समायोजन – अर्थ, परिभाषा, कारण, प्रकार एवं मनोरचनायें

आज के आर्टिकल में हम मनोविज्ञान के अंतर्गत समायोजन का अर्थ ,परिभाषाएं और इसके प्रकारों (PSYCHOLOGY OF ADJUSTMENTS) को पढेंगे ।

समायोजन का मनोविज्ञान

(PSYCHOLOGY OF ADJUSTMENTS)

समायोजन क्या है

दोस्तो मनुष्य सदैव अपनी किसी न किसी प्रकार की आवश्यकताओं से घिरा रहता है। सामाजिक एवं मानसिक प्राणी होने के नाते वह अपनी इन विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है। मनुष्य क्योंकि एक बुद्धियुक्त प्राणी है अतः वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं के प्रति सजग रहता है तथा स्वयं ही इनकी पूर्ति करने के प्रयत्न तथा उपाय करता है।

अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में ही वह अपने वातावरण के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। वह जब तक आवश्यकता की पूर्ति के सन्दर्भ में ही वह अपने वातावरण के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। इस हेतु वह भौतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही प्रकार के वातावरण से सम्पर्क स्थापित करता है।

वह जब तक आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो जाती, उनकी सन्तुष्टि के लिए प्रयत्नशील रहता है। जब तक आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती वह तनाव तथा बैचेनी की स्थिति में रहता है। यह स्थिति कष्टदायक होती है अतः इसे दूर करने हेतु वह प्रयत्न करता है। इसके लिए वह प्रयास करता है।

इन प्रयासों को हम प्रेरक (Motives) तक चालक (Drive) करते हैं। प्रयासों के आगे उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग में कई प्रकार की बाधायें आती हैं। बाधाओं की पश्चात् जब उद्देश्य प्राप्त हो जाता है तो आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है तथा तनाव की कष्टदायक स्थिति समाप्त हो जाती है।

यदि किन्हीं कारणों से बाधायें पार न की जा सकें तो उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी अतः आवश्यकता की पूर्ति भी नहीं होगी। तब व्यक्ति भग्नाशा (Frustration) से पीङित हो जाता है। लम्बे समय तक भग्नाशा में रहने से व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पङता है वह कुसमायोजन का शिकार हो जाता है तथा असामाजिक व्यवहार करने लगता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को एक रेखाचित्र से स्पष्ट किया जा सकता है-

समायोजन का मनोविज्ञान

बाधायें यदि सीधे-सीधे प्राप्त न हो तो प्राणी मार्ग बदलकर उद्देश्य (Objectives) तक पहुँचना चाहता है। उद्देश्यों तक न पहुँचने के कारण भग्नाशा होती है तथा इससे मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है तथा कुसमायोजन जन्म लेता है। इससे नाना प्रकार की व्यवहार जनित समस्यायें उत्पन्न होती है अतः विद्यालय में प्रयास किये जाने चाहिये कि छात्रों को कम से कम भग्नाशा हो।

समय-समय पर व्यक्ति की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं जन्म लेती रहती है। आवश्यकता के कारण प्रेरक (Motive) जन्म लेते हैं। प्रेरक व्यवहार को उद्दीप्त करने वाली शारीरिक क्रियायें हैं। (“A drive is an intra-organic activity or condition of tissue supplying stimulation for particular type of behaviour” ) प्रेरक चालकों (Drives) को जन्म देता है जिनके कारण प्राणी अपने उद्देश्यों को प्राप्त करता है।

यहाँ पर तीन स्थितियाँ जन्म ले सकती हैं-

(1) वह वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकता है अथवा नहीं भी कर सकता है।

(2) एक ही समय में विभिन्न समान महत्त्व की आवश्यकताएँ जन्म ले सकती है अतः कई प्रेरक एक साथ उदित हो सकते हैं जिनमें परस्पर संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

(3) प्रेरकों के मार्ग में बाह्य अथवा आन्तरिक बाधायें उत्पन्न हो सकती है। जो उद्देश्य प्राप्ति में रूकावटें उत्पन्न कर सकती हैं। प्रेरकों के मार्ग में आयी विभिन्न बाधाओं अथवा प्रेरकों के परस्पर अन्तद्र्वन्द्व के कारण अनेक बार अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं कर पाता है। आवश्यकता, जैसा कि हम जानते हैं, तनाव को जन्म देती हैं। मनुष्य तनाव के कारण आवश्यकता पूर्ति न कर सकें तो तनाव बना रहता है तथा नैराश्य (Frustration) जन्म लेता है।

व्यक्ति विभिन्न उपायों से अपने नैराश्य को दूर करना चाहता है। इसका प्रमुख उपाय है अपनी आवश्यकताओं के साथ समायोजन कर लेगी अनेक बार व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाता है। वह अपनी आवश्यकताओं तथा उनकी सन्तुष्टि प्रक्रिया के साथ सन्तुलन स्थापित नहीं कर पाता है तो इस स्थिति को असमायोजन की स्थिति कहते हैं और जब व्यक्ति इनके साथ त्रुटिपूर्ण सन्तुलन स्थापित करता है तो उस स्थिति को कुसमायोजन की स्थिति कहते हैं।

समायोजन का अर्थ

शेफर (Shaffer) के अनुसार, ’’समायोजन वह प्रक्रिया है जिसकी सहायता से कोई जीवित प्राणी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली स्थितियों तथा आवश्यकताओं के मध्य सन्तुलन स्थापित करता है।’’
“Adjustment is a procees by which a living organism maintains a balance between its needs and the circumstances that influence the satisfaction of these needs.”

आइजनेक तथा उसके सहयोगियों (Eysenck & others) ने समायोजन के सम्बन्ध में लिखा है कि, ’’एक ऐसी अवस्था है जिसमें एक ओर व्यक्ति की आवश्यकतायें तथा दूसरी ओर पर्यावरण सम्बन्धी दायों की पूर्ण सन्तुष्टि होती है अथवा यह वह प्रक्रिया है जिसमें इन दोनों के मध्य सामंजस्य स्थापित हो जाता है।
“A state in which the needs of the individual on the one hand and the daims of the environment on the other hand satisfied or the process by which this harmonious relationship can be attained.”

उक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समायोजन से तात्पर्य व्यक्ति की विभिन्न आवश्यकताओं तथा उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली परिस्थितियों में सामंजस्य तथा सन्तुलन स्थापित करने की प्रक्रिया हैं। जब इन दोनों में सन्तुलन स्थापित नहीं हो पाता है तो व्यक्ति कुण्ठा तथा नैराश्य का शिकार होकर असामान्य व्यवहार करने लगता है। व्यवहारों में असामान्यता की स्थिति ही कुसमायोजन की अवस्था है। यदि व्यवहारों को असामान्यता गम्भीर हो जाये तो उसे हम मानसिक रोगग्रस्तता कहते हैं।

समायोजित व्यक्तित्व (Adjusted Personality)

जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा उन आवश्यकताओं की परिस्थितियों अर्थात् पर्यावरण के मध्य सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं उनके व्यक्तित्त्व का एकीकृत विकास होता है। व्यक्ति इन दोनों तत्त्वों के मध्य सन्तुलन स्थापित कर पाया है अथवा नहीं, इसकी जाँच नीचे लिखे बिन्दुओं के आधार पर की जा सकती है-

1. सन्तुलित व्यक्तित्व (Balanced Personality) –

जो व्यक्ति अपने जीवन में आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं उनके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता है। व्यक्ति विकास के कई आयाम (Dimensions) होते हैं। यदि व्यक्ति किसी एक आयाम में अपेक्षाकृत अन्य आयामों कम या अधिक विकास कर लें तो वह सन्तुलित विकास नहीं होता है। समायोजित व्यक्ति अपने व्यक्तित्त्व के सभी पक्षों का सन्तुलित विकास करता है।

2. तनाव में कमी (Less Tension) –

मानसिक रोग तनाव की अधिकता का परिणाम हैं। तनाव से ही व्यवहारों में असामान्यता आती है। इसीलिए उन्हें कम करना चाहिए। वैसे तो जटिल समाज में कोई भी व्यक्ति तनाव से बच नहीं सकता है किन्तु इन्हें कम किया जा सकता है। समायोजित व्यक्ति विभिन्न उपयों से अपने तनाव को कम करते हैं।

3. आवश्यकता व पर्यावरण में सामंजस्य (Harmony between Needs and Environment) –

समायोजित व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में ये सामंजस्य बनाये रखता है। वह पर्यावरण के अनुसार ही अपनी आवश्यकता का हल तलाश करता है तथा उसी के अनुसार आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है। पर्यावरण के अनुसार वह अपनी आवश्यकताओं में तदनुरूप परिवर्तन करता रहता है जिससे उसे आवश्यकता पूर्ति में न तो अधिक बाधाओं का सामना करना पङता है और न उसे अधिक तनाव ही होता है।

समायोजन के प्रकार (- Types of Adjustment

अब हम समायोजन के प्रकारों को समझेंगे ….

समायोजन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है-

1. रचनात्मक समायोजन (Constructive Adjustment) –

रचनात्मक कार्यों के द्वारा जब कोई व्यक्ति क्षेत्र विशेष में समायोजन स्थापित करता है तो वह रचनात्मक समायोजन कहलाता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति का समायोजन धार्मिक क्षेत्र में गङबङ हो जाता है तो समाज में उपकारार्थ कुछ रचनात्मक कार्य करके अपना समायोजन कर लेता है।

2. स्थानापन्न समायोजन (Substitute Adjustment) –

एक क्षेत्र में समायोजन स्थापित न कर पाने की स्थिति में व्यक्ति अपनी असफलता को दूसरों पर किसी अन्य रूप में प्रत्याक्षेपित कर समायोजन कर लेते हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति दूसरे राजनैतिक क्षेत्र में वांछित सफलता प्राप्त न कर पाने पर व्यक्ति दूसरे राजनैतिज्ञों पर अपनी कमजोरियों को नहीं स्वीकार करेगा।

आलसी छात्र परीक्षा में असफल होने पर या तो अध्यापकों को दोष देगा कि उन्होंने ठीक से नहीं पढ़ाया या परीक्षाओं पर दोषारोपण करेगा कि उन्होंने ठीक से उत्तर-पुस्तिकायें नहीं जाँची होगी। ऐसा समायोजन अल्पकालिक सन्तोष प्रदान करता है तथा समाज द्वारा अच्छा नहीं माना जाता है।

3. मानसिक मनोरचनायें (Mental Mechanisms) –

कुछ ऐसी मानसिक मनोरचनायें होती हैं जिनके द्वारा समायोजन का कार्य प्रायः सभी सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति करते हैं यह मन को समझाने की विधियाँ कहीं जा सकती हैं जब व्यक्ति अपना समायोजन बङी मात्रा में इन्हीं के द्वारा करें तो उसे हम असामान्य व्यक्ति कहते हैं।

समायोजन के सोपान – Steps of Adjustment

व्यक्ति अपने समायोजन के लिए नीचे लिखे तीन कदम उठाता है-

1. समस्या का अंकन (Appraisal of the Problem) – व्यक्ति के सामने जैसे ही आवश्यकता उत्पन्न होती है, उसके लिए तत्सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति इन समस्याओं का वर्ग करता है, विशिष्ट वर्ग में रखता है, उसके समाधान क्षेत्र तलाशता है तथा उस समस्या को गम्भीरता का निर्धारण करता है।

2. निर्णय-निर्माण (Decision Making) – समस्या की गम्भीरता तथा वर्गीकरण के बाद उस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक समाधानों की सूची तैयार की जाती है तथा प्रत्येक समाधान का आवश्यकता के सन्दर्भ में मूल्यांकन किया जाता है।

3. क्रियान्वयन (Executions) – समुचित समाधान के सम्बन्ध में निर्णय लेकर चयन करने के उपरान्त उस समाधान को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति क्रियायें प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में क्रियान्वयन के समय जो कठिनाइयाँ आती हैं उनके अनुसार वह अपनी क्रियाओं में आवश्यक संशोधन भी करता चलता है।

समायोजन की मात्रा – Degree of Adjustment

व्यक्ति विभिन्न आवश्यकताओं तथा उनसे सम्बन्धित पर्यावरण के साथ अलग-अलग मात्रा में समायोजन कर पाता है। कुछ व्यक्ति प्रायः सभी आवश्यकताओं के साथ सरलता पूर्वक समायोजन नहीं कर पाते हैं, जबकि कुछ सहज ही इस प्रकार का समायोजन कर लेते हैं। कुछ पूर्ण समायोजन कर पाते हैं तो कुछ-कुछ ही मात्रा में कर पाते हैं। समायोजन की सीमा तथा मात्रा के अनुसार समायोजन के चार स्तर होते हैं।

1. समायोजन प्रतिक्रियायें (Adjustment Reactions) – ये प्रतिक्रियायें वे होती हैं जो व्यक्ति के आवश्यकताओं तथा पर्यावरण के साथ पूर्ण एवं सफल समायोजन को प्रदर्शित करती हैं। इससे वह अपने वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है तथा कुण्ठाओं से बच जाता है।

2. आंशिक समायोजन प्रतिक्रियायें (Partially Adjustment Reactions) – जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण के साथ वास्तविकता से असफल होकर कल्पना लोक में समायोजन करता है तो वह आंशिक समायोजन कहलाता है। दिवास्वप्न (Day dreaming) आंशिक समयोजन प्रतिक्रिया है।

3. असमायोजन प्रतिक्रियायें (Non-adjustment Reactions) – यदि व्यक्ति लम्बे समय तक ऐसी क्रियायें तथा व्यवहार करता रहे जिनके कारण उसकी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में सामंजस्य न हो सके तो उसे असमायोजन की स्थिति कहते हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति मुख्य आवश्यकता की ओर ध्यान न देकर अन्य कम महत्त्व की आवश्यकताओं की पूर्ति की ही और ध्यान देता रहे तो उसे असमायोजन की अवस्था कहते हैं।

4. कुसमायोजन प्रतिक्रियायें (Mal-adjustment Reactions) – जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा उनसे सम्बन्धित पर्यावरण के साथ त्रुटिपूर्ण या विरोधाभासी सामंजस्य करे तो उसे कुसमायोजन प्रतिक्रियायें कहते हैं। यह असामान्य व्यवहारों को जन्म देती हैं तथा व्यक्ति तथा समाज दोनों के ही लिए हानिप्रद है। यहाँ व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध दूषित हो जाता है।

समायोजन के प्रारूप – Models of Adjustment

मनोवैज्ञानिकों ने समायोजन के सम्बन्ध में वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए कई प्रारूपों का विकास किया है। इनमें से कुछ प्रमुख प्रारूपों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है-

1. व्यवहारवादी प्रारूप (Behaviouristic Model) – व्यवहारवादियों द्वारा विकसित इस प्रारूप में अधिगम पर सर्वाधिक बल दिया है। इस वर्ग के विद्वानों का मत है कि अधिगम के द्वारा ही व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन किया जा सकता है। अधिगम ही मानव-व्यवहार की केन्द्रीय क्रिया है। यदि हम व्यक्ति के अधिगम का पता लगा लें तो उनके व्यवहारों का सहज ही आभास हो सकता है।

वह अपने अधिगम के अनुरूप ही व्यवहार करेगा। अधिगम पर ही व्यक्ति की समायोजन-प्रक्रिया निर्भर करती है। वह अपने अधिगम के अनुसार ही पर्यावरण के प्रति समायोजात्मक अथवा असमायोजनात्मक प्रतिक्रियायें करेगा तथा अपने अधिगम के अनुसार ही वह प्रतिक्रियाओं का आयोजन करेगा।

व्यवहारवादियों का यह प्रारूप पूरी तरह से उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धान्त (S.R. Theory) पर आधारित है। व्यक्ति में कुछ प्राथमिक जैविक चालक (Primary Biological Motives) होते हैं। व्यक्ति में इनकी मात्रा पृथक-पृथक होती है। इन्हीं प्राथमिक जैविक चालकों के अनुसार व्यक्ति किसी उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करता है।

अभ्यास तथा अनुक्रिया की पुनरावृत्ति के कारण वह एक उद्दीपक के प्रति एक विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया करना सीख लेता है। यही अधिगम है और वह अधिगम के अनुसार ही व्यवहार करता है। दूसरे शब्दों में, प्राथमिक जैविक चालकों का ही विस्तार उसके दैनिक जीवन में होता है।

दूसरे शब्दों में, प्राथमिक जैविक चालकों का ही विस्तार उसके है तो कहेंगे कि उसका समायोजन हो गया है और यदि वह उद्दीपक के प्रति समाज द्वारा स्वीकृति रीति से अनुक्रिया नहीं करता है तो कहेंगे कि उसका समायोजन नहीं हुआ है।

समायोजन की दृष्टि से उद्दीपन-अनुक्रिया का प्रक्रिया को पाँच सोपानों (Stages) में विभक्त कर सकते हैं।

  1. अनुक्रिया प्रतिबद्धता (Response Conditioning)
  2. पुनर्वलन (Reinforcement)
  3. सामान्यीकरण (Generalisation)
  4. विभेदीकरण (Discrimination)
  5. प्रारुपीकरण तथा आकृतिकरण (Modeling and Shaping)।

सर्वप्रथम किसी उद्दीपक के परिणामस्वरूप व्यक्ति शास्त्रीय (Classical) अथवा कायत्मि (Operant) प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप एक विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया करता है। अनुक्रिया की सफलता के लिए वह पुनर्वलन का भी प्रयोग करता है।

पुनर्बलन के प्रयोग से वह किसी उद्दीपक के प्रति की जाने वाली अनुक्रिया की शक्ति को बढ़ाता है। एक उद्दीपक के प्रति लगातार एक ही प्रकार की अनुक्रिया करते-करते वह अनुक्रिया करने में पारंगत हो जाता है परिणामस्वरूप वह इस अनुक्रिया को नये-नये उद्दीपकों के प्रति भी करने लगता है।

एक अनुक्रिया का अधिगम करने के बाद जब व्यक्ति उस अनुक्रिया को नये-नये उद्दीपकों के प्रति भी स्वतन्त्र रूप से करने लगता है तो यह अवस्था ही सामान्यीकरण की अवस्था कहलाती है। इस अवस्था पर आकर ही वह विभिन्न उद्दीपकों तथा अनुक्रियाओं में विभेद करने लगता है।

एक निश्चित प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन करना ही प्रारुपीकरण है। वांछित या समुचित प्रकार की अनुक्रिया करने का प्रदर्शन ही प्रारुपीकरण कहलाता है। किन्तु वांछित या समुचित अनुक्रिया के लिए लगातार अनुमानित पुनर्बलन प्रदान करना। आकृतिकरण (Shaping) कहलाता है।

इस प्रकार व्यवहारवादियों के अनुसार अनुक्रियायें, पुनर्बलन, सामान्यीकरण तथा आकृतिकरण के द्वारा विकसित व्यवहार पैटर्न के माध्यम से व्यक्ति समायोजन करता है।

2. मनोविश्लेषणवादी प्रारुप (Psychoanalytic Model) – सिग्मंड फ्रायड (Sigmund Freud) ने मनोविश्लेषणवाद का विकास किया। मनोविश्लेषणवाद मानव-व्यवहारों का अचेतन मन (Unconscious Mind) तथा काम-ऊर्जा (Sex-Urage) के सन्दर्भ में व्याख्या करता है। मनोविश्लेषणवाद के अनुसार मानव-व्यवहार रूप से व्यक्ति के अचेतन-मन तथा उसकी काम-ऊर्जा द्वारा निर्धारित होते हैं।

मनोविश्लेषणवाद के अनुसार मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं-

(1) इदम्  (Id)

(2) इगो (Ego)

(3) सुपर ईगो (Super Ego)।

यदि अत्यन्त ही सरल तथा अतकनीकी भाषा में व्यक्त करें तो कह सकते हैं कि ईगो मानवीय प्रवृत्ति है, सुपर ईगो दैवीय प्रवृत्ति तथा इदम् असुरीय (राक्षीस) प्रवृत्ति है। इदम् ही अचेतन-मन का निर्माण करता है जिसमें सभी अश्लील, कुराचारी, असामाजिक तथा असुर-प्रवृत्तियों की भीङ जमा रहती है जो अपना ऋणात्मक प्रवृत्ति के कारण ईगो के माध्यम से निष्कासन हेतु निरन्तर प्रयास एवं संघर्ष करती हैं।

ये अपने निकासन हेतु उपाय भी अपनाती हैं किन्तु सुपर ईगो इन पर नियन्त्रण करता है वह केवल अच्छी प्रवृत्तियों तथा विचारों की है। कार्य रूप में परिणित करने की अनुमति प्रदान करता है।

इस स्थिति में ईगो एक द्वन्द्व तथा संघर्ष की स्थिति में फँस जाता है। यदि ईगो इस संघर्ष पूर्ण स्थिति में आकर भी समाज की मान्यताओं के अनुसार कार्य करता है, वह इदम् तथा सुपर ईगो के अधीन नहीं हो पाता तथा वास्तविकताओं के अनुसार कार्य करता है जो व्यक्ति का समायोजन हो जाता है।

यदि वह इदम् की ओर आकर्षित हो असामाजिक कार्य करने लगता है तो उसे हम अपराधी कहने लगते हैं और यदि वह सुपर ईगो की ओर आकर्षित हो जाता है तो साधु-पुरुष बनकर वास्तविकताओं से हट जाता है।

मनोविश्लेषणवाद ने अपने सभी सिद्धान्तों में कामुकता (Sexuality) पर अत्यधिक बल दिया है। एक असामाजिक कृत्य है। इसलिए काम-ऊर्जा के कारण व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के मध्य संघर्ष पाता है। यदि वह इन दोनों में तालमेल स्थापित कर लेता है तो उसका समायोजन हो जाता है।

मान्यता वह विभिन्न प्रकार के काम-अपराधों तथा कृत्यों में फँसकर असामाजिक आचरण करने लगता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि मनोविश्लेषणवाद शैशवावस्था में भी कामुक प्रवृत्ति की उपस्थिति पर जोर देता है।

कामुकता तथा इदम् के शक्तिशाली होने की स्थिति में व्यक्ति इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए बेचैन हो जाता है। यही बेचैनी चिन्ता (Anxiety) को जन्म देती है। मनोविश्लेषणवाद समायोजन प्रक्रिया में इस प्रकार उत्पन्न चिन्ता को महत्त्वहीन मानते हैं।

चिन्ता से संघर्ष कर उसे शान्त करने का कार्य ईगो पर आता है। यदि ईगो कमजोर हुआ तो वह चिन्ता पर काबू नहीं पा सकता है परिणामस्वरूप व्यक्ति चिन्ताग्रस्त हो नाना प्रकार की मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाता है। यही कुसमायोजन की स्थिति है। चिन्ताओं के कारण व्यक्ति सीमा से अधिक मानसिक रचनाओं (Mental Mechanism) का प्रयोग करता है जो उसके असामान्य व्यवहार को और भी असामान्य बना देती हैं।

मानसिक मनोरचनायें – Mental Mechanism

मानसिक मनोरचनायें अथवा आत्म-सुरक्षा अभियांत्रकायें (Self-defence Mechanisms) वह है जिन्हें कोई व्यक्ति चेतन अथवा अचेतन मन में होने वाले संघर्षों, नैराश्य, तनाव तथा चिन्ता आदि से बचने तथा उनके साथ समायोजन करने के लिए मितव्ययता के साथ प्रयोग करता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ये तनाव तथा चिन्ता आदि से बचने का साधन है जबकि एक मानसिक रोगी के लिए ये साध्य (End) है।

मानसिक रोगी अपनी मनोजात-ऊर्जा (Psychic Energy) का एक बहुत बङा भाग आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों पर ही व्यय कर देता है परिणामस्वरूप उसके पास व्यक्तित्व संगठन के लिए मनोजात-ऊर्जा शेष नहीं रहती इसलिए उसके व्यक्तित्व का संगठित विकास नहीं हो पाता है।

सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति द्वारा इस प्रकार की जो मनोरचनायें प्रयोग में लाई जाती हैं ,जो दी गयी है –

1. दमन (Repression) – जब कोई संघर्षपूर्ण परिस्थिति ईगो तथा सुपरईगो द्वारा बलपूर्वक अचेतन मन पहुँचा दी जाये तो यह दमन कहलाता है।
“The part of a conflict situation which is most unacceptable to the ego and super-ego may be forced into the unconscious by the ego. When this occurs, the mechanism is called repression.”   – Brown
दमन चेतन मन को संघर्षों से छुटकारा देने के उद्देश्य से किया जाता है। चेतन मन केवल उन्हीं इच्छाओं तथा विचारों का दमन करता है जो चेतन मन को कष्टदायक होते हैं।

2. प्रतिगमन (Regression) – प्रतिगमन का अर्थ है वापिस जाना। मनोरचना के सन्दर्भ में प्रतिगमन का अर्थ है पूर्वावस्था की ओर वापिस लौटना, या व्यक्ति का पुनः शैशवावस्था की ओर जाकर जीवन की वास्तविक समस्याओं से अपने को दूर समझ बैठना जैसे प्रौढ़ावस्था में किसी क्षेत्र में असफल होने पर एक शिशु के समान अपनी माँ की गोद में छिपाना, या अंगूठा चूसना आदि।
“Regression is the tendency to solve the problems of life by reversing to childhood.”

3. शमन (Supression) – दमन तथा शमन में केवल इतना अन्तर है कि दमन की स्थिति में व्यक्ति को पता नहीं चलता कि कोई कष्टदायक विचार अचेतन मन में ढकेला जा रहा है किन्तु शमन की स्थिति में व्यक्ति को पता रहता है कि कोई विचार अचेतन मन में डाला जा रहा है।

4. तदात्मीकरण (Identification) – तदात्मीकरण से तात्पर्य उस मनोरचना से है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने स्वयं के अहम् या आत्म को किसी अन्य व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तित करने का प्रयास करता है या अन्य व्यक्ति के व्यक्तित्व जैसा अपने व्यक्तित्व को समझने लगता है।
“Identification  refers to the mechanism through which a person attempts to mould his own ego or self after that someone else or believes to have some other person’s personality.”    -Brown

भारत की क्रिकेट टीम के जीतने पर हम कहते हैं कि ’हम जीत गये’। यहाँ हमने अपना तदात्मीकरण भारतीय क्रिकेट टीम से कर लिया है। इसी प्रकार बालक किसी प्रसिद्ध अभिनेता जैसा बोलने लगता है या अपने बालों को उसके अनुसार सम्भालता है। यह सब तदात्मीकरण है।

5. युक्तिकरण (Rationalisation) – जब हम कोई दोषपूर्ण युक्ति या तर्क प्रस्तुत करके अपने दोषों, असफलताओं तथा मनोशारीरिक दुर्बलताओं को छिपाते हैं तो यह युक्तिकरण है।
“Rationalisation includes those thinking processes by which the individual deceives through the concealment of the real base of his thought.”  – Mathur

लोमङी के खट्टे अंगूर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। विधान सभा चुनावों में हार जाने पर हम कहते हैं कि राजनीति बङी गन्दी चीज है क्योंकि यह जातिवाद पर आधारित हैं। आदि सभी युक्तिकरण के उदाहरण है।

6. प्रक्षेपण (Projection) – अपने दोषों, अवगुणों असफलताओं तथा दुर्बलताओं को दूसरों पर आरोपित करना ही प्रक्षेपण कहलाता है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर हम परीक्षा को दोष देते हैं, चुनाव में पराजय के बाद विरोधी विजेता को बेईमानी से विजय पाने का बहाना करते हैं। इसी प्रकार अन्य मामलों में भी व्यक्ति अपने दोषों को दूसरे पर प्रत्यारोपित कर अपने मन को समझाता है या दूसरों के सामने अपनी कमजोरियाँ छिपाता है।

7. क्षति पूर्ति (Compensation) – एक क्षेत्र में असफल रहने पर व्यक्ति दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर प्रथम क्षेत्र की क्षति को दूसरे क्षेत्र में पूर्ति कर लेता है। पढ़ाई लिखाई में असफल रहने पर खेल के मैदान में सफलता प्राप्त कर छात्र पढ़ाई-लिखाई की क्षति पूर्ति करता है। अंधा अच्छा गवैया बनकर क्षति पूर्ति करता है। यह चेतन या अचेतन दोनों ही मन से सम्भव है।

8. मार्गान्तीकरण (Sublimation) – जन्मजात, प्राकृतिक तथा असामाजिक प्रवृत्तियों तथा इच्छाओं के मूल रूप को बदलकर उन्हें सामाजिक रूप प्रदान करना ही मार्गान्तीकरण कहलाता है।
“Sublimation is the redirecting of libidual impulses or motives to ethical, cultureal and social objectives.”  – Fisher

कोलमैन के अनुसार मार्गान्तीकरण का अर्थ सामाजिक रूप से स्वीकृत ऐसे उद्देश्यों को स्वीकार करने से है, जो उस प्रेरक का स्थान लेते, जिसकी अभिव्यक्ति का मार्ग सामाजिक रूप से बन्द हो गया है। उदाहरण के लिए पत्नी की फटकार सुनकर पत्नी-प्रेम को तुलसीदास ने राम-प्रेम में बदल दिया यही मार्गान्तीकरण है।

9. प्रतिक्रिया-निर्माण (Reaction Formation) – एक क्षेत्र में प्रयास करने पर भी सफलता न मिले तो व्यक्ति ठीक उसके विपरीत क्षेत्र में प्रयास करने लगता है। यहाँ मूल इच्छा का दमन नहीं किया जाता, वरन् मूल इच्छा के ठीक विपरीत इच्छा विकसित कर ली जाती है।

धनी बनने की इच्छा की पूर्ति न होने पर व्यक्ति निर्धनता के गुण गाने लगता है। या गोरा सुन्दर बनने में सफल रहने पर काली सुन्दरता (Black Beauty) की प्रशंसा करने लगता है। किशोरी बाल लम्बे न होने पर बाब हेयर अपना लेती है। यह सब प्रतिक्रिया-निर्माण के ही उदाहरण है।

10. रूपान्तरीकरण (Conversion) – किसी क्षेत्र में असफलता के भय के कारण अचेतन मन की सहायता से हम ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देते हैं कि वह असफलता के प्रति कोई सशक्त बहाना मिल जाता है परीक्षा के ठीक पूर्ण बुखार आ जाना, इसका उदाहरण है। ब्राउन के अनुसार यह ऐसी मनोरचना है जिसके माध्यम से दमित मूल प्रवृत्ति की शक्तियों शारीरिक रोगों के क्रियात्मक लक्षणों के रूप में प्रकट होती हैं।
“Conversion is the mechanism through which repressed wills along with the prestration of basic drives in changed (converted) into the functional system of bodily disease.”

11. दिवास्वप्न (Day dreaming) – खाली बैठे-बैठे मन के लड्डू खाना, हवाई किले बनाना सभी दिवास्वप्न है। मन ही मन अकबर या सिकन्दरे आजम बन जाना, या हवाई जहाज की सैर करना, या परी-लोक में विचरण करना या किसी सुन्दरी के सहवास की कल्पना करना दिवास्वप्न ही है। यह मानसिक संघर्षों, इच्छाओं, तथा प्रेरकों की कल्पना में तृप्ति है।

12. विस्थापन (Displacement) – मूल प्रेरणा, प्रवृत्ति तथा इच्छा से हटकर किसी मूलतः भिन्न प्रवृत्ति तथा इच्छा की ओर अग्रसर होना ही विस्थापन है। उदाहरण के लिए अधिकारी पर गुस्सा न उतार सकने पर व्यक्ति अपना गुस्सा कार्यालय से घर आकर बच्चे पर अपना गुस्सा उतारता है। सास से झगङा होने पर बहू गुस्सा बर्तनों पर उतारती है। यह विस्थापना के ही उदाहरण हैं।

कुसमायोजन को रोकने हेतु उपाय (Measures to Control Maladjustment)-

सामान्य मानसिक स्वास्थ्य वाला तथा मानसिक असन्तुलन से ग्रस्त व्यक्ति दोनों ही आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों का सहारा लेते हैं किन्तु मानसिक रूप से अस्वस्थ (असन्तुलित व्यक्तित्व) व्यक्ति इन अभियांत्रिकियों का सीमा से बाहर कहीं बहुत ही प्रयोग करते हैं। विद्यालय तथा शिक्षक इस दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं।

छात्रों को भग्नाशा का शिकार न होना पङे इस दिशा में अध्यापक तथा विद्यालय निम्नांकित कार्य कर सकते हैं-

  • बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाए। इस हेतु विद्यालय में उचित मात्रा में खेल-कूद की सुविधा हो।
  • समुचित संवेगात्मक विकास न हो, इस हेतु प्रयास किये जाए। अध्यापक स्वयं संवेगात्मक रूप से सन्तुलित हों तथा वे छात्रों के संवेगों पर समुचित ध्यान दें।
  • अध्यापक का व्यवहार स्नेहिल तथा सहयोगात्मक हो। शिक्षक किसी भी परिस्थिति में द्वेष-भावना से पक्षपूर्ण व्यवहार न करें।
  • अध्यापकों के व्यवहारों में एकरूपता होनी चाहिए। उसके कर्म, व्यवहार तथा कथनी में अन्तर नहीं होना चाहिए।
  • छात्रों के आकांक्षा-भार को समुचित स्तर पर रखा जाये। इस हेतु उनकी क्षमतायें, रुचियों तथा अभियोग्यताओं को ध्यान में रखा जाये।
  • हानिकारक प्रतिस्पर्धाओं पर नियंत्रण लगाया जाये।
  • प्रयास किये जाये कि छात्र आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों का कम से कम प्रयोग करें।
  • उनका पाठ्यक्रम उनके अनुकूल हो, शिक्षण विधियाँ अनुकूल हो तथा उन्हें शिक्षण-अधिगम के लिए पर्याप्त सुविधायें दी जाये।
  • छात्रों को पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जाये तथा स्वानुशासन की व्यवस्था की जाये।
  • नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
  • शैक्षिक, व्यावसायिक, व्यक्तिगत तथा यौन-निर्देशन की समुचित व्यवस्था हो।
  • अध्यापकों का मानसिक स्वास्थ्य सन्तुलित हो।
  • पाठ्यक्रम आधुनिकतम रखा जाये।

विद्यालय बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने की दिशा में उक्त कार्यों के अलावा और भी अनेक कार्य कर सकता है। इनके लिए सम्पूर्ण विद्यालय को एकजुट होकर कार्य करना होगा।

आज के आर्टिकल में हमने समायोजन का अर्थ ,परिभाषाएं और प्रकारों को अच्छे से पढ़ा ,हम आशा करतें है कि ये टॉपिक आपको अच्छे से समझ आ गया होगा ।

बुद्धि का सिद्धान्त

बुद्धि क्या है ?

संवेगात्मक बुद्धि क्या है ?

अधिगम क्या है ?

व्यक्तित्व क्या है ?

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