राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व – Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva

आज के आर्टिकल में हम राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व (Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva) के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे, साथ ही इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्यों के बारे में भी बात करेंगे

राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व – Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva

Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva

राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व क्या होते है?

राज्य के नीति निर्देशक तत्व वे सिद्धांत है जिनका उद्देश्य – ”सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना और कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।”

नीति-निर्देशक तत्व राज्य पर नैतिक बाध्यता आरोपित करते हैं। राज्य के नीति-निर्देशक तत्व मूल अधिकारों के पूरक हैं। उनका उद्देश्य मूल अधिकार (भाग-3) में अनुपस्थित सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की प्रतिपूर्ति करना है।

  • राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का उल्लेख संविधान के भाग चार के अनुच्छेद 36 से 51 में किया गया है।
  • राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित होकर संविधान में वर्णित किये गये है।
  • नीति निर्देशक तत्त्व सरकार के लिए सकारात्मक निर्देश है। ये लोककल्याणकारी राज्य एवं समाजवादी राज्य के आदर्श को प्रस्तुत करते है। ये वाद योग्य नहीं है अर्थात् इनके हनन होने पर इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। यह सरकार के लिए केवल नैतिक बंधन है। यह सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र के प्रतीक है। मौलिक अधिकार व्यक्ति है तो वहीं नीति निर्देशक तत्व राज्य के लिए है।

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का इतिहास

भारत सरकार अधिनियम, 1935 में निहित निर्देशों के साधन को भारत के संविधान में वर्ष 1950 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में शामिल किया गया था। संविधान निर्माताओं ने इस सुझाव को 1937 के आयरलैण्ड संविधान से लिया था। सामाजिक नीति के निदेशक तत्वों से भारत के संविधान के निदेशक तत्व बहुत प्रभावित हुए हैं।

राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की विशेषताएँ

  • नीतियों और कानूनों को प्रभावी बनाते समय राज्य नीति निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखेगा।
  •  इन्हें संविधान की नयी विशिष्टता भी कहा जाता है।
  • ये संवैधानिक निदेश या विधायिका, कार्यपालिका और प्रशासनिक मामलों में राज्य के लिए सिफारिशें है।
  • ये भारत सरकार अधिनियम, 1935 में उल्लिखित निर्देशों के साधनों के समान है।
  • अनुच्छेद 36 के अनुसार भाग 4 में ’राज्य’ शब्द का वही अर्थ है, जो मूल अधिकारों से संबंधित भाग 3 में है।
  • यह केन्द्र और राज्य सरकारों के विधायिका और कार्यपालिका अंगों, सभी स्थानीय प्राधिकरणों और देश में सभी प्राधिकरणों को सम्मिलित करता है।
  • नीति निर्देशक तत्वों की प्रकृति गैर-न्यायोचित है। यानी कि उनके हनन पर उन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। अतः सरकार (केन्द्र राज्य एवं स्थानीय) इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं। संविधान (अनुच्छेद 37) में कहा गया है। निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत है और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की सूची
अनुच्छेद 36’राज्य’ को परिभाषित करता है।
अनुच्छेद 37भारतीय संविधान का भाग 4 किसी भी न्यायालय में वाद योग्य नहीं
अनुच्छेद 38सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय
अनुच्छेद 39नीति के सिद्धांत
अनुच्छेद 39 Aमुफ्त कानूनी सहायता
अनुच्छेद 40पंचायतों का संगठन
अनुच्छेद 41कल्याण सरकार
अनुच्छेद 42न्यायोचित और मानवीय कार्य और मातृत्व राहत सुनिश्चित करना।
अनुच्छेद 43उचित वेतन और एक सभ्य जीवन स्तर।
अनुच्छेद 43 Aप्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी
अनुच्छेद 43 Bसहकारिता को बढ़ावा देना।
अनुच्छेद 44समान नागरिक संहिता
अनुच्छेद 45शिशु और बाल देखभाल
अनुच्छेद 46अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्गों को शोषण से बचाना।
अनुच्छेद 47पोषण, जीवन स्तर और सार्वजनिक स्वास्थ्य।
अनुच्छेद 48वैज्ञानिक कृषि और पशुपालन।
अनुच्छेद 48 Aपर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण।
अनुच्छेद 49राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों और स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण।
अनुच्छेद 50न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग होना चाहिए।
अनुच्छेद 51राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा।

राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का वर्गीकरण

अनुच्छेद 36 ’राज्य की परिभाषा’ है। इस राज्य में भारत सरकार, भारत की संसद, प्रत्येक राज्य की सरकार, प्रत्येक राज्य का विधानमंडल, सभी अधिकारी चाहे स्थानीय हों या कोई अन्य जो भारतीय क्षेत्र का हिस्सा हैं या सरकार के नियंत्रण में हैं।

अनुच्छेद 37 अनुच्छेद 37 में दो महत्त्वपूर्ण विशेषता का उल्लेख है – 1. यह किसी भी कोर्ट में लागू करने योग्य नहीं है। 2. यह देश के शासन के लिए बहुत ही बुनियादी और आवश्यक है।

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है –
1. समाजवादी सिद्धांत
2. गांधीवादी सिद्धांत और
3. उदार-बौद्धिक सिद्धांत।

समाजवादी सिद्धांत

  • समाजवादी सिद्धांत समाजवाद की विचारधारा के आलोक में है तथा भारत के ढांचे को निर्धारित करते हैं।
  • इनका लक्ष्य सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान कराना है। ये लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये राज्य को निर्देश देते हैं कि लोक कल्याण की वृद्धि के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय द्वारा सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करना और आय, प्रतिष्ठा सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करना।

अनुच्छेद 38 –

  • अनुच्छेद 38 सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के बारे में उल्लेखित है।
  • इसके अनुसार राज्य को एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए जो अपने सभी नागरिकों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय प्रदान करे।
  • राज्य आय, स्थिति, सुविधाओं, अवसरों आदि के आधार पर लोगों के सम्मुख आने वाली असमानताओं को कम करेगा।

अनुच्छेद 39  –

  • अनुच्छेद 39 नीति के सभी सिद्धांतों का उल्लेख करता है तथा राज्य द्वारा इनका पालन किया जाना चाहिए।
  • सभी पुरुषों, महिलाओं और नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार
  • सामूहिक भलाई के लिए समुदाय के तहत किसी भी भौतिक संसाधनों का समान स्वामित्व या नियंत्रण और वितरण होना चाहिए।
  • धन और उत्पादन के साधनों के संकेन्द्रण से नागरिकों को होने वाली हानि को रोकना।
  • पुरुषों और महिलाओं के लिए समान काम के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।
  • किसी भी कार्यकर्ता, पुरुषों और महिलाओं के स्वास्थ्य और शक्ति और बच्चों की उम्र का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए और नागरिक को किसी भी व्यवसाय या पेशे में प्रवेश करने और शामिल होने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए जो उनकी उम्र या ताकत के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • बच्चों को पर्याप्त अवसर और सुविधाएं दी जानी चाहिए।

अनुच्छेद 39 A-

  • इसमें मुफ्त कानूनी सहायता का उल्लेख है।
  • राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए।

अनुच्छेद 41 –

  • इसमें कल्याणकारी सरकार का उल्लेख है।
  • राज्य अपनी आर्थिक सामथ्र्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्हता अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के लिए अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।

अनुच्छेद 42 –

  • इसमें न्यायसंगत और मानवीय कार्य मातृत्व राहत सुनिश्चित करने का उल्लेख है।
  • राज्य कुछ प्रावधान बनाएगा ताकि नागरिकों को काम करने के लिए आसान, न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियां मिलें। यह महिलाओं के लिए मातृत्व राहत भी प्रदान करेगा।

अनुच्छेद 43 –

  • इसमें उचित वेतन और एक सभ्य जीवन स्तर के बारे में उल्लेख है।
  • राज्य कृषि, उद्योग या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित कराने वाली काम की दशाएं और सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशेषतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों का वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 43 A –

  • राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापना या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 43 B –

  • राज्य सहकारी समितियों के स्वैच्छिक निर्माण, स्वायत्त कार्यकरण, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यवसायिक प्रबंधन के उन्मयन का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 47 –

  • इसमें पोषण, जीवन स्तर और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में उल्लेख है।
  • राज्य अपने लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने के मामले को देखेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार पर नजर रखना राज्य का कर्तव्य है।
  • राज्य चिकित्सिय उद्देश्यों को छोड़कर नशीले पेय और नशीले पदार्थों के सेवन को प्रतिबंधित करने का प्रयास करेगा, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

गांधीवादी सिद्धांत

गांधीवादी सिद्धांत गांधीवादी विचारधारा पर आधारित हैं जो राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधी द्वारा प्रतिपादित पुनर्निर्माण के कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करते थे। विभिन्न लेखों के तहत, वे राज्य को निर्देशित करते हैं।

अनुच्छेद 40 –

  • यह पंचायतों के संगठन से संबंधित है।
  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हें स्वायत्त शासन की इंकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक है।

अनुच्छेद 43 –

  • इसमें उचित वेतन और एक सभ्य जीवन स्तर के बारे में उल्लेख है।
  • राज्य कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुुनिश्चित कराने वाली काम की दशाएं और सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशेष्टयतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों का वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 43 A –

  • राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापना या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 43 B –

  • राज्य सहकारी समितियों के स्वैच्छिक निर्माण, स्वायत्त कार्यकारण, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यवसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देता है।

अनुच्छेद 46 –

  • इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और कमजोर वर्गों के शोषण के संरक्षण से संबंधित है।
  • राज्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा और उन्हें सभी प्रकार के सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाने के लिए प्रावधान करेगा।

अनुच्छेद 47 –

  • यह पोषण, जीवन स्तर और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में उल्लेख करता है।
  • राज्य अपने लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने के मामले को देखेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार पर नजर रखना राज्य का कत्र्तव्य है।
  • राज्य चिकित्सिय उद्देश्यों को छोड़कर नशीले पेय और नशीले पदार्थों के सेवन को प्रतिबंधित करने का प्रयास करेगा, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

अनुच्छेद 48 –

  • यह वैज्ञानिक कृषि और पशुपालन के बारे में उल्लेख करता है।
  • राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों व बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 48 A –

  • राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।

उदार-बौद्धिक सिद्धांत –

  • उदार-बौद्धिक सिद्धांत उदारवाद की विचारधारा को दर्शाते हैं। विभिन्न लेखों के तहत, वे राज्य को निर्देशित करते हैं-

अनुच्छेद 44 –

  • यह समान नागरिक संहिता के बारे में उल्लेख करता है।
  • राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 45 –

  • इसमें देश में बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है।
  • इस प्रावधान को 86 वें संविधान संशोधन, 2002 के आधार पर शामिल किया गया।
  • राज्य प्रारम्भिक शैशवावस्था की देखरेख और सभी बालकों को उस समय तक जब तक कि वे 6 वर्ष की आयु पूर्ण न कर लें, शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।छह वर्ष की आयु पूरी करने तक सभी बच्चों के लिए बचपन की देखभाल और शिक्षा प्रदान करता है। (नोटर – 2002 के 86वें संशोधन अधिनियम ने इस लेख की विषय वस्तु को बदल दिया और प्रारंभिक शिक्षा को अनुच्छेद 21 A के तहत एक मौलिक अधिकार बना दिया।)

अनुच्छेद 48 –

  • इसमें 48 कृषि और पशुपालन के संगठन के बारे में उल्लेख है।
  • राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों व बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 48 A –

  • यह पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के बारे में उल्लेख करता है।
  • राज्य पर्यावरण और परिवेश की रक्षा और सुधार करने का प्रयास करेगा और पर्यावरण को टिकाऊ बनाने के लिए देश के जंगलों और वन्य जीवों की रक्षा करेगा।

अनुच्छेद 49 –

  • इसमें राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों और स्थानों और वस्तुओं के संरक्षण के बारे में उल्लेख है।
  • राज्य का यह कर्तव्य है राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का, यथास्थिति, लुंठन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन या निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी।

अनुच्छेद 50 –

  • इसमें न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उल्लेख है।
  • राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 51 –

  • इसमें अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने का उल्लेख है।

राज्य यह प्रयास करेगा –

1. अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना।
2. राष्ट्रों के बीच उचित और सम्मानजनक संबंध बनाए रखना।
3. अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के लिए सम्मान को बढ़ावा देना
4. मध्यस्थता द्वारा अंतरराष्ट्रीय विवादों के निपटारे को प्रोत्साहित करना।

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में हुए कुछ संशोधन

42 वाँ संशोधन –

1. अनुच्छेद 39 – बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए अवसरों को सुरक्षित करना।
2. अनुच्छेद 39 A – समान न्याय को बढ़ावा देना और गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना।
3. अनुच्छेद 43 A – उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना।
4. अनुच्छेद 48 A – पर्यावरण की रक्षा और सुधार तथा वनों और वन्यजीवों की रक्षा करना।

44 वां संशोधन –

अनुच्छेद 38 के तहत एक नया डीपीएसपी 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था, जिसके लिए राज्य को आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करने की आवश्यकता है।

86 वां संशोधन –

2002 के 86वें संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 45 की विषय-वस्तु को बदल दिया और प्रारंभिक शिक्षा को अनुच्छेद 21ए के तहत मौलिक अधिकार बना दिया। संशोधित निर्देश में राज्य को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक सभी बच्चों के लिए बचपन की देखभाल और शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है।

97 वां संशोधन –

सहकारी समितियों से संबंधित 2011 के 97वें संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 43 B के तहत एक नया डीपीएसपी जोड़ा गया था। इसके लिए राज्य को सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।

मूल अधिकारों एवं नीति निर्देशक तत्वों में टकराव

  • एक ओर मूल अधिकारों की न्यायोचितता और निदेशक तत्वों की गैर-न्यायोचितता तथा दूसरी ओर निदेशक तत्वों (अनुच्छेद 37) को लागू करने के लिए राज्य की नैतिक बाध्यता ने दोनों के मध्य टकराव को जन्म दिया है। यह स्थिति संविधान लागू होने के समय से ही है।
  • 25 वें संशोधन अधिनियम के तहत एक नया अनुच्छेद 31 ग जोड़ा गया, जिसमें निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई-
  • अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित समाजवादी निदेशक तत्वों को लागू कराने वाली किसी विधि को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि वह अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 द्वारा प्रदत मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
  • मिनर्वा मिल्स मामले 1980 में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी, ’’भारतीय संविधान मूल अधिकारों और निदेशक तत्वों के बीच संतुलन के रूप में है। ये आपस में सामाजिक क्रांति के वादे से जुड़े हुए हैं। ये एक रथ के दो पहियों के समान हैं तथा एक-दूसरे से कम नहीं है। इन्हें एक-दूसरे पर लादने से संविधान की मूल भावना बाधित होती है। मूल भावना और संतुलन संविधान के बुनियादे ढांचे की आवश्यक विशेषता है। निदेशक तत्वों के तय लक्ष्यों को मूल अधिकारों को प्राप्त किए बगैर, प्राप्त नहीं किया जा सकता।’’

मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों के बीच अन्तर

मूल अधिकारनीति निर्देशक तत्व
1. ये नकारात्मक है जैसा कि ये राज्य को कुछ मसलों पर कार्य करने से प्रतिबंधित करते हैं।1. ये सकारात्मक है, राज्य को कुछ मसलों पर इनकी आवश्यकता होती है।
2. ये न्यायोचित होते है, इनके हनन पर न्यायालय द्वारा इन्हें लागू कराया जा सकता है।2. ये गैर-न्यायोचित होते है। इन्हें कानूनी रूप से न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता।
3. इनका उद्देश्य देश में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना है।3. इनका उद्देश्य देश में सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।
4. ये कानूनी रूप से मान्य है।4. इन्हें नैतिक एवं राजनीतिक मान्यता प्राप्त है।
5. ये व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं, इस प्रकार ये वैयक्तिक है।5. ये समुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं, इस तरह ये समाजवादी है।
6. इनको लागू करने के लिए विधान की आवश्यकता नहीं, ये स्वतः लागू है।6. इन्हें लागू रखने विधान की आवश्यकता होती है, ये स्वतः लागू नहीं होते।

FAQ – Rajya ke Niti Nirdeshak Tatva

 

1. राज्य के नीति निर्देशक तत्व को किस देश के संविधान से ग्रहण किया गया है ?
उत्तर – आयरलैंड


2. राज्य के नीति निर्देशक तत्व का उल्लेख संविधान के किस भाग में किया गया है ?
उत्तर – भाग 4


3. राज्य के नीति निर्देशक तत्व का उल्लेख संविधान के किस अनुच्छेद में किया गया है ?
उत्तर – अनुच्छेद 36 से 51


4. राज्य के नीति निर्देशक तत्व का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर – ’’सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना और कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।’’


5. किस संशोधन में नीति निर्देशक तत्वों पर मौलिक अधिकारों को वरीयता दी गई ?
उत्तर – 42 वां संविधान संशोधन अधिनियम

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