद, बौद्ध, साहित्य तथा जैन साहित्य में भी मन, आत्मा, चेतन, अहम्, परम्-अहम् आदि तत्त्वों की पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणों से चर्चा की गई है। अरस्तू के समय के दर्शनशास्त्र को पढ़ें तो हम उसमें भी मनोविज्ञान के विभिन्न पक्षों की विवेचना पायेंगे। इससे सिद्ध होता है कि मनोविज्ञान विषय तो बहुत पुराना है, किन्तु इसका पृथ्क अस्तित्व तथा नामकरण उतना अधिक पुराना नहीं है।

मनोविज्ञान की परिभाषा का विकास – Manovigyan in Hindi

एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मनोविज्ञान विषय का विकास कुछ वर्षों पूर्व ही हुआ और अपने छोटे से जीवन-काल में ही मनोविज्ञान ने अपने क्षेत्र तथा स्वरूप में गुणात्मक तथा विकासात्मक परिवर्तन किये। इन परिवर्तनों के साथ ही साथ मनोविज्ञान की परिभाषाओं में भी परिवर्तन आये।

वर्तमान समय में मनोविज्ञान का प्रयोग जिस अर्थ से हो रहा है उसे समझने के लिए विभिन्न कालों में दी गई मनोविज्ञान की परिभाषाओं के क्रमिक विकास को समझना होगा। विभिन्न कालों में मनोविज्ञान की परिभाषा विभिन्न रूपों में दी गई है।

मनोविज्ञान की परिभाषा – Manovigyan ki Paribhasha

(1) आत्मा का विज्ञान (Science of Soul)-

सोलहवीं शताब्दी तक यह माना जाता रहा कि मनोविज्ञान का कार्य आत्मा (Soul) का अध्ययन तथा विवेचन करना है। अतः इसे ’आत्मा का विज्ञान’ माना जाता था। इस समय मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र का ही एक अंग था, उसका पृथक् कोई अस्तित्व न था।

मनोविज्ञान की इस प्रकार की प्रवृत्ति के कारण ही इसका नाम लेटिन भाषा के ’साइकोलाॅगस’ से लिया गया। लेटिन भाषा में ’साइको’ (Psycho) का अर्थ है- ’आत्मा’ (Soul) तथा ’लाॅगस’ का अर्थ है- ’शास्त्र या विज्ञान’ अर्थात् आत्मा का विज्ञान

लम्बे समय तक मनोविज्ञान को आत्मा के विज्ञान के रूप में स्वीकार किया जाता रहा। प्लेटो, अरस्तू तथा अनेकानेक भारतीय ऋषियों ने आत्मा का अध्ययन करने पर बल दिया।

तत्कालीन लेटिन तथा भारतीय दर्शन का अधिकांश भाग ’आत्मा’ पर विचार करने में ही लगा हुआ था किन्तु ’आत्मा’ का न तो कोई स्वरूप ही है और न कोई आकार ही है। फिर आत्मा किसे कहते हैं? इसका स्वभाव, रंग-रूप, कार्य, प्रकृति आदि क्या हैं? आदि ऐसे प्रश्न व समस्याएँ थीं जिनका उत्तर न तो वैज्ञानिक ही दे सके और न मनोवैज्ञानिक ही।

इसकी अनुभूति तो केवल दार्शनिक चिन्तन में ही की जा सकती थी। अतः मनोविज्ञान की आत्मा के विज्ञान के रूप में कटु आलोचना होने लगी। इन आलोचनाओं से बचने के लिए बाद के मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की इस परिभाषा को अमान्य कर दिया।

(2) मस्तिष्क का विज्ञान – Science of Mind

मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान कहने वालों की जो तीव्र आलोचना हुई, उस आलोचना से बचने की दृष्टि से बाद के मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को मस्तिष्क का विज्ञान कहा। इनके अनुसार मनोविज्ञान वह शास्त्र है जिसका उद्देश्य ’मन’ का अध्ययन करना है।

इस परिभाषा के कारण मनोविज्ञान की विषय-वस्तु ’आत्मा’ से हटकर ’मस्तिष्क’ पर आ गई, उसका कलेवर भी बदल गया, किन्तु कुछ आधारभूत प्रश्न ज्यों के त्यों बने रहे, जैसे- मन या मस्तिष्क क्या है? उनका स्वरूप, कार्य, क्रिया आदि क्या हैं?

उस सूक्ष्म तत्त्व को स्थूल रूप कैसे प्रदान कर सकते हैं? इन जैसे अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर भी तत्कालीन मनोवैज्ञानिक न दे सके। परिणामस्वरूप, मनोविज्ञान को पुनः आलोचनाओं का सामना करना पङा। आलोचनाओं से बचने के लिये मन के विज्ञान की परिभाषा को छोङ दिया तथा ये अन्य सर्वमान्य परिभाषा की तलाश में लग गये।

(3) चेतना का विज्ञान – Science of Consciousness

जब मनोविज्ञान को मस्तिष्क का विज्ञान माना जाता था तब के मनोवैज्ञानिक मस्तिष्क के स्वभाव, शक्तियों तथा उसकी प्रकृति के बारे में सन्तोषप्रद उत्तर न दे पाए ।

वे यह न बता सके कि मस्तिष्क का व्यक्ति के व्यक्तित्व, चिन्तन तथा विश्लेषण शक्ति से क्या सम्बन्ध है, किन्तु वैज्ञानिक खोजों से जब यह मालूम पङा कि मस्तिष्क एक इकाई है, वह खण्डों (Faculties) में विभक्त नहीं है तथा यह समग्र रूप से कार्य करता है इन उपयोगी तथ्यों के ज्ञान के आधार पर मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को ’चेतना (Consciousness) का विज्ञान’ कहना प्रारम्भ कर दिया।

मनोविज्ञान को ’चेतना का विज्ञान’ बताने वालों में जेम्स (James) तथा वुण्ट (Wundt) आदि का नाम उल्लेखनीय है।

इन विद्वानों के अनुसार प्राणी वातावरण तथा उद्दीपकों के प्रति इसलिए प्रतिक्रियाएँ करता है, क्योंकि उसमें चेतना है, चेतना प्राणी की अनिवार्य विशेषता है, चेतना के कारण ही वह व्यवहार करता है किन्तु पूर्ववर्ती दो परिभाषाओं के समान ही मनोविज्ञान की यह परिभाषा भी आलोचनाओं से अछूती न बची। इस परिभाषा के आलोचकों का कहना था कि चेतना एक अस्पष्ट प्रत्यय है।

इसकी तीन स्थितियाँ हो सकती हैं- पूर्ण चेतन, अर्धचेतन तथा अचेतन। हम किस चेतनावस्था का अध्ययन मनोविज्ञान में करते हैं? यह निश्चित न था। दूसरे, बालकों तथा पशुओं की चेतन अवस्था का पता लगाना भी कठिन था। फलतः इस परिभाषा के अनुसार पशु तथा बालकों का अध्ययन मनोविज्ञान में नहीं हो सकता था। इन आलोचनाओं के कारण मनोविज्ञान की इस परिभाषा को भी त्याग देना पङा।

(4) व्यवहार का विज्ञान (Science of Behaviour)-

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में व्यवहारवादियों (Behaviourists) ने मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा। इनके अनुसार मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो मानव के समस्त प्रकार के व्यवहारों का अध्ययन करती है।

व्यवहार अत्यन्त जटिल प्रत्यय है, इसे समझने के लिए उच्चस्तरीय वैज्ञानिक विधियों की आवश्यकता होती है। फलतः व्यवहारवादी मनोविज्ञान को पूरी तरह वैज्ञानिक रूप प्रदान करने की चेष्टा कर रहे हैं। आज भी ’मनोविज्ञान व्यवहारों का विज्ञान’ है।

मनोविज्ञान की परिभाषा के इस क्रमिक विकास पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आर. एस. वुडवर्थ (R.S. Woodworth) ने लिखा है कि ’’सर्वप्रथम मनोविज्ञान ने अपनी आत्मा को छोङा, फिर मस्तिष्क त्यागा, फिर अपनी चेतना खोई और अब वह एक प्रकार के व्यवहार को अपनाये हुए है।’’
“First Psychology lost its soul, then it lost its mind, then it lost its consciousness it still has behaviour of a kind.”

मनोविज्ञान की परिभाषाएँ – Psychology Facts in Hindi

मनोविज्ञान क्या है? इसकी प्रकृति क्या है? इसका क्षेत्र क्या है? आदि प्रश्नों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई मनोविज्ञान की कतिपय परिभाषाओं का अध्ययन करें, इसी उद्देश्य से नीचे मनोविज्ञान की कुछ परिभाषाएँ दी गयी हैं:

1. वुडवर्थ – ’’मनोविज्ञान वातावरण के अनुसार व्यक्ति के कार्यों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।’’
“Psychology is the science of the actiyities of the individual in relation to the environment.”  – Woodworth

2. वाटसन – ’’मनोविज्ञान व्यवहार का शुद्ध विज्ञान है।’’
“Psychology is the positive science of behaviour.” – Watson

3. मरफी – ’’मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो प्राणी तथा वातावरण के मध्य परस्पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है।’’
“Psychology is the science which deals with the mutual interaction between an organism and environment.” –Murphy

4. मन – ’’मनोविज्ञान अनुभवों के आधार पर किये गये अनुभव तथा व्यवहार का विधायक विज्ञान है।’’
“Psychology is the positive science of experience and behaviour interpreted in terms of experience.” –Munn

5. मैक्डूगल – ’’मनोविज्ञान आचरण तथा व्यवहार का विधायक विज्ञान है।’’
Psychology is the positive science of conduct and behaviour.” –McDougall

6. वारेन – ’’मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो प्राणी तथा वातावरण के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है।’’
“Psychology is the science which deals with the mutual inter-relation between organism and environment.” –Warren

7. जेम्स ड्रेवर – ’’मनोविज्ञान वह विधायक विज्ञान है जो मानव तथा पशु के उस व्यवहार का अध्ययन करता है जो उसके आन्तरिक मनोभावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति करता है, इसको हम मानसिक जीवन कहते हैं।’’
“Psychology is positive science which studies the behaviour of men and animal, so far that behaviour is regared as an expression of that inner life of thought the feelings which we call mental life.” –James Drever

8. चार्ल्स ई. स्किनर – ’’मनोविज्ञान जीवन की विविध परिस्थितियों के प्रति प्राणी की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है। प्रतिक्रियाओं अथवा व्यवहारों से तात्पर्य प्राणी की सभी प्रकार की प्रतिक्रियाओं, समायोजन, कार्यों तथा अनुभवों से है।’’
“Psychology deals with responses to any every kind of situation that life presents. By responses or behaviour is meant, all forms of processes, adjustment, activities and expressions of the organism.” – Charles E. Skinner

मनोविज्ञान की उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर मनोविज्ञान के स्वभाव के सम्बन्ध में हम निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं-

1. मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। इसमें हम मानव तथा पशु दोनों के समस्त प्रकार के व्यवहारों का अध्ययन करते हैं।

2. यह विज्ञान है। विज्ञान के रूप में यह विधायक (Positive) है। एक विधायक विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान कारण-प्रभावों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं तथा उद्दीपक-प्रतिक्रियाओं की विवेचना वैज्ञानिक विधियों से करता है।

3. मनोविज्ञान मनोदैहिक तथ्यों का अध्ययन करता है। इस स्वभाव के कारण मनोविज्ञान न केवल मानसिक घटनाओं का ही अध्ययन नहीं करता वरन् वह दैहिक (Physical) तथ्यों का भी अध्ययन करता है।

4. मनोविज्ञान न केवल मानव-व्यवहारों का ही अध्ययन करता है वरन् यह पशु-व्यवहारों का भी अध्ययन करता है।

मनोविज्ञान-भारतीय दृष्टिकोण से-

भारत का अतीत आर्थिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक रूप से बङा ही समृद्ध तथा वैभवशाली रहा है। जब विश्व के अन्य देश अज्ञानता के गहन अन्धकार में गोते लगा रहे थे, तब भारत के ऋषि-मुनि जीवन की तथा ईश्वर से सम्बन्धित गहन विषयों पर चिन्तन-मनन कर रहे थे तथा यहाँ के कला-शिल्पी अपनी कलाओं से विश्व को चकित कर रहे थे तो व्यापारी-वर्ग भी विदेशों से व्यापार कर यहाँ अपार समृद्धता ला रहे थे।

इसी युग में वेद, गीता, महाभारत, उपनिषद तथा पुराण जैसे सारगर्भित

उच्च स्तरीय ग्रन्थों की रचना की जिनमें जीवन के हर पक्ष का बङे ही सुन्दर ढंग से विवेचन किया गया है। इन ग्रन्थों में न केवल पुरुष, आत्मा, मन, परमात्मा, बुद्धि तथा प्रकृति आदि का ही विवेचन है अपितु इनमें चेतन, अचेतन, चेतना, प्रत्यक्षीकरण, आत्म-सिद्धि, कर्म, जन्म, पुनर्जन्म, सत्, रज, तम आदि जैसे गूढ़ विषयों पर भी अति उच्च स्तरीय विवेचना मिलती है। इन्हीं ग्रन्थों में से हम आज के मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का सहज ही निरूपण कर सकते हैं।

1. वैदिक युगीन मनोविज्ञान

वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। इन वेदों के अध्ययन से वैदिककालीन मनोवैज्ञानिक धारणाओं का ज्ञान होता है। किन्तु इन वेदों में मनुष्य, पुरुष, प्रकृति इन तीनों के मध्य सम्बन्ध तथा मानसिक शक्तियों के विषय में विस्तृत व्याख्या है।

ऋग्वेद में ज्ञान-प्राप्ति की चार अवस्थाओं का उल्लेख है-

(1) संवेगात्मक प्रत्यक्षण (Sensory Perception)

(2) प्रमापीकरण (Testimony)

(3) तर्क (Reasoning)

(4) अन्तर्दृष्टि (Insight)।

ज्ञान के यही चार स्तर हैं। अन्तर्दृष्टि ज्ञान का सर्वोच्च स्तर है।

व्यक्ति की शक्तियों का सबसे अच्छा वर्णन पुरुष-सूक्त में मिलता है। पुरुष-सूक्त के अनुसार विश्व की सभी घटनाएँ पुरुष के कारण घटित होती है। संसार की रचना पुरुष ने की है, वही इसका स्रष्टा है। भूत, वर्तमान एवं भविष्य की सभी घटनाएँ पुरुष-प्रयासों का ही परिणाम हैं।

अवबोध की अवस्था में पुरुष नानात्व को प्राप्त होता है। नानात्व की अवस्था में ही व्यक्ति में समायोजन तथा संकलन (Integration) प्राप्त होता है। नानात्व की अवस्था में व्यक्ति में उम्मीद की भावना की प्रधानता होती है।

वेदों में ’प्राण’ शब्द का पर्याप्त प्रयोग है। ’प्राण’ का अर्थ पाँचों इन्द्रियों, सभी छः संवेदनाओं तथा मनन् (मन) के मेल से लगाया गया है। मन में ’रूप’ तथा ’नाम’ के दो भाग निहित होते हैं। यह मन ही समस्त मानसिक क्रियाएँ तथा प्रतिक्रियाएँ सम्पादित करता है।

वेदों के अनुसार आत्मा अजर-अमर है। इसकी सत्ता निरन्तर बनी रहती है। ’पुरुष’ नामक प्रत्यय के क्रम में रहता है, वह जन्म लेता है और कालान्तर में मृत्यु को प्राप्त होता है जबकि ’आत्मा’ इस क्रम से मुक्त है। आत्मा की परमात्मा एवं एक विश्व-शक्ति है।

आत्मा अपने स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों ही रूपों में व्याप्त है। सूक्ष्म रूप में यह एक जीवन-शक्ति है जो पुरुष को जन्म, जरा तथा मृत्यु को प्रदान करती है। यही स्थूलता पुरुष को सान्तत्व प्रदान करती है। सूक्ष्मता के अर्थ में आत्मा हमारी विभिन्न ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, प्राण, श्वास तथा अवयव के रूप में व्याप्त है।

वैदिक साहित्य में आत्मा ’अहम्’ वाचक के रूप में खुलकर प्रयुक्त हुआ है। आत्मा के लिए स्थान-स्थान पर ’अहं’, ’आत्मन्’ तथा ’तमन्’ जैसे निजवाचक सर्वनामों का खूब प्रयोग किया गया है। आत्मा अजर-अमर है। जिन महाज्ञानी पुरुषों को आत्मा की अनुभूति हो जाती है, वे मृत्यु से भय नहीं करते क्योंकि उनमें आत्मा का प्रवेश हो जाता है। फिर भी आत्मा के लिए निजवाचक सर्वनामों का प्रयोग करते है।

संक्षेप में, वैदिक साहित्य में ’आत्मा’ को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। आत्मा की अमरता के कारण ही पुनर्जन्म होता है। मृत्यु क्या है? आत्मा द्वारा शरीर-परिवर्तन होता है। आत्मा द्वारा शरीर-परिवर्तन की प्रक्रिया ही मृत्यु है। प्राचीन, जर्जरित व जीर्ण शरीर को त्याग आत्मा द्वारा नवीन शरीर को धारण किया जाता है।

आत्मा, पुरुष तथा प्रकृति के अलावा वेदों में ब्रह्म का भी वर्णन मिलता है। आत्मा के पाँच रूप हैं-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय। इन्हीं के सन्दर्भ में ब्रह्म के पाँच स्वरूप हैं- अन्न, प्राण, मन, विज्ञान तथा आनन्द। आनन्द ’ब्रह्म’ का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। व्यक्ति का प्रमुख लक्ष्य ’ब्रह्म’ की प्राप्ति होना चाहिए। ब्रह्म को प्राप्त होने की स्थिति में जीव जीवन-मरण के आवागमन से मुक्त हो जाता है।

2. औपनिषदिक दार्शनिक मनोविज्ञान-

जिस युग में उपनिषदों की रचना की गई उसे औपनिषदिक युग कहते हैं। इनकी रचना ईसा से प्रायः बारह सौ वर्ष पूर्व की गई थी। प्रारम्भिक अवस्था में इनकी संख्या केवल दस थी, किन्तु कालान्तर में इनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ गई। उपनिषद विभिन्न दार्शनिकों से अलग-अलग समय में व्यक्त विचारों की उपज है। क्योंकि उपनिषदों की रचना अलग-अलग दार्शनिकों ने अलग-अलग समय में की है, इसलिए इनमें संगीत तथा एकरूपता का पूर्ण अभाव है।

फिर भी उस लम्बे समय में जिन विचारों का बोलबाला था, उनका सामान्यीकरण किया जा सकता है। उपनिषदों में अधिकांश चर्चा पुरुष, आत्मा, शरीर तथा प्रकृति के सम्बन्ध में ही है।

पुरुष शब्द के लिए सामान्यतया ’पुर’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ’पुर’ का अर्थ रक्त, माँस तथा मज्जा से युक्त शरीर है। यह अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय होता है। मनोमय स्थिति तक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व रहता है। किन्तु विज्ञानमय स्थिति से विविधता का ह्रास प्रारम्भ होता है और आनन्दमय स्थिति में पुरुष की व्यक्तिगतता समाप्त होकर समग्रता तथा एकता में विलीन हो जाती है। यही आत्म-ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है।

जब पुरुष मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसके प्राण वायु में, शरीर पृथ्वी में, रक्त तथा वीर्य जल में, वाणी अग्नि में, चक्षु आदित्य में, आत्मा प्रकाश में, मन चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशा में, केश वनस्पति में तथा लोम औषधि में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार आकाश का निर्माण आत्मा से हुआ है। उपनिषदों के अनुसार आत्मा तथा शरीर में गुणात्मक (आत्मा × शरीर) सम्बन्ध है जबकि पश्चिमी दार्शनिक इनके बीच योगता (आत्मा + शरीर) का सम्बन्ध मानते हैं।

स्वप्न क्या है? यह पूर्ण निद्रा तथा जागरण के बीच की अवस्था है। दूसरे शब्दों में जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था तथा निद्रावस्था चेतना की तीन स्थिति है। जब प्राणी की सभी उद्दीप्त ज्ञानेन्द्रियाँ सचेत व जाग्रत हों तब जागरण की स्थिति कहलाती है और जब वे अर्ध-चेतन एवं अपूर्ण रूप से जाग्रत हों तब स्वप्नावस्था कहलाती है और जब वे पूर्ण रूप से अचेत एवं सुप्त हों तब निद्रावस्था कहलाती है।

इस अवस्था में समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ प्राणमय हो जाती हैं और अपना कार्य बन्द कर देती हैं, किन्तु मन सक्रिय रहता है। यह सिद्धान्त फ्रायड के सिद्धान्त से काफी मिलता-जुलता है। आत्मा कभी भी निद्रा को प्राप्त नहीं होती है। निद्रावस्था में प्राणी अपने को मनोमय कोष में समेट लेता है इसलिए ज्ञान-तन्तु तथा बुद्धि क्षुब्ध नहीं हो पाती है।

उपनिषदों में स्वप्नों की बङी ही तर्कयुक्त व्याख्या की गई है। स्वप्नों में प्राणी जो कुछ भी देखता है वह निराधार नहीं होता है। जाग्रत अवस्था में प्राणी जो कुछ भी अनुभव प्राप्त करता है, स्वप्नावस्था में भी उन्हीं अनुभवों की पुनरावृत्ति होती है।

फ्रायड के अनुसार जाग्रत अवस्था में जो विचार क्रियान्वित नहीं हो पाते वे अचेतन मन में चले जाते हैं फिर निद्रावस्था में वे विचार स्वप्नों के माध्यम से बाहर निकलते हैं। उपनिषदों की स्वप्न-व्याख्या फ्रायड के विचारों से काफी सादृश्य रखती है।

माण्डूक्य सबसे छोटा उपनिषद है। इसमें आत्म के चार ’पादों’ का वर्णन है।

प्रथम पाद – ’वैश्वानर’ है। यह जाग्रत अवस्था में व्यक्त होता है और इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध अन्नमय कोष से है। वैश्वानर पाद के छः अंग हैं-द्युलोक सिर, सूर्य नेत्र, वायु प्राण, आकाश देह, अन्न मूत्रस्थान एवं पृथ्वी चरण है। वैश्वानर के उन्नीस मुख हैं- पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच प्राणदि वायु तथा मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं- नेत्र, कर्ण, रसना, नाक तथा त्वचा। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं- हाथ, पैर, गुदा, जिह्वा तथा उपस्थ इन्द्रियाँ। पाँच प्राण वायु हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान।

दूसरा पाद – आत्मा का दूसरा पाद ’तेजस्’ है तेजस् पाद स्वप्न-प्रधान होता है। आत्मा अपने सात अंगों तथा उन्नीस मुखों के द्वारा स्वप्नों में सूक्ष्म विषणों का भोग करती है। इस अवस्था में मन अधिक तेजस्वी एवं सक्रिय रहता है, वह सूक्ष्म क्रियाओं से प्रधानयुक्त रहता है, इसलिए इस अवस्था को तेजस् अवस्था कहते हैं।

तीसरा पाद – आत्मा का तीसरा पाद ’प्राज्ञ’ है। यह सुप्तावस्था की स्थिति है। इस स्थिति में आत्मा किसी प्रकार के भोग की इच्छा नहीं करती है और न स्वप्न ही देखती है। इस स्थिति में शरीर पूर्ण निष्क्रिय रहता है। यह ज्ञान रूप चित्त की अवस्था है इसलिए प्राज्ञ स्थिति कहलाती है।

चौथा पाद – आत्मा का चौथा पाद ’नान्तः प्रज्ञम्’ है। यह पाँचों तत्त्वों के ऊपर एवं परे एक ऐसी अवस्था है जिसमें आत्मा तुरीय में निवास करती है। इस स्थिति को शिवरूप कहा जा सकता है। इस अवस्था का शब्दों में वर्णन सम्भव नहीं है। नान्तः प्रज्ञम् स्थिति में आत्मा का सम्बन्ध न किसी कोष से रहता है और न किसी शरीर से। सिद्ध पुरुष योगाभ्यास व साधना से इस स्थिति को प्राप्त होते हैं।

उपनिषदों में आत्मा को तीन भागों में विभक्त किया गया है- विभू, अन्तः प्रज्ञ तथा प्रज्ञानघन। विभु का सम्बन्ध बाह्य जगत् से है। बाह्य जगत् ही सम्पूर्ण वातावरण है। अन्तः का सम्बन्ध मन से होता है तथा प्रज्ञानघन का सम्बन्ध, ’हृदयाकाश’ से होता है।

3. गीता और दार्शनिक मनोविज्ञान-

गीता व्यावहारिक जीवन के पहलुओं पर व्यापक चचा्र करती है। कर्म क्या है? धर्म क्या है? विश्व क्या है? सीमित ’अहम्’ से ऊपर आकर किस प्रकार ’आत्मा’ की अनुभूति की जा सकती है? आदि प्रश्नों का उत्तर गीता में बङी स्पष्ट भाषा में दिया गया है।

गीता के अनुसार ब्रह्म से ही सम्पूर्ण जगत का निर्माण होता है अतः आत्मा, शरीर, प्रकृति तथा पुरुष आदि सभी ब्रह्म के ही अंग हैं। कोई भी तत्त्व ब्रह्म से पृथक नहीं हो सकता है।

गीता दर्शन में प्रकृति के दो रूप माने हैं- परा तथा अपरा। परा प्रकृति का रूप चैतन्यमय है तथा जीव रूप में दृष्टिगोचर होती है, जबकि अपरा प्रकृति पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, तेज, बुद्धि, मन तथा अहंकार के रूप में पाई जाती है। ये परा तथा अपरा दोनों ही प्रकृति ब्रह्म के साथ सम्बन्धित होती हैं।

आत्म-रक्षा करने के दो उपाय गीता में वर्णित हैं। प्रथम तो प्रत्येक जीव अपनी आत्म-रक्षा स्वयं करता है। वह हिंसात्मक तरीका है। दूसरा तरीका दया तथा अहिंसा का है। यदि जीव दूसरों की रक्षा करना सीख जाये तो आत्म-रक्षा स्वयं हो जाती है। यह तरीका फल-रहित तथा निष्काम है और धर्म-क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। गीता पर-रक्षा के माध्यम से आत्म-रक्षा पर बल देती है।

आत्मा की अमरता का तथ्य गीता में भी स्वीकारा गया है। गीता में स्पष्ट कहा है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा का नाश नहीं होता है। गीता के अनुसार आत्मा अजर, अमर, अविनाशी, अमाप्य, सार्वभौम तथा निरन्तर है।

गीता अहंकार को निम्न स्तरीय मनोवैज्ञानिक क्षमता मानती है। अब प्राणी में अपने-पराये का भाव आ जाता है तो उसमे अहंकार आ जाता है। अहंकार की स्थिति में प्राणी अपना सम्बन्ध किसी दूसरी चीज से स्थापित कर उसे अपना मान लेता है। जब प्राणी ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है तो अपने-पराये का भाव नहीं रहता और अहंकार की स्थिति का लोप हो जाता है।

गीता पुनर्जन्म में विश्वास करती है क्योंकि आत्मा अजर-अमर है इसलिए जिस प्रकार शरीर पुराने वस्त्रों का त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है। उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण करती है। इस प्रकार आत्मा का पुनर्जन्म होता रहता है।

गीता कर्मवाद के विषय में कहती है कि प्राणी की जैसी गुणात्मक प्रवृत्तियाँ तथा संस्कार होते हैं वैसे ही वह कर्म करेगा।
गीता निष्काम भाव पर काफी बल देती है। जब प्राणी किसी फल की प्राप्ति के उद्देश्य से कर्म करता है तो कभी-कभी उसकी आशाएँ भग्न हो जाती हैं। इससे उसके मस्तिष्क में तनाव आता है और वह आक्रान्ता (Aggressive) बन जाता है। इससे मन तथा व्यक्तित्व का सन्तुलन अव्यवस्थित होता है।

व्यक्तित्व के सन्तुलित विकास के लिए आवश्यक है कि आशाओं को भग्न होने दिया जाये। गीता इसके लिए सर्वोत्तम उपाय बताती हैं कि प्राणी को सभी कर्म निष्काम भाव से फल की आशा छोङकर करने चाहिए।

इससे भग्नाशा नहीं होगी और व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास सम्भव होगा। दूसरे शब्दों में जब प्राणी सम्पूर्ण इच्छाओं, कामनाओं तथा आशाओं का त्याग कर अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता हैं तो स्थितप्रज्ञ की स्थिति कहलाती है। यदि प्राणी स्थितप्रज्ञ स्थिति में रहकर कार्य करता है तो भग्नाशा का प्रश्न नहीं आता है। स्थितिप्रज्ञता की स्थिति में प्राणी सुख से सुखी तथा दुःख नहीं होता है और वह द्वेष, राग तथा क्रोध का शिकार नहीं हो पाता है।

मनोविज्ञान विधायक विज्ञान के रूप में – Psychology in Hindi

(PSYCHOLOGY AS A POSITIVE SCIENCE)

मनोविज्ञान की जो ऊपर विभिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं, उनसे स्पष्ट है कि मनोविज्ञान एक विधायक या शुद्ध विज्ञान है। इस शुद्ध विज्ञान के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए जेम्स ड्रेवर ने स्पष्ट लिख दिया कि मनोविज्ञान का उद्देश्य मानव तथा पशु-व्यवहार के कारणों की खोज करना तथा मानव-समाज का विधिवत् अध्ययन करना है।’’

किन्हीं कारणों की खोज करना तथा किसी का विधिवत् अध्ययन करना यह दोनों ही उद्देश्य शुद्ध विज्ञान के होते हैं। इस दृष्टिकोण से मनोविज्ञान एक शुद्ध विज्ञान है।

मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। व्यवहार के विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान मानव तथा व्यवहारों का विधिवत् तथा सोद्देश्य निरीक्षण करता है, निरीक्षण के लिए वैज्ञानिक विधियों तथा यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। व्यवहार बहुत-कुछ मानसिक स्थिति पर निर्भर करते हैं, इसलिए वैज्ञानिक विधियों तथा यन्त्रों से मानसिक स्थिति का भी अध्ययन मनोविज्ञान में किया जाता है।

विधायक विज्ञानों की विशेषता होती है कि वह अपनी विषय-वस्तु सुनिश्चित रूप से परिभाषित करें। मनोविज्ञान को विधायक विज्ञान के रूप में अपनी विषयवस्तु-व्यवहार को भी निश्चित रूप से परिभाषित करने की आवश्यकता है।

व्यवहार को परिभाषित करते हुए जेम्स ड्रेवर ने लिखा, ’’जीवन की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के प्रति मनाव तथा पशु की सम्पूर्ण प्रतिक्रिया ही व्यवहार है।’’
Behaviour is the total tesponse which men or animals make of the situation in the  life with which either is confronted.” = James Drever
अपनी विषयवस्तु को सुनिश्चित रूप से परिभाषित कर मनोविज्ञान ने एक विधायक विज्ञान का रूप ले लिया है।

मनोविज्ञान की शाखाएँ- Psychology Facts in Hindi

(BRANCHES OF PSYCHOLOGY)

मनोविज्ञान में हम क्या अध्ययन करते हैं? अर्थात् इसका क्षेत्र में (Field) क्या है? इस बात का निर्धारण सुनिश्चित तथा सुविधाजनक रूप से करने के लिए मनोविज्ञान की सम्पूर्ण विषय-वस्तु को अनेक समूहों में बाँट दिया गया है। ये समूह की मनोविज्ञान की शाखाएँ कहलाते हैं।

वर्तमान में मनोविज्ञान की निम्नांकित शाखाएँ हैं-

  1. सामान्य मनोविज्ञान (General Psychology),
  2. असामान्य मनोविज्ञान (Abnormal Psychology),
  3. मानव मनोविज्ञान (Human Psychology),
  4. पशु-मनोविज्ञान (Animal Psychology),
  5. व्यक्ति मनोविज्ञान (Individual Psychology),
  6. समूह मनोविज्ञान (Group Psychology),
  7. प्रौढ़ मनोविज्ञान (Adult Psychology),
  8. बाल-मनोविज्ञान (Child Psychology),
  9. शिक्षा-मनोविज्ञान (Educational Psychology),
  10. शुद्ध मनोविज्ञान (Pure Psychology),
  11. व्यवहृत मनोविज्ञान (Applied Psychology),
  12. औद्योगिक मनोविज्ञान (Industrial Psychology) तथा
  13. परा-मनोविज्ञान (Para-Psychology),
  14. नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical Psychology),
  15. समाज मनोविज्ञान (Social Psychology),
  16. अपराध मनोविज्ञान (Criminal Psychology)।

(1) सामान्य मनोविज्ञान – सामान्य मनोविज्ञान में मानव के सामान्य व्यवहार का साधारण परिस्थितियों में अध्ययन किया जाता है।

(2) असामान्य मनोविज्ञान – इस शिक्षा में मानव के असाधारण तथा असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। इस शाखा में मानसिक रोगों से जन्य व्यवहारों उसके कारणों तथा उपचारों का विश्लेषण किया जाता है।

(3) मानव मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की यह शाखा केवल मनुष्यों के व्यवहारों का अध्ययन करती है। पशु-व्यवहारों को यह अपने क्षेत्र से बाहर रखती है।

(4) पशु-मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की यह शाखा पशु-जगत् से सम्बन्धित है और पशु के व्यवहारों का अध्ययन करती है। मानव-मनोविज्ञान तथा पशु-मनोविज्ञान अपने-अपने निष्कर्षों से एक-दूसरे को लाभान्वित करते रहते हैं।

(5) व्यक्ति मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की वह शाखा जो एक व्यक्ति का विशिष्ट रूप से अध्ययन करती है, व्यक्ति मनोविज्ञान कहलाती है। इसकी प्रमुख विषय-वस्तु व्यक्तिगत विभिन्नताएँ है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का कारण, परिणाम, विशेषताएँ, क्षेत्र आदि का अध्ययन इसमें किया जाता है।

(6) समूह मनोविज्ञान – इस शाखा को समाज-मनोविज्ञान (Social Psychology) के नाम से भी पुकारा जाता है। इसमें हम अध्ययन करते हैं कि समाज या समूह में रहकर व्यक्ति का व्यवहार क्या है?

(7) प्रौढ़ मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की इस शाखा ने प्रौढ़ व्यक्तियों के विभिन्न व्यवहारों का अध्ययन किया गया है।

(8) बाल-मनोविज्ञान – बालक की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, गामक तथा संवेगात्मक परिस्थितियाँ प्रौढ़ से भिन्न होती हैं, अतः उसका व्यवहार भी प्रौढ व्यक्ति से भिन्न होता है। इसलिए बालक के व्यवहारों का पृथक् से अध्ययन किया जाता है और इस शाखा को बाल-मनोविज्ञान कहा जाता है।

(9) शिक्षा-मनोविज्ञान – जिन व्यवहारों का शिक्षा से सम्बन्ध होता है, उनका शिक्षा-मनोविज्ञान के अन्तर्गत अध्ययन होता है। शिक्षा-मनोविज्ञान व्यवहारों का न केवल अध्ययन ही करती है वरन् व्यवहारों के परिमार्जन के प्रयास भी करता है।

(10) शुद्ध मनोविज्ञान – मनोविज्ञान का यह क्षेत्र मनोविज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष से सम्बन्धित है और मनोविज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों, पाठ्य-वस्तु आदि से अवगत कराकर हमारे ज्ञान में वृद्धि करती है।

(11) व्यवहृत मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों, नियमों तथा तथ्यों को रखा गया है जिन्हें मानव के जीवन में प्रयोग किया जाता है। शुद्ध मनोविज्ञान सैद्धान्तिक पक्ष है, जबकि व्यवहृत मनोविज्ञान व्यावहारिक पक्ष है। यह मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का जीवन में प्रयोग है।

(12) औद्योगिक मनोविज्ञान – उद्योग-धन्धों से सम्बन्धित समस्याओं का किस शाखा में अध्ययन होता है, वह औद्योगिक मनोविज्ञान है। इसमें मजदूरों के व्यवहारों मजदूर-समस्या, उत्पादन-व्यय-समस्या, कार्य की दशाएँ और उनका प्रभाव जैसे विषयों पर अध्ययन किया जाता है।

(13) परा मनोविज्ञान – यह मनोविज्ञान की नव-विकसित शाखा है। इस शाखा के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक अतीन्द्रिय (Super-sensible) और इन्द्रियेत्तर (Extra-sensory) प्रत्यक्षों का अध्ययन करते हैं। अतीन्द्रिय तथा इन्द्रियेत्तार प्रत्यक्ष पूर्व-जन्मों से सम्बन्धित होते हैं। संक्षेप में, परामनोविज्ञान-इन्द्रियेत्तर प्रत्यक्ष (Extra Sensory Perception-ESP) तथा मनोगति (Psycho-kinesis-PK) का अध्ययन करती है।

(14) नैदानिक मनोविज्ञान – मनोविज्ञान की इस शाखा में मानसिक रोगों के कारण लक्षण, प्रकार, निदान तथा उपचार की विभिन्न विधियों का अध्ययन किया जाता है। आज के युग में इस शाखा का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

(15) समाज-मनोविज्ञान – समाज की उन्नति तथा विकास के लिए मनोविज्ञान महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। समाज की मानसिक स्थिति समाज के प्रति चिन्तन आदि का अध्ययन सामाजिक मनोविज्ञान में होता है।

(16) अपराध मनोविज्ञान – इस शाखा में अपराधियों के व्यवहारों उन्हें ठीक करने के उपायों, उनकी अपराध प्रवृत्तियों, उनके कारण निवारण आदि का अध्ययन किया जाता है।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनोविज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है तथा इसकी प्रकृति वैज्ञानिक है।

Read  This :

 

Leave a Comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.